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गाथा - जह फुल्लं गंधमयं भवदि हु खीरं स घियमयं चावि । तह दंसणं हि सम्मं गाणमयं होइ रुवत्थं ॥१५॥
छाया -यथा पुष्पं गन्धमयं भवति स्फुटं क्षीरं तत् घृतमयं चापि । तथा दर्शनं हि सम्यग्ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ||१५||
अर्थ - जैसे फूल गन्धसहित होता है और दूध घी सहित होता है । वैसे ही दर्शन (सम्यक्त्व) अन्तरंग में तो सम्यग्ज्ञानरूप है ओर बहिरंग में मुनि, श्रावक और आर्यिका का भेष ही दर्शन है || १५||
गाथा - जिणबिम्बं गाणमयं संजमसुद्धं सुवीतरायं च । जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥ १६ ॥
छाया - जिनबिम्बं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च । यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे ॥ १६ ॥
अर्थ- जो जिनसूत्र का जाननेवाला है, संयम से शुद्ध है, रागभावरहित है तथा जो कर्मों के नाश के कारण शुद्ध दीक्षा और शिक्षा देता है, वह श्राचार्य जिनबिम्ब कहलाता है ॥ १६ ॥
गाथा - तरस य करह परणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं । जस्स च दंसण गाणं अस्थि धुवं चेयणाभावो ॥१७॥
छाया - तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां च विनयं वात्सल्यम् । यस्य च दर्शनं ज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ॥ १७ ॥
अर्थ - जिसके निश्चय से दर्शन, ज्ञान और चेतना भाव है उस आचार्यरूप जिनबिम्ब को प्रणाम करो, सब प्रकार से उसकी पूजा करो, तथा उसी से शुद्ध प्रेम करो ॥१७॥
सकी विनय करो,
गाथा - तववयगुणेहिं सुद्धो जादि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । अरहंत मुद्द एसा दायारी दिक्ख सिक्खा य ॥ १८॥
छाया - तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् । मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च ॥ १८ ॥
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