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[ १० ] अर्थ-जीव विशुद्ध सम्यग्दर्शन से कल्याण की परम्परा पाते हैं। इस लिए .... सम्यग्दर्शनरूपी रत्न लोक में देव और दानवों के द्वारा पूजा जाता है ॥३३॥
गाथा-लद्धण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमे
लद्धण य सम्मत्त अक्षयसुक्खं च मोक्खं च ॥३४॥ छाया- लब्ध्वा च मनुजत्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण ।
लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षच ॥३४॥ अर्थ-यह जीव उत्तम गोत्र सहित मनुष्य पर्याय तथा सम्यग्दर्शन पाकर अविनाशी
सुख और मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ३४॥
गाथा-विहरदि जाव जिणिंदो सहसट्रसुलक्खणेहिं संजुत्तो।
चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ॥३५॥ छाया- विहरति यावत् जिनेन्द्रः सहस्राष्टसुलक्षणैः संयुक्तः । ।
चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता ॥ ३५॥ अर्थ- केवल ज्ञान होने के बाद १००८ लक्षण और ३४ अतिशय सहित जिनेन्द्र
भगवान् जितने समय तक इस लोक में विहार करते हैं, उतने समय तक उनके शरीर सहित प्रतिबिम्ब को स्थावरप्रतिमा कहते हैं ॥३५॥
गाथा- वारसविहतवजुत्ता कम्मं खविऊण बिहिबलेण सं।
वोसहचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥३६॥ छाया- द्वादशविधतपोयुक्ताः कर्म क्षपयित्वा विधिबलेन स्वीयम् ।
व्युत्सर्गत्यक्तदेहा निर्वाणमनुत्तरं प्राप्ताः ॥३६॥ अर्थ-जो बारह प्रकार के तप से विधिपूर्वक अपने कर्मों का नाश कर व्युत्सर्ग से
शरीर को छोड़ते हैं वे सर्वोकृत्ष्ट मोक्ष अवस्था को प्राप्त होते हैं ॥ ३६॥