Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ ८, वर्ष ३५, कि० १ अनेकान्तं पिता ने जो सत्य तुम्हे तीन बार दिया है, वह मैंने राम चलत अति भयउ विषादू । सौ बार दिया-यह कह कर राम ने कल्याणमय राजपट्ट सुनि न जाइ पुर आरत नादु॥ भरत के बाँध दिया । (हालांकि इसके पहले वे अयोध्या में सुभंत्र उन्हे छोडने जाता है, राम का अन्तिम पड़ाव यह कर चुके थे। राम वहाँ से चल देते है, भरत और शृंगवेरपुर में है, वहां उनकी भेंट निषादराज से होती है शत्रुघ्न धवल मुनि के पास जाकर यह प्रतिज्ञा करते है कि जो उनका स्वागत करता है। वह सारे कांड के लिए राम के वनवास से लौटने पर, वे उन्हे राज्य वापस देकर कैकेयी को दोषी मानता है। रात भर राम के गुणों का सन्यास ग्रहण कर लेगे। इसके बाद राम की वन यात्रा गान करते हुए सबेरा हो जाता है। शुरू होती है ! कहत राम गुन भा भिनुमारा । ___ मानस मे दशरथ को बुढापे की अनुभूति, दर्पण में जागे जगमंगल सुखदारा ॥ अयो०६४ कनपटी के ऊपर सफेद बाल दिखने से होती है। उन्हें श्रृंगवेरपुर मे जनता की वापसी के साथ, राम नाव लगता है कि सफेदी के बहाने बुढ़ापा कह रहा है से गगा पार करते है। चित्रकूट मे कोल किरात राम का "नृप अब राज राम कहुं देहू ।। स्वागत करते है। तुलसी के अनुसार राम वनगमन का जीवन जनम लाभ किन लेहू ॥ अयो०/२ वास्तविक प्रारभ चित्रकूट से समझना चाहिए। वसिष्ठ के प्रस्ताव पर पचो की महमति से जब राम कहेउ राम बन गवनु सुहावा । के राज्याभिषेक की घोषणा होती है तो देवताओं मे हडकप सुनहु सुमत्र अवध जिमि आवा ॥२॥ मच जाता है, वे सरस्वती के माध्यम से मथरा की बुद्धि निषादराज जब अपने ठिकाने आता है तो उसे अकेला भ्रष्ट करते है। उत्सव के प्रसग से उसका हृदय जल देख कर सुमत्र पछाड खाकर धरती पर गिर पड़ता है। उठता हैराम तिलक मुन उर भा दाह । अयो०/१२ निषादराज के समझाने पर सुमंत्र जब अयोध्या लौटता है मथरा भरत की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए, तो उसे लगता है कि जैसे मा बाप की हत्या करके आ रहा आखिरकार कैकेयी को वर मागने के लिए राजी कर लेती है। ग्लानि की तीव्रता से उसके मुंह का रग उड चुका है। है। कोपभवन मे पहुच दशरथ जब, कैकेयी से क्रोध का व कारण पूछते है तो वह कहती है सुनाते-सुनाते उसका वचन रुक जाता है१. देहु एक वर भरतहि टीका । अस कहि सचिव, वचन रहि गयऊ। हानि ग्लानि सोच बस भयऊ ॥ अयो० १५३ २. तापस वेषि विसेष उदासी। यह देख कर राजा के प्राण पखेरू उड़ जाते है । चौदह बरस राम वनवासी।। भरत को ननिहाल से बुलाया जाता है। आशकाओं यह सुन कर दशरथ मूछिन है, राजा के रात भर और अपशकुनो के बीच, भरत अयोध्या में प्रवेश करते हैं तडपने की उस पर कोई प्रतिक्रिया नही होती। सुमंत्र वह जो कुछ नुनते है उसकी प्रतिक्रिया है आक्रोश, घृणा किसी तरह रहस्य का पता लगा कर राम को जब वर्ग के आत्मग्लानि और पश्चात्ताप । कौशल्या उन्हें वनगमन की बारे में बताते है तो वे अपने को बड़भागी मानते है कि सारी पृष्ठभूमि बताती है। राजसभा की मत्रणा और पिता की आज्ञा मानने का अवसर मिला । जाने पर परामर्श के बावजूद भरत चित्रकूट जाकर राम से मिलते दशरथ, राम को बार-बार गले लगाते है। सबसे पूछ कर है। चित्रकूट की सभा के विवरण का विश्लेषण स्वतत्र जब राम वन गमन करते है, तो दशरथ और कौशल्या को विषय है। उसका निष्कर्ष यह हैसीता की चिन्ता सबसे अधिक है। कुल मिला कर अयोध्या प्रभु करि कृपा पॉवरी दीन्ही । में प्रतिक्रिया यह है साकत भरत सीस धरि लीन्ही ॥

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