Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 15
________________ [ ११ ] में है। अब यहाँ यह प्रश्न उपस्थित है कि उनका आशय कौन से भद्रबाहु से है, और क्या उल्लिखित शिष्य कुन्दकुंद ही थे। ६२ वीं गाथा श्री भद्रवाहु को श्रुतज्ञानी बतलाती है जिनको प्रो० उपाध्याय तथा कुछ अन्य लेखकों ने श्रुत केवली समान माना है। श्री भद्रबाहु अन्तिम श्रुत केवली थे, इसलिये यह दोनों गाथाएं उन्हीं के सम्बन्ध में मानी गई हैं। अधिकतर लोगों का मत है कि श्री कुंदकुंद ने अपने को श्री भद्रबाहु का शिष्य माना है. किन्तु श्री भद्रबाहु का और श्री कुंदकुंद का ३०० वर्ष का अन्तर था। प्रो० उपाध्याय मानते हैं कि शिष्य शब्द का अर्थ शारीरिक सम्बन्ध नहीं, बल्कि आत्मिक सम्बन्ध मानना चाहिये । यद्यपि गुरू अथवा आचार्य शब्द ऐसे अर्थ में प्रयुक्त होता लेकिन रूढ़ि पर चलने वाले जेन पण्डितों ने उसका अर्थ शिष्य शब्द का शारीरिक सम्बन्ध से माना है। कुछ लोग जो गाथाओं को भद्रबाहु (प्रथम) के सम्बन्ध में समझते हैं उनका मत है कि उल्लिखित शिष्य श्री विशाखाचाय्य हैं, जिनसे शिष्य परम्परा के द्वारा श्री कुन्दकुन्द ने ज्ञान प्राप्त किया। यह गाथाओं का बिजकल बनावटी अर्थ बन जाता है और कोई कारण समझ में नहीं आता कि भगवत् कुन्दकुन्द ने इन्हीं दो नामों का उल्लेख क्यों किया जब कि उनसे पहले धर्म और विद्या में निपुण और भी कई प्राचार्य हो चुके हैं। इस विषय में ५२ वीं गाथा जिसका पहले भी वर्णन आ चुका है। इससे स्पष्ट पता लगता है कि शब्द श्रुतज्ञानी से श्री कुंदकंद का आशय उस व्यक्ति से है जिसने सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया हो, और 'प्रवचन सार' की गाथा ३३-३४ अध्याय १ में श्रुत केवली को विशेष महत्ता देती है, और श्रुतकेवली उसको माना है जिसको श्रुत अथवा सिद्धान्त ग्रन्थों द्वारा आत्मानुभव प्राप्त हुआ हो । श्री अमृत चन्द्र अपनी प्रशस्ति में लिखते हैं कि केवली और श्रुत केवली इसके अतिरिक्त कोई अन्तर नहीं है कि जो अनुभव श्रुत केवली को ग्रंथों द्वारा प्राप्त होता है वह अनुभव केवली को नैसर्गिक रूप से, इसलिए बोधपाहुड की अन्तिम गाथाएं भद्रबाहु द्वितीय से सम्बन्ध रखती हैं । जिनसे पट्टावलियों के अनुसार श्री कुन्दकुन्द ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। किसी न किसी रूप से पूर्ण सिद्धान्त श्री कुदकुन्द और श्री भद्रवाहु के समय तक अक्षुण्ण रहे होंगे। श्री भद्रबाहु उस समय के एक आचार्य थे। उनको यदि सम्पूर्ण नहीं तो विशेष ज्ञान अवश्य था। इससे दोनों गाथाओं का अर्थ ठीक बन जाता है और भगवान महावीर के उत्तराधिकारियों में श्री कुन्दकुन्द का स्थान निश्चित हो जाता है । यद्यपि भगवत् कुन्दकुन्द एक मूल रचयिता थे लेकिन कहीं भी उन्होंने अपने श्रापको नवीन सिद्धान्तों का प्रतिपादक नहीं बतलाया, और न ही अन्य

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