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॥ (३) चारित्रपाहुड़ ॥ गाथा- सव्वण्हु सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी ।
वंदित्त तिजगवंदा अरहंता भव्वजीवेहिं ॥ १॥ णाणं दसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसिं।
मुक्खाराहणहेडं चारित्त' पाहुडं वोच्छे ॥२॥ छाया- सर्वज्ञान सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः।
वंदित्वा त्रिजगद्वन्दितान् अर्हतः भव्यजीवैः ॥ १॥ ज्ञानं दर्शनं सम्यक चारित्रशुद्धिकारणं तेषाम् ।
मोक्षाराधनहेतु चारित्र प्राभृतं वक्ष्ये ॥२॥ युग्मम् ॥ अर्थ- आचार्य कहते हैं कि मैं सब पदार्थों को जानने और देखने वाले, मोहरहित
रागद्वेषरहित, उत्कृष्ट पद में स्थित, तीनों लोक के जीवों से नमस्कार करने योग्य, भव्यजीवों के द्वारा पूजनीय अर्हन्तों को नमस्कार करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय की शुद्धता का कारण तथा मोक्ष की प्राप्ति के उपायरूप चारित्रपाहुड़ को कहूंगा ॥ १-२॥ ...
गाथा- जं जाणइ तंणाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं ।
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ॥३॥ छाया- यजानाति तत् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम् ।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम् ॥३॥ अर्थ-जो जानता है सो ज्ञान है और जो देखता है अर्थात् श्रद्धान करता है वह
दर्शन कहा गया है । तथा इन दोनों के संयोग होने से चारित्र गुण प्रगट होता है ॥३॥
गाथा- एए तिएिणवि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया। .
. तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं ॥४॥