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[ १४ ] छाया-निश्चेलपाणिपात्रं उपदिष्टं परमजिनवरेन्द्रः । '.. एकोऽपि मोक्षमार्गः शेषाश्च अमार्गाः सर्वे ॥१०॥ अर्थ-परमोत्कृष्ट जिनेन्द्रदेव ने जो वस्त्ररहित दिगम्बर मुद्रा और पाणिपात्र
आहार करने का उपदेश दिया है, वह एक अद्वितीय मोक्षमार्ग है, शेष सब मिथ्यामार्ग हैं ॥१०॥
गाथा—जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि ।
___सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए ॥११॥
छाया-यः संयमेषु सहितः प्रारंभपरिग्रहेषु विरतः अपि । ". . . सः भवति वन्दनीयः ससुरासुरमानुषे लोके ॥१२॥ अर्थ-जो सब प्रकार के संयमों को धारण करता है और समस्त प्रारम्भ तथा
परिग्रह से विरक्त रहता है। वही इस सुर असुर और मनुष्य सहित लोक में नमस्कार करने योग्य है ॥११॥
गाथा-जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुता ।
ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिजरा साहू ॥१२॥ 'छाया-ये द्वाविंशतिपरीषहान् सहन्ते शक्तिशतैः संयुक्ताः ।
ते भवन्ति वन्दनीयाः कर्मक्षयनिर्जरासाधवः ॥१२॥ अर्थ-जो मुनि सैकड़ों शक्ति सहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों को सहते हैं और
कर्मों के एक देश क्षयरूप निर्जरा करने में चतुर हैं, वे साधु नमस्कार करने योग्य हैं ॥१२॥
गाथा- अवसेसा जे लिंगी दसणणाणेण सम्म संजुत्ता।
चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय य ॥ १३ ॥ छाया- अवशेषा ये लिंगिनः दर्शनज्ञानेन सम्यक् संयुक्ताः।
चेलेन च परिगृहीताः ते भणिताः इच्छाकारयोग्याः ॥ १३ ॥ अर्थ-दिगम्बर मुद्रा के सिवाय जो अन्य लिंगी हैं अर्थात् उत्कृष्ट श्रावक का भेष
धारण करते हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित हैं तथा वस्त्र मात्र परिग्रह रखते हैं, वे इच्छाकार करने योग्य कहे गये हैं। अर्थात् उनको 'इच्छामि' कह कर नमस्कार करना चाहिये ॥१३॥