Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

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Page 13
________________ श्री कुन्दकुन्द दक्षिण भारत के एक त्यागी माधु थे, उन्हें दिगम्बर जैनियों में जैन सिद्धान्त पर सब से प्राचीन तथा सब से अधिक विद्वान होने का पद प्राप्त है। दिगम्बर और श्वेताम्बर मतभेद के मुजिब दोनों आम्नाओं के साधुओं की बाह्य क्रिया में कुछ अन्तर है सिद्धान्त में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता । वस्त्र धारण के विषय में जिसमें श्वेताम्बर साधु को वस्त्र धारण करने की आज्ञा है। दिगम्बर को नहीं। इतना मतभेद नहीं है जितना सामान्यतया समझा जाता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय यह स्वीकार करते हैं कि भगवान महावीर ने अपने जीवनकाल में दिगम्बरत्व ग्रहण किया था, और स्वय श्वेताम्बरों ने साधुओं की एक विशेष श्रेणी के नग्नता की व्यवस्था भी की है। इस कारण श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्री कुन्दकुन्द की रचनाओं का विशेष आदर है और जहाँ तक साधारण जीवन का सम्बन्ध है वे श्री उमास्वामी रचितं तत्वार्था धिगमको प्रमाण शास्त्र में उपयोग करते हैं। कारण यह है कि १९ वा अंग जिसमें मूल सिद्धा। उपदिष्ट और विभक्त था और १४ पूर्व लुप्त प्राय हो गए थे। पहले ११ अङ्गों में सिद्धान्त नियमानुसार विभक्त नहीं हैं उनमें कहीं २ थोड़ा २ कथात्मक रूप से दिया गया है । सम्भवत: १२ वें अंग में भी ऐसा ही हो और ग्रंथों में विस्तार से वर्णन हो, जिससे मूल रूप में विषय गूढ होने के कारण उनका अध्ययन कठिन हो गया हो। इस १२ वें अंग का नाम 'दृष्टिवादं' संकेत करता है कि भगवान महावीर के आत्मानुभव पर इसकी नींव रखी गई हो। श्री कुन्दकुन्द से पहले श्री भद्रवाहु प्रथम ने अङ्ग रचना को स्वीकार नहीं किया था, और प्राचीन कथाओं के अनुसार श्री भद्रबाहु प्रथम के समय दोनों सम्प्रदाओं में मतभेद शुरू हो गया था, जिसके मुख्यतया निम्न कारण थे:१ बिहार में घोर अकाल पड़ने पर श्री भद्रवाहु का दक्षिण भारत में जाना तथा उनकी अनुपस्थिति में कुछ मुनियों का दिनचर्या के घोर नियंत्रण को को ढीला करना। २ उनकी अनुपस्थिति में जो श्वेताम्बरों द्वारा अङ्ग रचना की गई थी उसका उनको न मानना। ___ श्री भद्रबाहु के उत्तराधिकारियों में कोई भी ऐसा न था जो सम्पूण श्रुत ज्ञान को समझने का दावा करता हो। अत का ज्ञान प्रतिवर्ष कम होता गया, और सिद्धांतों के सर्वथा लुप्त हो जाने का भय उपस्थित था। ऐसे कठिन समय में भगवत कुन्दकुन्द कार्य क्षेत्र में उत्तीर्ण हुए, उनमें लोगों ने पवित्रता, सत्य, बुद्धि, उत्साह और पौरुष देखा और उस समय के लोगों ने धर्म सिद्धान्तों को विस्मति से बचाने के लिए उनका अभिनन्दन तथा आह्वान किया । इसी कारण भगवत् कुन्दकुन्द का नाम भगवान् महावीर तथा उनके शिष्य श्री गौतम के साथ लिया

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