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अर्थ-जो चौसठ चमरसहित हैं, चौंतीस अतिशयसहित हैं, सदैव बहुत जीवों को
हित का उपदेश करने वाले हैं और कर्मक्षय के कारण है, ऐसे तीर्थंकर परमदेव पूजने योग्य हैं ॥२६॥
गाथा-णाणेण दसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण।
चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिह्रो ॥३०॥ छाया- ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन ।
चतुर्णामपि समायोगे मोक्षः जिनशासने दृष्टः ॥३०॥ अर्थ-ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र इन चार गुणों के संयोग से संयमगुण होता है और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा जिनशासन में कहा है ॥३०॥
गाथा-णाणं णरस्स सारो सारः अपि णरस्स होइ सम्मत्तं ।
सम्मत्तानो चरणं चरणाम्रो होइ णित्राणं ॥३१॥ छाया-ज्ञानं नरस्य सारः सारः अपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम् ।
सम्यक्त्वात् चरणं चरणात् भवति निर्वाणम् ॥३१॥ अर्थ--मनुष्य के लिये प्रथम तो ज्ञान सार है और ज्ञान से भी अधिक सम्यग्दर्शन
सार है। क्योंकि सम्यक्त्व से ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान और चारित्र सम्यक्चारित्र होता है और चारित्र से निर्वाण की प्राप्ति होती है ॥३१॥
गाथा- णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरियेण सम्मसहियेण ।
चोण्ह पि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो ॥३२ ।। छाया- ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन ।
चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः ॥३२॥ अर्थ-ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व सहित तप और चारित्र इन चारों के संयोग होने
पर ही जीव सिद्ध हुए हैं इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३२ ॥
गाथा- कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं ।
सम्मइंसणरयणं अग्घेदि सुरासुरे लोए ॥३३ ।। छाया-कल्याणपरम्परया लभन्ते जीवाः विशुद्धसम्यक्त्वम् ।
सम्यग्दर्शनरत्नं अय॑ते सुरासुरे लोके ॥३३ ।।