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राम का का वन गमन : स्वयंभू और तुलसी
इस प्रकार चरिउ और मानम में यह तथ्य समान है स्वीकार करते है कि भरत, जहाँ वर मागने के लिए कि सारा बखेडा उस समय खड़ा हुआ जब बुढापे के कारण कैकेयी को भला-बुरा कहते है, वही कौशल्या के प्रति दारथ ने राम को युवराज बनाने की घोषणा की। चरिउ सद्भाव व्यक्त करते है। तथा राम को वापस लाने के में कैकेयी सीधे दरबार मे जाकर वर मागती है जब कि लिए जाते है । 'चरिउ' मे राम अयोध्या से पैदल जाते है, 'मानस' मे मथरा के उकसाने पर वह ऐमा करती है 'मानम' में रथ मे बैठ कर, बाद में वे उमका परित्याग चरिउ मे राम को युवराज बनाए जाने की घोषणा के करते है। स्वयभू कैकेयी के प्रस्ताव से उत्पन्न विपाद और समय भरत अयोध्या में थे, जबकि 'मानस' के अनुसार आक्रोश की छाया एव सध्या की प्राकृतिक पृष्ठभूमि पर ननिहाल मे। दोनों कवि स्वीकार करते है कि 'प्राकृतिक अकिन करते है । जबकि नुलनी मानवी भावनाओं के उतारसत्य' की रक्षा के लिए, राम ने महर्ष वन जाना स्वीकार चढाव में भरत की आजीवन अनासग वृत्ति, त्याग और किया। प्राकृतिक सत्य से यहाँ अभिप्राय वचन मत्य या उदात्तता को लेकर । दोनो कवि एकमत है, भले ही उसके मर्यादा सत्य से है। "चरिउ' मे दशरथ, राम वन गमन मनोवैज्ञानिक या दार्शनिक कारण अलग-अलग हो । के बाद जैन-दीक्षा ग्रहण करते है जबकि 'मानस' में सुमन
शाति निवाग, ११४ उपानगर, के लौटने के बाद दशरथ की मृत्यु हो जाती है। दोनो कवि
इन्दौर-४५२००६
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(ठ ५ का शेषाश) (1) धर्म पच्चीसी कडी २७
लिपि में ५०० प्रनिया प्रकाशित की गई ओर लागत मूल्य दोहा --भवि-कमल-रवि सिद्ध जिन, धर्म धुरधर धीर । १ रुपये चार आना रखा गया था----ब्रह्म जिनदास का __ नमन सतिंद । जगतमहरण नमो विविध गुम्बीर ॥? जन्म सवत आदि कुछ भी विवरण नहीं मिलता। उनके चोपाई-मिथ्या विषय में रत जीव, तातै जग में भत्र सदीव, बड़े भ्राता और गुरु सकनकीति ने सवत १४८१ मे विविध प्रकार गहै परजाय, श्री जिन धर्मनी नेक सुहाय ।२ मूलाचार प्रदीप की रवना भाई के अनुग्रह से की। केवल दोहा-बुध कुमुद सशि सुखकरण, भव दुख सागर जान । इमी आधार मे डा० रावका ने ब्रह्म जिनदास का जन्म
कहै ब्रह्म जिनदास यह, ग्रन्थ धर्म की खान । सवत १४५० के लगभग का माना है। पर मेरी राय में धाग | तजे वाचं सुन, मन मे कर उछाह, १८९० के करीब होना चाहिये । ब्रह्म जिनदास की दो ही
ते पावे सुख सासते, मनवाछिन फल लाहि । रचनाओं में सवत मिलता है। स. १५०८ और १५२० । छपनितकृत तत्वसार भापा साथेनी प्रत (पक्ष) पक्ति उमे देखते हर राबका ने हरिवश पुराण के रचना के समय ११ न० ३५-३ आत्मानन्द सभा, भावनगर ।
उनकी आयु ७० वर्ष की मानी है, पर मेरी राय मे उस (जैन गुर्जर कवियो भाग ३ के पृष्ठ ४७६) समय ६० वर्ष मे अधिक की आयु नही होनी चाहिये । ब्रह्म जिनदास के २ रास अब से ५३ वर्ष पहले छप रांवका जी ने ब्रह्म जिनदास की प्राकृत सस्कृत रचनाओ भी चुके हैं। पर उनकी जानकारी डा. रावका को नही के केवल नाम ही दे दिये हैं, यह मैं शोध प्रबन्ध की बडी मिली लगती। मूलचन्द किसनदास कापडिया, सूरत ने कमी मानता हूं। उन रचनाओ का विवरण भी देना विगम्बर जैन गुजराती साहित्योद्वारक फण्ड के ग्रन्थ न २-३ चाहिए था तभी कवि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व का लिखा में ब्रह्म जिनदास रचित (१) श्रीपाल महामुनिरास और जाना पूरा माना जायगा। कृतित्व में उनका समावेश (२) कर्म विपाक रास, वीर सवत २४५३ मे गुजराती है ही।
-नाहटों की गवाड़, बीकानेर
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