Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूरण-कन्द, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी और हरिद्रा इत्यादि । सूत्र - १५६४-१५६८
सूक्ष्म वनस्पति काय के जीव एक ही प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर वनस्पति काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं । उनकी दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहर्त की जघन्य आयुस्थिति है । उनकी अनन्त काल की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य काय-स्थिति है । वनस्पति के शरीर को न छोड़कर निरन्तर वनस्पति के शरीर मैं ही पैदा होना, कायस्थिति है । वनस्पति के शरीर को छोड़कर पुनः वनस्पति के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर होता है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है। सूत्र-१५६९
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वनस्पतिकाय के हजारों भेद हैं। सूत्र-१५७०
इस प्रकार संक्षेप से तीन प्रकार के स्थावर जीवों का निरूपण किया गया । अब क्रमशः तीन प्रकार के त्रस जीवों का निरूपण करूँगा। सूत्र-१५७१
तेजस्, वायु और उदार त्रस-ये तीन त्रसकाय के भेद हैं, उनके भेदों को मुझसे सुनो। सूत्र - १५७२-१५७४
तेजस् काय जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं । बादर पर्याप्त तेजस् काय जीवों के अनेक प्रकार हैं-अंगार, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि-ज्वाला, उल्का, विद्युत इत्यादि । सूक्ष्म तेजस्काय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूत्र-१५७५-१५७९
सूक्ष्म तेजस्काय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर तेजस्काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इस निरूपण के बाद चार प्रकार से तेजस्काय जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाही की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं । तेजस्काय की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । तेजस्काय की काय-स्थिति उत्कृष्ट असंख्यात काल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है । तेजस् के शरीर को छोड़कर निरन्तर तेजस् के शरीर मैं ही पैदा होना, काय-स्थिति है । तेजस् के शरीर को छोड़कर पुनः तेजस् के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है सूत्र - १५८०
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से तेजस् के हजारों भेद हैं। सूत्र - १५८१-१५८३
वायुकाय जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । पुनः उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं । बादर पर्याप्त वायुकाय जीवों के पाँच भेद हैं-उत्कलिका, मण्डलिका, धनवात, गुंजावात और शुद्धवात । संवर्तकवात आदि और भी अनेक भेद हैं । सूक्ष्म वायुकाय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूत्र-१५८४-१५८८
सूक्ष्म वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से वायुकायिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से आदि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की । उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । वायु के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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