Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३ - चातुरंगीय सूत्र-९६
इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं-मनुष्यत्व, सद्धर्म का श्रवण, श्रद्धा और संयम में
पुरुषार्थ।
सूत्र - ९७
नाना प्रकार के कर्मों को करके नानाविध जातियों में उत्पन्न होकर, पृथक्-पृथक् रूप से प्रत्येक संसारी जीव समस्त विश्व को स्पर्श कर लेते हैं। सूत्र - ९८
अपने कृत कर्मों के अनुसार जीव कभी देवलोक में, कभी नरक में और कभी असुर निकाय में जाता है। सूत्र - ९९
यह जीव कभी क्षत्रिय, कभी चाण्डाल, कभी बुक्कस, कभी कुंथु और कभी चींटी होता है। सूत्र - १००
जिस प्रकार क्षत्रिय लोग चिरकाल तक समग्र ऐश्वर्य एवं सुखसाधनों का उपभोग करने पर भी निर्वेद-को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्मों से मलिन जीव अनादि काल से आवर्तस्वरूप योनिचक्र में भ्रमण करते हुए भी संसार दशा से निर्वेद नहीं पाते हैं। सूत्र-१०१
कर्मों के संग से अति मूढ, दुःखित और अत्यन्त वेदना से युक्त प्राणी मनुष्येतर योनियों में जन्म लेकर पुनः पुनः विनिघात पाते हैं। सूत्र - १०२
कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगति निरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि प्राप्त होती है और उसके फलस्वरूप उन्हें मनुष्यत्व प्राप्त होता है। सूत्र - १०३
मनुष्यशरीर प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे सुनकर जीव तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त करते हैं। सूत्र-१०४
कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाए, फिर भी उस पर श्रद्धा होना परम दुर्लभ है । बहुत से लोग नैयायिक मार्ग को सुनकर भी उससे विचलित हो जाते हैं। सूत्र - १०५
श्रुति और श्रद्धा प्राप्त करके भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है । बहुत से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्तया स्वीकार नहीं कर पाते । सूत्र-१०६
मनुष्यत्व प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर संवृत होता है, कर्म रज को दूर करता है। सूत्र - १०७
सरलता से शुद्धि प्राप्त होती है । शुद्धि में धर्म रहता है । जिसमें धर्म है वह घृत से सिक्त अग्नि की तरह परम निर्वाण को प्राप्त होता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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