Book Title: Ashtpahud
Author(s): Parasdas Jain
Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ [१८] द्रव्य के साथ इसका सम्बन्ध होने के कारण होते हैं। यह केवल कर्मों की ग्रंथि है जो इसके पूर्ण प्रकाश (उन्नति) में बाधक होती है । जब आत्मा कर्म रहित हो जाती है तब यह शुद्ध उपयोग, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यमय हो जाती है । यह सिद्ध अथवा केवली की अवस्था होती है । अर्थात मुक्तात्मा जिसे 'शिव', 'ब्रह्म', 'विष्णु' और 'बुद्ध' भी कहते हैं । 1 आत्मानुभव के बिना ज्ञान और तपश्चरण नरक की ओर ले जा सकते हैं (अ० २ गा० १५-१६, अ० ३ गा० १८-१९-३८-४३, अ० ४ गा० १२-१३- ४०, अ० ५ गा० ३१-५१-५८-६२-६४-७७-१५१, अ० ६ गा० ३५-५१-८१-१०४-१०५, अ० ८ गा० ११-२७) । इस पुस्तक में आत्मा का एक गुण अर्थात् उसका सर्व व्यापक होना पूर्ण रूप से नहीं दर्शाया गया है, यद्यपि उसका अनुमान उपरोक्त गाथाओं से हो सकता है और उसका संकेत अ० ५, गा० १५१ में भी है। यह बात श्री कुन्दकुन्द की अन्य कृतियों में स्पष्ट रूप से दर्शाई गई है जैसे प्रवचनसार गाथा २३, २५ तथा पंचास्तिकाय सार गाथा ३१, ३२ । प्रवचनसार में आत्मा को ज्ञानमय दर्शाया गया है और इसलिए ज्ञान द्वारा ज्ञान के समान विस्तृत बताया गया है । यह दृष्टिकोण बाद के, उन जैन विद्वानों द्वारा भी स्वीकृत था जिनके ग्रंथ प्रमाणिक माने गए हैं। उदाहरण के लिये 'परमात्म प्रकाश' की ५०, ५४ वीं गाथा में यह वर्णन है कि आत्मा वास्तव में ज्ञानमय है अतएव सर्वव्यापक है । क्योंकि परमात्मा में इन्द्रिय ज्ञान नहीं है अथवा इसको जड या निर्जीव भी कहते हैं और क्योंकि परमात्मा कर्म रहित होता अतः इसे शून्य भी कहते हैं । जब आत्मा की अपना शरीर छोड़ने से पहले कर्म क्रिया नष्ट हो जाती है उस समय आत्मा का आकार तत्शरीर प्रमाण हो जाता है । यह अन्तिम दृष्टिकोण है जो अ० ५ गा० १४८ में वर्णित है, जिससे संसारिक आत्मा के गुणों का ज्ञान होता है । सम्यक दर्शन की सामान्य व्याख्या पहले की जा चुकी है। प्रथम प्रकरण दर्शन की महत्ता तथा विशेषता का अनेक प्रकार से वर्णन है। क्योंकि निश्चय के दृष्टिकोण से दर्शन का अर्थ आत्मानुभव लगाया गया है. इसलिए सम्यक् ज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान में भेद करने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ी। यह तृतीय प्रकरण में वर्णित है, जिसमें इस बात को स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार दर्शन चारित्र में प्रतिबिम्बित हो जाता है । तृतीय प्रकरण की ७ वीं गाथा सम्यक् दर्शन के ८ अंगों का वर्णन करती है । अथवा (१) निःशंकित - शंका न करना. (२) नि:काँक्षित - विषय जन्य सुख की कांक्षा न करना, (३) निविचिकित्सित - ग्लानि न करना, (४) अमृढ दृष्टि - मिथ्या मार्ग से सहमत न होना, (५) उपगूहन - निंदा को दूर करना, (६) स्थितिकरण - धर्मच्युत प्राणियों को धर्म में स्थिर करना, (७) वात्सल्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178