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गाथा - जं सकइ तं कीरइ जं च ण सक्के तं च सद्दहरणं ।
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केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मन्तं ||२२||
छाया - यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्धानम् । केवलिजिनैः भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ||२२||
अर्थ - जितना चारित्र धारण करने की शक्ति है उतना तो धारण करना चाहिये और बाकी का श्रद्धान करना चाहिए। क्योंकि जिनभगवान् ने श्रद्धान करने वाले के सम्यग्दर्शन बताया है ||२२||
गाथा - दंसणरणाणचरित्ते तवविरणये शिश्चकालसुपसत्था । दे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधर|णं ॥२३॥ छाया - दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकाल सुप्रस्वस्थाः । ते तु वन्दनीया ये गुणवादिनः गुणधराणाम् ॥२३॥
अर्थ - जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय आदि में अच्छी तरह लीन हैंऔर आराधनाओं के धारक गणधरादि आचार्यों का गुणगान करने वाले
हैं वे ही नमस्कार करने योग्य हैं ||२३||
गाथा - सहजुप्परां रूवं दट्ठ जो मरणए मच्छरियो । सोसंजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो ||२४||
छाया - सहजोत्पन्नं रूपं दृष्ट्रा यः मन्यते न मत्सरी । सः संयमप्रतिपन्नः मिध्यादृष्टी भवति एषः ||२४||
अर्थ - जो जिनेन्द्रभगवान् के दिगम्बर रूप को देखकर ईर्ष्याभाव से उसका विनय नहीं करता है वह संयम धारण करने पर भी मिथ्यादृष्टी ही है ॥२४॥
गाथा -- अमराण वंदियाणं रूवं दट्ट्ठूण सीलसहियाणं । ये गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति ||२५|| छाया - अमरैः वन्दितानां रूपं दृष्ट्रा शीलसहितानाम् । ये गौरवं कुर्वन्ति च सम्यक्त्वविवर्जिताः भवन्ति ||२५||
अर्थ--शील सहित और देवों से नमस्कार योग्य जिनेश्वर के रूप को देखकर जो पुरुष अपना गौरव रखते हैं वे भी सम्यक्त्व रहित हैं ||२५||