Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 53
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक वैसे ही तुम्हारा अन्तर्मन भी प्रसन्न है ? सूत्र-५८० क्षत्रिय मुनि-तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारा गोत्र क्या है ? किस प्रयोजन से तुम महान् मुनि बने हो? किस प्रकार आचार्यों की सेवा करते हो? किस प्रकार विनीत कहलाते हो? सूत्र-५८१ संजय मुनि- 'मेरा नाम संजय है। मेरा गोत्र गौतम है । विद्या और चरण के पारगामी गर्दभालि' मेरे आचार्य हैं।'' सूत्र-५८२-५८३ क्षत्रिय मुनि-हे महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान-इन चार स्थानों के द्वारा कुछ एकान्तवादी तत्त्ववेत्ता असत्य तत्त्व की प्ररूपणा करते हैं । बुद्ध, उपशान्त, विद्या और चरण से संपन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने ऐसा प्रकट किया है। सूत्र - ५८४-५८६ जो मनुष्य पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं । और जो आर्यधर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं ।यह क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का सब कथन मायापूर्वक है, अतः मिथ्या वचन है, निरर्थक है। मैं इन मायापूर्ण वचनों से बचकर रहता हूँ, बचकर चलता हूँ । वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य है। मैं परलोक में रहे हुए अपने को अच्छी तरह से जानता हूँ ।' सूत्र - ५८७-५८८ ___ मैं पहले महाप्राण विमान में वर्ष शतोपम आयुवाला द्युतिमान् देव था । जैसे कि यहाँ सौ वर्ष की आयुपूर्ण मानी जाती है, वैसे ही वहाँ पल्योपम एवं सागरोपम की दिव्य आयु पूर्ण है । ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्य भव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की आयु को भी जानता हूँ ।' सूत्र-५८९ नाना प्रकार की रुचि और छन्दों का तथा सब प्रकार के अनर्थक व्यापारों का संयतात्मा मुनि को सर्वत्र परित्याग करना चाहिए । इस तत्त्वज्ञानरूप विद्या का लक्ष्य कर संयमपथ पर संचरण करे । सूत्र - ५९०-५९१ मैं शुभाशुभसूचक प्रश्नो से और गृहस्थों की मन्त्रणाओं से दूर रहता हूँ | अहो ! मैं दिन-रात धर्माचरण के लिए उद्यत रहता हूँ । यह जानकर तुम भी तप का आचरण करो ।जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे सर्वज्ञ ने प्रकट किया है । अतः वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है। सूत्र - ५९२ धीर पुरुष क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया का त्याग करे । सम्यक् दृष्टि से दृष्टिसंपन्न होकर तुम दुश्चर धर्म का आचरण करो। सूत्र- ५९३-६०२ अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हए थे । नराधिप सागर चक्रवर्ती सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड कर संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। महान् ऋद्धि-संपन्न, यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार की । महान् ऋद्धिसंपन्न, मनुष्येन्द्र सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तप का आचरण किया। महान ऋद्धि-संपन्न और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोडकर अनुत्तर मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 53

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