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[१२] विद्वानों का ऐसा मत है। यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो जैन धर्म में एक नवीन सम्प्रदाय जन्म ले लेता । 'जिन' भगवान् द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त जनता के समक्ष सचाई के साथ उपदिष्ट करने का दावा "जिन" शब्द से उनका अभिप्राय भगवान महावीर से हो सकता है। जिनकी उन्होंने विशेष वंदना की है। जैन धर्म की उत्पत्ति के प्रश्न पर यहाँ विचार करना ठीक न होगा इतना कह देना उचित होगा कि जैन तथा हिन्दू परम्परा के अनुसार जैन धर्म के प्रवर्तक श्री ऋषभदेव थे, जो इस अवसप्पणी काल में जैनियों के प्रथम तीर्थङ्कर थे और हिन्दुओं के २४ अवतारों में ८ वें अवतार थे, उनका समय इतिहास से पहले का है जिसका निश्चय करना मुश्किल है। भगवान महावीर से २५० वर्ष पूर्व २३ वें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ हुए। विद्वानों ने भगवान पार्श्वनाथ का होना स्वतन्त्र प्रमाणों द्वारा म्वीकार किया है, किन्तु उनके विषय में इतनी जाँच की कि उनके उपदेश का सार केवल ४ प्रतिज्ञाओं (वृतों) में बद्ध था। उसी उपदेश को भगवान महावीर ने ब्रह्म वयं व्रत को पृथक् वर्णन करके ५ व्रतों में उपदिष्ट किया था। इस व्रत का समावेश भगवान पार्श्वनाथ के समय अपरिग्रह व्रत में समझा जाता था। वर्तमान रूप में सिद्धान्त पूर्ण रूप से भगवान महावीर स्वामी का उपदेश मानना चाहिए:प्रस्तुत पुस्तक में जैन धर्म का कई दृष्टि कोणों से उल्लेख इस बात का द्योतक है कि उनके समय में सिद्धान्त पूर्ण रूप से विद्यमान था।
___ श्री कुन्दकुन्द ने अनेक ग्रन्थ रचनाएं की। छोटी और बड़ी सब मिलाकर उनके ८४ ग्रन्थ बतलाए जाते हैं, वे ९५ वर्ष जीवित रहे । उनका लेखनकाल ५० वर्ष या इससे अधिक होता है। यद्यपि उनकी रचनाओं का क्रम प्रकट करने वाला कोई इतिहास नहीं है तथापि ‘अष्ट पाहुड' विचार और ढंग दोनों प्रकार से उनकी प्रधान रचनाओं में सर्व प्रथम मालूम होता है। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार और पंचास्तिकायसार जो प्रौढ़ावस्था की प्रतीत होती हैं, उनका ढंग ठोस है विचार अधिक ठोस और गंभीर दृष्टिकोण अधिक विस्तृत है, किन्तु अष्टपाहुड मूल सिद्धान्त को असली रूप में रखने का अधिक मेल खाता है।
पाठकों की अष्टपाहुड की स्वाध्याय करने के लिये और प्रासंगिक गाथाओं का ठोक अर्थ समझने के लिए जैनियों का सृष्टिवाद और जैन मीमांसा का साधरण ज्ञान आवश्यक है । ग्रन्थ में शिक्षा रूप में कुछ लोकाचार का भी विवरण है। प्रस्तुत पुस्तक का लोकाचार सम्बन्धी विषय नहीं है, मूल से ही उसकी सामान्य उपमा समझ में आ जाती है, और अनुवाद में भी उनका सक्षेप से संकेत है। जैन धर्म लोक का आकार उस खड़े हुए मनुष्य बत् मानता है जिसकी टांगें फैली हुई और हाथ कूल्हों पर हों, इसका मध्य भाग दृष्टिगोचर संसार है जिसमें भूमि और मध्य लोक है, उसके ऊपर १६ स्वर्गों का क्रम है, सब से ऊपर सिद्ध आत्माओं