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[ ५३ ]
गाइकालं अांत संसारे । हिउमियाई बहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाई ॥ ७ ॥
गाथा - भावरहिण सपुरिस
छाया - भावरहितेन सत्पुरुष ! अनादिकालं अनन्तसंसारे । गृहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिर्ग्रन्थरूपाणि ॥ ७ ॥
अर्थ - हे सत्पुरुष ! आत्मस्वरूप की भावनारहित तूने अनादि काल से इस अनन्त संसार में बाह्य निर्ग्रन्थरूप ( द्रव्यलिंग ) अनेक बार ग्रहण किये और छोड़े हैं ।
गाथा
भी सणगर गईए तिरियगईए कुदेवमणुगइये । पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिरणभावरणा जीव ! ॥
छाया - भीषण नरकगतौ तिर्यग्गतौ कुदेवमनुष्यगत्योः । प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावनां जीव ! ॥ ८ ॥
अर्थ - हे जीव ! तू ने भयानक नरकगति में, तिर्यञ्चगति में, नीच देवों और नीच मनुष्यों में बहुत कठोर दुःख पाये हैं । इसलिए अब तू आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन कर, जिससे तेरे सांसारिक दुःखों का अन्त हो ॥ ८ ॥
गाथा - सत्तसु गरयावासे दारुणभीसाईं असहणीयाई । ताई सुइरकालं दुखाइ गिरंतरं सहियाई ॥१॥ छाया - सप्तसु नरकावासेषु दारुणभीषणानि असहनीयानि । भुक्तानि चिरकालं दुःखानि निरन्तरं सोढानि ॥ ॥
अर्थ- हे जीव ! तूने सात नरकभूमियों के बिलों में बहुत भयानक और न सहने योग्य दुःख बहुत समय तक लगातार भोगे और सहे ॥ ६ ॥
गाथा— खणणुत्तावणबालरगवेयण विच्छेयाणिरोहं च ।
पत्तोसि भावरहि तिरियगईए चिरं कालं ॥ १० ॥ छाया - खननोत्तापनज्वालनव्यजन विच्छेदनानिरोधं च ।
प्राप्तोऽसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरं कालम् ॥ १० ॥ अर्थ- हे जीव ! आत्मा की भावना रहित तूने तिर्यञ्च गति में बहुत काल तक अनेक दुःख पाये ||