Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सकते हैं, जैसे औषधि से पराजित व्याधि पुनः शरीर को आक्रान्त नहीं करती है । सूत्र - १२५९
जिस प्रकार बिडालों के निवास स्थान के पास चूहों का रहना प्रशस्त नहीं है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास-स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना भी प्रशस्त नहीं है। सूत्र - १२६०-१२६१
श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, आलाप, इंगित और कटाक्ष को मन में निविष्ट कर देखने का प्रयत्न न करे । जो सदा ब्रह्मचर्य में लीन हैं, उनके लिए स्त्रियों का अवलोकन, उनकी इच्छा, चिन्तन
और वर्णन न करना हितकर है, तथा सम्यक ध्यान साधना के लिए उपयुक्त है। सूत्र - १२६२
यद्यपि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनि को अलंकृत देवियाँ भी विचलित नहीं कर सकती, तथापि एकान्त हित की दृष्टि से मुनि के लिए विविक्तवास ही प्रशस्त है । सूत्र-१२६३
मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में ऐसा कुछ भी दुस्तर नहीं है, जैसे कि अज्ञानियों के मन को हरण करनेवाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं । सूत्र - १२६४
स्त्री-विषयक इन उपर्युक्त संसर्गों का सम्यक् अतिक्रमण करने पर शेष सम्बन्धों का अतिक्रमण वैसे ही सुखोत्तर हो जाता है, जैसे कि महासागर को तैरने के बाद गंगा जैसी नदियों को तैर जाना आसान है। सूत्र - १२६५-१२६६
समस्त लोक के, यहाँ तक कि देवताओं के भी, जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामासक्ति से पैदा होते हैं । वीतराग आत्मा ही उन दुःखों का अन्त कर पाते हैं । जैसे किंपाक फल रस और रूपरंग की दृष्टि से देखने और खाने में मनोरम होते हैं, किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं, काम-गुण भी अन्तिम परिणाम में ऐसे ही होते हैं। सूत्र - १२६७
समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के शब्द-रूपादि मनोज्ञ विषयों में रागभाव न करे और इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे । सूत्र- १२६८-१२६९
चक्षु का ग्रहण रूप है । जो रूप राग का कारण होता है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो रूप द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । इन दोनों में जो सम रहता है, वह वीतराग है । चक्षु रूप का ग्रहण है । रूप चक्षु का ग्राह्य विषय ह । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र - १२७०-१२७१
जो मनोज्ञरूपों में तीव्र रूप से गृद्धि, आसक्ति रखता है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे प्रकाश-लोलुप पतंगा प्रकाश के रूप में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है । जो अमनोज्ञ रूप के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त (दुर्दभ) द्वेष से दुःख को प्राप्त होता है । इसमें रूप का कोई अपराध नहीं है। सूत्र - १२७२
जो सुन्दर रूप में एकान्त आसक्त होता है और अतादृश में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
Page 102