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छाया- सम्यक्त्वसलिलप्रवाहः नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य ।
कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ॥७॥ अर्थ-जिस पुरुष. के मन में हर समय सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह बहता रहता
है, उसका पूर्व में बँधा हुआ भी कर्मरूपी धूल का आवरण नष्ट हो जाता है ॥७॥
गाथा- जे दसणेसु भट्टा णाणेभट्टा चरित्तभट्टा य ।
एदेभट्ट विभट्टा सेसं पि जणं विणासंति ॥८॥ छाया- ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञानेभ्रष्टाः चरित्रभ्रष्टाः च।
एते भ्रष्टात् अपि भ्रष्टाः शेषं अपि जनं विनाशयन्ति ।। अर्थ-जो पुरुष दर्शन, ज्ञान, और चारित्र इन तीनों गुणों से भ्रष्ट ( रहित) हैं,
वे अत्यन्त भ्रष्ट ( पतित ) हैं। तथा वे अपने उपदेश से अन्य लोगों को भी भ्रष्ट करते हैं ॥८॥
गाथा- जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोयगुणधारी ।
तस्स य दोस कहता भग्गा भग्गत्तणं दिति ॥६॥ छाया- यः कोऽपि धर्मशीलः संयमतपोनियमयोगगुणधारी ।
तस्य च दोषान् कथयन्तः भग्नाः भग्नत्वं ददति ॥ ६ ॥ अर्थ-जो कोई धर्मात्मा पुरुष संयम, तप, नियम, योग आदि गुणों को धारण
करता है, उसके गुणों में दोषों का आरोप करते हुए पापी पुरुष आप भ्रष्ट हैं और दूसरे धर्मात्माओं को भी भ्रष्ट करना चाहते हैं ॥ ६ ॥
गाथा-जहमूलम्मि विणढे दुमस्स परिवार पत्थि परवड्डी।
तह जिणदसणभट्टा मूलविणट्ठा ण सिझति ॥ १०॥ छाया-यथामूले विनष्टे ब्रु मस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः ।
तथा जिनदर्शनभ्रष्टाः मूलविनष्टाः न सिध्यन्ति ॥ १०॥ अर्थ-जैसे वृक्ष की जड़ नष्ट हो जाने पर उसकी शाखा, पत्र, फल, फूल आदि की
वृद्धि नहीं होती, वैसे ही जो पुरुष जिनमत के श्रद्धान से रहित हैं उनका मूलधर्म नष्ट हो गया है, इसलिये वे मोक्ष रूपी फल को नहीं पाते हैं। ॥१०॥