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नष्ट हो गया है उनको मोक्ष प्राप्त नहीं होता है। तथा जिनका चारित्र गुण नष्ट होगया है और सम्यग्दर्शन बना हुआ है, उनको तो चारित्र की प्राप्ति होकर मोक्ष प्राप्त होसकता है, किन्तु जिनका सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है, उनको कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।
गाथा- सम्मत्तरयणभट्टा जाणंता बहुविहाई सत्थाई ।
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥४॥ छाया- सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि ।
आराधनाविरहिता भ्रमन्ति तत्रौव तत्रैव ॥४॥ अर्थ-जिन पुरुषों को सम्यग्दर्शन रूप रत्न प्राप्त नहीं हुआ है, वे अनेक प्रकार के
शास्त्रों को जानते हुए भी चार प्रकार की आराधना को प्राप्त न करने से चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते रहते हैं ॥४॥
गाथा- सम्मत्तविरहिया णं सुठु वि उग्गं तवं चरंता णं ।
ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्स कोडीहिं ॥५॥ छाया- सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्ठ अपि उग्रं तपः चरंतोणं ।
न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभिः ॥५॥ अर्थ-जो पुरुष सम्यक्त्वरहित हैं वे यदि भली प्रकार हजार कोटि वर्ष तक भी
कठिन नपश्चरण करें तो भी उन्हें रत्नत्रय प्राप्त नहीं होता है ॥५॥
गाथा- सम्मत्तणाणदसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे ।
कलि कलुसपावरहिया वरणाणी होति अइरेण ॥६॥ छाया- सम्यक्त्वज्ञानदर्शनबलवीर्यवर्द्धमानाः ये सर्वे ।
कलिकलुषपापरहिताः वरज्ञानिनः भवन्ति अचिरेण ॥६॥ अर्थ-जो मनुष्य सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल, वीर्य आदि गुणों से वृद्धि को प्राप्त
हो रहे हैं और कलियुग के मलिन पाप से रहित हैं, वे सब थोड़े ही समय में उत्कृष्ट ज्ञानी अर्थात् केवल ज्ञानी हो जाते हैं ॥६॥
गाथा- सम्मतसलिलपवहो णिच्च हियए पवहए जस्स।
कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स ॥ ७ ॥