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क्या कर्म अनासक्त हो सकता है? २३
सूत्र पकड़ लिया-कर्म का शोधन करने के लिए कर्ता-भाव को छोड़ना होगा, सब कुछ ब्रह्म के लिए समर्पित करना होगा। 'मैं करता हूं'-इस अहंकार का परित्याग करना होगा। उससे अकर्ताभाव प्राप्त होगा। यह सुन्दर सूत्र था। पर इसका भी दुरुपयोग हुआ। आज इस सूत्र को आधार मानकर कुछ लोग कहते हैं-हम मिलावट करते हैं, अप्रामाणिकता करते हैं, पर हमारा उसमें कर्त्ताभाव नहीं है। होता है, यह सच है। हम कुछ नहीं है। जो कुछ अर्जन होता है, वह ब्रह्म के लिए है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है।
यह दोनों ओर की विकृति है। प्रारंभ में विकृति और अन्त में भी विकृति। इस विकृत चिंतन से कर्म से अकर्म की ओर जाने की दिशा ही धुंधली हो गयी। उसमें विकार आ गया। अकर्म की बात करते ही अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैं। ये प्रश्न अकारण नहीं हैं। कर्ता अकर्ता कब? योगवशिष्ठ का एक सुन्दर श्लोक है
अकर्तृ कुर्वदप्येतत्, चेतः प्रतनुवासनम्।
दूरंगतमना जन्तुः, कथासंश्रवणे यथा।। __इस श्लोक का आशय यह है कि आदमी कर्म करता हुआ भी अकर्म रह सकता है। वह प्रवृत्तियां करता हुआ भी यह दावा कर सकता है कि मैं कर्ता नहीं हूं। इस अधूरे तथ्य ने एक उलझन पैदा कर दी। क्या प्रत्येक आदमी यह कह सकता है कि वह सब कुछ करते हुए भी कर्ता नहीं है? यदि यह हो तो किसी को श्रेय नहीं दिया जा सकेगा और किस को अश्रेय नहीं दिया जा सकेगा। कोई किसी को चांटा मारकर कह सकता है-यह मैंने नहीं किया, क्योंकि मैं तो कर्त्ता नहीं हूं। चोरी करके भी कह सकता है-मैं कर्त्ता तो हूं नहीं, मुझे क्या पता कि चोरी कैसे हुई? फिर कोई दोष का भागी नहीं होगा। यदि कर्तृत्व का विसर्जन इस भूमिका पर किया जाए तो कुछ भी नहीं होगा। योगवाशिष्ठकार ने इस उलझन का सुन्दर समाधान भी श्लोक में प्रस्तुत कर दिया है। वही आदमी कर्ता होते हुए भी अकर्ता बन सकता है जिसकी वासनाएं क्षीण हो चुकी हैं। जब तक वासना क्षीण नहीं होती, कषाय कम नहीं होते, तब तक आदमी कर्ता बना रहता है, लाख प्रयत्न करने पर अकर्ता नहीं बन सकता। योगवाशिष्ठकार कर्ता अकर्ता कैसे होता है, इसको समझाते हुए कहते हैं-धर्म का उपदेश सुनने वाला व्यक्ति जब धर्म की बात सुनता है तब उसका मन दूसरी बात में चला जाता है, मन भटक जाता है। वह श्रोता अश्रोता बन जाता है। वह सुनता हुआ भी नहीं सुनता। धर्म का श्रवण करते समय नींद भी सताने लग जाती है। सिनेमा में तीन-तीन घंटा बैठे रहने पर भी नींद का आक्रमण नहीं होता और धर्म-प्रवचन में प्रारंभ से ही वह सताने लग जाती है। यह क्यों? इसका एक कवि ने बहुत
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