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ज्ञान में विकार भाव नहीं होता है और खड़े होकर आहार किया जाता है, ऐसा मूर्तिमान् दर्शन पूजने योग्य है | ॥ १४ ॥
गाथा- - सम्मत्तादो गाणं गाणादो सव्वभाव उवलद्धी । उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियादि ॥ १५ ॥ छाया - सम्यक्त्वात् ज्ञानं ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः । उपलब्धपदार्थे पुनः श्रेयो ऽश्रेयो विजानाति ॥ १५ ॥
अर्थ - सम्यग्दर्शन से ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है और सम्यग्ज्ञान से सब पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है तथा पदार्थों के जानने से यह जीव अपनी भलाई बुराई को पहचानने लगता है । ।। १५ ।।
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गाथा— सेयासेयविदण्ह् उद्धददुस्सील सोलवंतो सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुग्ण लहइ गिव्वाणं ॥ १६ ॥ छाया - श्रेयोऽश्रेयोवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि । शील फलेनाभ्युदयं ततः पुनः लभते निर्वाणम् ॥ १६ ॥
अर्थ - भलाई और बुराई के मार्ग को जानने वाला पुरुष मिथ्यात्व स्वभाव को नष्ट कर सम्यक्त्व स्वभाव वाला हो जाता है तथा सम्यक्त्व के प्रभाव से ही तीर्थंकर आदि अभ्युदय पद पाकर अन्त में निर्वाण पद पाता है ।। १६ ।।
गाथा - जिरणवयरणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं श्रमिदभूयं । जर मरण वाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ १७ ॥ रेचनममृतभूतम् । जरामरणव्याधिहरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥ १७ ॥
छाया - जिनवचनमौषधमिदं विषयसुख विरेच
अर्थ — यह जिन भगवान् का वचन विषयसुख को दूर करने वाली औषधि है । तथा जन्म, बुढ़ापा, मरण आदि रोगों को हरने और सब दुःखों को नाश करने के लिये अमृत के समान है ॥१७॥
गाथा - एगं जिणस्स रूवं बीयं उक्किट्ठसावया तु ।
अवरट्ठियाणं तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि ॥ १८ ॥