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गाथा - जहजारूव सरिसा अवलंबियभुय गिराउहा संता । परकिय लियणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५१ ॥ छाया— यथाजातरूपसदृशा अवलम्बितभुजा निरायुधा शान्ता । परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ५१ ॥
अर्थ - जिसमें नग्नरूप धारण किया जाता है, कायोत्सर्ग मुद्रा से ध्यान किया जाता है, जो शस्त्र रहित है, शान्तमुद्रा सहित है और जहां दूसरे के बनाये हुए वसतिका आदि में निवास किया जाता है, ऐसी जिन दीक्षा बताई गई है ॥ ५१ ॥
गाथा - उवसमखमदमजुत्ता सरीरसंक्कारवज्जिया रूक्खा | राय दोसर हिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५२ ॥
छाया -- उपशमक्षमदमयुक्ता शरीरसंस्कार वर्जिता रूक्षा । मदरागदोषरहिता प्रव्रज्या ईदृशो भणिता ॥ ५२ ॥
अर्थ -- जो कर्मों के उपशम ( फल न देना ), क्षमा ( क्रोध न करना), दम ( इन्द्रियों को जीतना ) आदि परिणाम सहित है, शरीर के संस्कार ( सजावट ) रहित है, तेल आदि के लेपरहित है, मद, राग और द्वेष रहित है, ऐसी जिन दीक्षा कही गई है ।। ५२ ।।
गाथा - विवरीयमूढभावा पणटुकम्मट्ठ गट्टुमिच्छत्ता । सम्मत्तगुणविसुद्धा पवजा एरिसा भणिया ॥ ५३ ॥
छाया - विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा । सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ५३ ॥
अर्थ - जिसका अज्ञानभाव दूर हो गया है, जिसमें आठों कर्मों का नाश हो गया है, और सम्यग्दर्शन रूप गुण से निर्मल है, ऐसी जिन दीक्षा बताई गई है ॥ ५३ ॥
गाथा
जिणमग्गे पवज्जा छहसंहणणेसु भणिय ग्गिंथा । भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया ॥ ५४ ॥