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[ ३६ ] गाथा-णाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो।
, णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥२२॥ छाया-ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषो ऽपि विनयसंयुक्तः ।
ज्ञानेन लभते लक्ष्यं लक्षयन् मोक्षमार्गस्य ॥२२॥ अर्थ-ज्ञान पुरुष के होता है और विनय सहित मनुष्य ज्ञान को पाता है तथा
ज्ञान से ही मोक्षमार्ग के लक्ष्य (निशाने ) परमात्मा के स्वरूप को विचारता हुआ मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है ॥२२॥
गाथा-मइधणुहं जस्स थिरं सुद गुण बाणा सुत्थि रयणतं ।
परमस्थबद्धलक्खो ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ॥२३॥ छाया-मतिधनुर्यस्य स्थिरं श्रुतं गुणः वाणाः सुसन्ति रत्नत्रयम्।
परमार्थबद्धलक्ष्यः नापि स्खलति मोक्षमार्गस्य ॥२३॥ अर्थ-जिसके पास मतिज्ञानरूप स्थिर (मजबूत) धनुष है, श्रुतज्ञानरूप डोरी है,
रत्नत्रय रूपी अच्छे बाण हैं, और जिसने शुद्ध आत्मा के स्वरूप को निशाना बना लिया है, ऐसा मुनि मोक्षमार्ग से नहीं चूकता है ॥२३॥
गाथा-सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च।
सो देइ जस्स अस्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ॥२४॥ छाया-स देवः यः अर्थ धर्म कामं सुददाति ज्ञानं च ।
स ददाति यस्य अस्ति अर्थः धर्मः च प्रव्रज्या ॥२४॥ अर्थ-जो जीवों को धर्म, अर्थ (धन), काम (भोग ) और मोक्ष का कार
ज्ञान देता है वह देव है। क्योंकि जिसके पास जो चीज होती है वही दूसरे को देता है । इसलिये जिसके पास धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कारण दीक्षा हो, उसको देव जानना चाहिये ॥२४॥ गाथा-धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्यसंगपरिचत्ता ।
-देवो चवयगमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ॥२५॥ छाया धर्मः दयाविशुद्धः प्रव्रज्या सर्वसंगपरित्यक्ता ।
देवः व्यपगतमोहः उदयकरः भव्यजीवानाम् ॥२५॥