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[ ४६ ] गाथा-तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुण विसुद्धा य ।
सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वजा एरिसा भणिया ॥५॥ छाया-तपोव्रतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च ।
__ शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५८।। अर्थ-जो १२ तप, ५ महाव्रत और ८४ लाख उत्तर गुणों से शुद्ध है, संयम,
सम्यक्त्व और मूलगुणों से शुद्ध है तथा जो दीक्षा के गुणों से शुद्ध है, ऐसी शुद्ध दीक्षा कही गई है ।।५।।
गाथा-एवं आयत्तणगुण पज्जत्ता बहुविसुद्धसम्मत्ते ।
णिग्गंथे जिणमग्गे संखेवेणं जहाखादं ॥५॥ छाया-एवं आत्मत्वगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे ।
निर्ग्रन्थे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम् ॥५६॥ अर्थ-इस प्रकार श्रात्मभावना के गुणों से परिपूर्ण दीक्षा निर्मल सम्यक्त्व सहित
और परिग्रह रहित जैसी जिनमार्ग में प्रसिद्ध है, वैसी संक्षेप से कही गई ॥५६॥
गाथा-रूवत्थं सुद्धत्त्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं ।
__ भव्वजणबोहणत्थं छक्कायहितंकरं उत्त ॥६॥ छाया - रूपस्थं शुद्धयर्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम् ।
भव्यजनबोधनार्थं षट्कायहितकर उक्तम् ॥६॥ अर्थ-जिन भगवान् ने जिन शासन में कर्मों के क्षयरूप शुद्धि के लिये जैसा
निर्ग्रन्थ रूप मोक्षमार्ग कहा है, छहकाय के जीवों का हित करने वाले उस मार्ग को मैंने भव्य जीवों को समझाने के लिये कथन किया ॥६०॥
गाथा-सदवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं ।
सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६॥ छाया-शब्दविकारो भूतः भाषासूत्रेषु यजिनेन कथितम् ।
तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः ।।६१।।