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गाथा- असंजदं ण वंदे वच्छविहीणोवि तो ण वंदिज्ज । '
___ दोरिणवि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि ॥२६॥ छाया-असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्यत।
द्वौ अपिभवतः समानौ एकः अपि न संयतः भवति ॥२६॥ अर्थ-असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिये और भावसंयमरहित बाह्य नग्न
रूप धारण करने वाला भी नमस्कार योग्य नहीं है। क्योंकि ये दोनों संयमरहित होने से समान हैं, इनमें एक भी संयमी नहीं है ॥२६॥
गाथा- णवि देहो बंदिज्जइ णवि य कुलो णवि य जाइसंजुत्तो।
को बंद मि गुणहीणो णहु सवणोणेव सावत्रो होइ ॥२७॥ छाया- नापि देहो वन्द्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्तः ।
कः वन्द्यते गुणहीनः न खलु श्रमणः नैव श्रावकः भवति ॥२७॥ अर्थ-देह को कोई नमस्कार नहीं करता, उत्तम कुल और जातिसहित को भी
नमस्कार नहीं करता। सम्यग्दर्शनादि गुणरहित को कौन नमस्कार करता है, क्योंकि इन गुणों के बिना मुनिपना और श्रावकपना नहीं हो सकता ॥२७॥
गाथा- वंदमि तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च ।
- सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावेण ॥२८॥ छाया- वन्दे तपः श्रमणान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्य च ।
सिद्धिगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन ॥२८॥ अर्थ-श्रीकुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं तप करने वाले साधुओं को, उनके मूल
गुणों को, उत्तरगुणों को, ब्रह्मचर्य को, और मुक्तिगमन को सम्यक्त्वसहित शुद्धभाव से नमस्कार करता हूँ ॥२८॥
गाथा-चउसट्ठिचमरसहिो चउतीसहि अइसाहिं संजुत्तो।
अणवरबहुसत्तहिश्रो कम्मक्खयकारणणिमित्तो ॥२६॥ : छाया- चतुःषष्ठिचमरसहितः चतुस्त्रिंशद्भिरतिशयैः संयुक्तः ।
अनवरतबहुसत्वहितः कर्मक्षयकारणनिमित्तः ॥२६॥