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भेद-विवक्षा : अभिधेय सूचन
विशिष्ट ज्ञानी, उपदेष्टा, गुरु, उपदेशक आदि की वाणी द्वारा अभिव्यक्ति प्राप्त करते हैं। अतएव उद्देश-उपदेश, समुद्देश-समुपदेश तथा आज्ञा-अनुज्ञा के रूप में निर्देश श्रोता, ग्रहीता, जिज्ञासु या शिष्य में अनुयोग के - उन-उन विषयों के परिज्ञापन के द्वार हैं।
अनुयोग द्वार संज्ञा की प्रासंगिकता का यह तात्त्विक विश्लेषण है।
जइ सुयणाणस्स उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा, अणुओगो य पवत्तइ, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा, अणुओगो य पवत्तइ? किं अंगबाहिरस्स उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा, अणुओगो य पवत्तइ? ... अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो जाव पवत्तइ अणंगपविट्ठस्स * वि उद्देसो जाव पवत्तइ। इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च अणंगपविट्ठस्स * अणुओगो।
शब्दार्थ - जइ - यदि, सुयणाणस्स - श्रुतज्ञान का, पवत्तइ - प्रवृत्त होता है, अंगपविट्ठस्स - अंग प्रविष्ट का, अंगबाहिरस्स - अंग बाह्य का, इमं - यह, पुण - पुनः, पट्ठवणे - प्रस्थापन-प्रारंभ, पडुच्च - प्रतीत्य-प्रतीति कर या अपेक्षित कर। ___ भावार्थ - यदि श्रुतज्ञान में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है तो तद्विषयक प्रवृत्ति अंगप्रविष्ट श्रुत में होती है अथवा अंगबाह्य में होती है? - अंगप्रविष्ट श्रुत तथा अंगबाह्य श्रुत - दोनों में ही उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है। . .. .. अंगप्रविष्ट श्रुत में भी उद्देश यावत् अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तथा अंगबाह्य श्रुत में भी उद्देश यावत् अनुयोग की प्रवृत्ति होती है।
परन्तु यहाँ अंगबाह्य श्रुत का ही उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा एवं अनुयोग प्रस्तुत किया जायेगा।
विवेचन - अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य के रूप में श्रुत के दो भेदों की यहाँ जो चर्चा की गई है, उसका विशेष आशय है। विद्वानों ने तत्त्व के विशद् परिज्ञापन की दृष्टि से आगम पुरुष की परिकल्पना की। जिस प्रकार एक पुरुष की देह में विविध अंग होते हैं, उसी प्रकार आगमों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग को अंगों के रूप में परिनिष्ठित किया गया है। जैन श्रुत के संप्रवाहक,
पाठान्तरं - * अंग बाहिरस्स
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