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[ ४८ ] छाया- जिनमार्गे प्रव्रज्या षट्संहननेषु भणिता निर्ग्रन्था।।
भावयन्ति भव्यपुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता.॥ ५४॥ अर्थ-जिन शासन में छहों संहनन वालों के जिन दीक्षा कही गई है। वह
परिग्रहरहित है और कर्मों के नाश का कारण बताई गई है। ऐसी दीक्षा को भव्य पुरुष स्वीकार करते हैं।। ५४ ।।
गाथा-तिलतुसमत्तणि मित्तसम बाहिरगंथसंगहो णत्थि।
पव्वज हवइ एसा जहं भणिया सव्वदरसीहिं ॥ ५५ ॥ छाया-तिलतुषमात्रनिमित्तसमः बाह्यग्रंथसंग्रहः नास्ति ।
प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः ।। ५५ ।। अर्थ- जिसमें तिलतुषमात्र परिप्रह का कारण रागभाव और तिलतुषमात्र बाह्य
परिग्रह का ग्रहण नहीं है, ऐसी दीक्षा सर्वज्ञदेव के द्वारा कही गई है ।।५५
गाथा- उवसग्गपरिसहसहा णिजणदेसे हि णिच्च अत्थेइ ।
सिल कट्टे भूमितले सव्वे आरूहइ सव्वत्थ ॥ ५६ ।। छाया- उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति ।
__ शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ।। अर्थ- उपसर्ग और परीषहों को सहने वाले दीक्षा सहित मुनि हमेशा निर्जन
(मनुष्य रहित ) स्थान में रहते हैं। तथा वहां भी शिला ( पत्थर), काष्ठ (लकड़ी) और भूमि (जमीन) पर बैठते हैं ।। ५६ ।।
गाथा-पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ ।
__ सज्झायमाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५०॥ छाया-पशुमहिलाषण्ढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथाः ।
स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५७।। अर्थ-जिसमें पशु, स्त्री, नपुंसक और व्यभिचारी पुरुषों को संगति नहीं की
जाती, स्त्री कथा आदि खोटी कथा नहीं कही जाती तथा जो स्वाध्याय और ध्यान सहित है, ऐसी जिनदीक्षा कही गई है ॥५७॥