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[२०] छाया- एते त्रयोऽपि भावाः भवन्ति जीवस्य अक्षयाः अमेयाः।
त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनभणितं द्विविधं चारित्रम् ॥ ४ ॥ अर्थ-जीव के ये ज्ञानादिक तीनों भाव अक्षय और अनन्त हैं तथा इन्हीं को शुद्ध
करने के लिये जिनेन्द्र देव ने दो प्रकार का चारित्र कहा है॥४॥
गाथा- जिणणाणदिद्विसुद्धं पढ मं सम्मत्तचरण चारित्तं ।।
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि॥५॥ छाया- जिनज्ञानदृष्टिशुद्धं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ।
. द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि ॥५॥ अर्थ- इनमें पहला तो सम्यक्त्व के आचरण रूप चारित्र है जो जिन भाषित
तत्वों के ज्ञान और श्रद्धान से शुद्ध है । तथा दूसरा संयम के आचरण रूप चारित्र है, वह भी जिनेन्द्र देव के ज्ञान से उपदेश किया हुआ शुद्ध है ॥५॥
गाथा- एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाइ।
परिहरि सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण ॥६॥ छाया- एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् ।
परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान त्रिविधयोगेन ॥६॥ अर्थ-इस प्रकार सम्यक्त्वाचरणरूप चारित्र को जानकर जिन देव से कहे हुए,
मिथ्यात्व के उदय से होने वाले शंकादि दोषों को तथा ३ मूढ़ता, ६ अनायतन, ८ मद आदि सम्यक्त्व के सब मलों को मन, वचन, काय से त्याग करो ॥६॥
गाथा- णिस्संकिय णिकंखिय णिविदिगिंछा अमूढदिट्टी य ।
उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ॥७॥ छाया- निःशंकितं निःकांक्षित निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च ।
उपगृहनं स्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावना च तेऽष्टौ ॥७॥