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[ ३५ ] गाथा-बुद्धं जं बोइंवो अप्पासं चेदयाई अण्णं च।
' पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ॥८॥ छाया- बुद्धयत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यच्च ।
पंच महाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यगृहम् ॥ ८ ॥ अर्थ- जो आत्मा को ज्ञानस्वरूप जानता हुआ दूसरे जीवों को चेतना स्वरूप जानता
है। ऐसे पांच महाव्रतों से शुद्ध और ज्ञानस्वरूप मुनि को हे भव्य ! तू चैत्यगृह जान ॥ ८॥
गाथा-चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स ।
चेइहरं ज़िणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं ॥ ६ ॥ छाया- चैत्यं बन्धं मोक्षं दुःखं सुखं च आत्मकं तस्य ।
__ चैत्यगृहं जिनमार्गे षट्कायहितंकरं भणितम् ।। ६ ।। अर्थ-बन्ध, मोक्ष, सुख और दुःख के स्वरूप का जिस आत्मा को ज्ञान हो गया हो
वह चैत्य है । उसका गृह (घर) चैत्यगृह कहलाता तथा जैनमार्ग में छहकाय के जीवों की भलाई करने वाला संयमी मुनि चैत्यगृह कहा गया है ॥६॥
गाथा- सपरा जंगमदेहा दंतणणाणेण सुद्धचरणाणं ।
णिग्गंथवीयरागा जिणमग्गे एरिसा पडिमा ॥१०॥ छाया- स्वपरा जंगमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् ।
निर्ग्रन्थवीतराणा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा ॥१०॥
अर्थ-दर्शन और ज्ञान से निर्मल चारित्र वाले मुनियों का परिग्रह और रागद्वेष
रहित अपना और दूसरे का जो चलता फिरता शरीर है सो जैनमार्ग में प्रतिमा कही गयी है ॥ १०॥
गाथा-जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं ।
सा होइ वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥११॥