Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नम: पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नम: आगम-४३ उत्तराध्ययन आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद अनुवादक एवं सम्पादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-४३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक आगमसूत्र-४३- "उत्तराध्ययन' मूलसूत्र-४- हिन्दी अनुवाद कहां क्या देखे? विषय पृष्ठ क्रम विषय क्रम पृष्ठ ०१ 020 ०६१ ०६५ ०४ । ०६७ २३ ०७० ००५ १९ । मृगापूत्र २० महानिर्ग्रन्थ ०१३ | २१ । समुद्रपालित ०१५ २२ रथनेमि ०१७ केसीगौतम ०१९ २४ प्रवचनमाता ०२१ | यज्ञीय ०२३ २६ । | सामाचारी ०२५ | २७ खलुंकीय | ०२८ २८ मोक्षमार्गगति ०७५ ०७७ ०८ ०८० विनयश्रुत परिषहविभक्ति चातुरंगिय | असंख्य ०५ अकाममरण क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय ०७ | उरभ्रिय कापिलिय ०९ नमिप्रव्रज्या द्रुमपत्रक बहुश्रुतपूजा हरिकेशी १३ चित्रसंभूति इषुकारीय वह भिक्षु ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान पापश्रमण १८ | संयत ०८३ १० ०८४ ११ । ०८७ १२ ०९५ ३१ ०९८ १४ १०० ०३१ २९ | सम्यक्त्व पराक्रम ०३४ ३० तपमार्गगति ०३८ चरणविधि ०४१ ३२ प्रमादस्थान ०४५, ३३ । | कर्मप्रकृति ०४७ ३४ लेश्याअध्ययन ०५० ३५ । अणगारमार्गगति ०५२ | ३६ जीवाजीवविभक्ति १५ । १०९ १११ १७ । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक ४५ आगम वर्गीकरण क्रम क्रम आगम का नाम आगम का नाम सूत्र ०१ | आचार अंगसूत्र-१ । | सूत्रकृत् अंगसूत्र-२ ०३ | स्थान अंगसूत्र-३ । ०४ | समवाय पयन्नासूत्र-२ पयन्नासूत्र-३ पयन्नासूत्र-४ पयन्नासूत्र-५ पयन्नासूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८ ०५ | भगवती ज्ञाताधर्मकथा २५ । आतुरप्रत्याख्यान २६ महाप्रत्याख्यान २७ भक्तपरिज्ञा २८ | तंदुलवैचारिक २९ । संस्तारक ३०.१ गच्छाचार ३०.२ चन्द्रवेध्यक ३१ |गणिविद्या ३२ देवेन्द्रस्तव ३३ । | वीरस्तव निशीथ उपासकदशा अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५ अंगसूत्र-६ । अंगसूत्र-७ अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९ अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१ उपांगसूत्र-२ उपांगसूत्र-३ ०८ अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरणदशा ११ । विपाकश्रुत | औपपातिक राजप्रश्चिय जीवाजीवाभिगम पयन्नासूत्र-९ ३४ १२ ३५ बृहत्कल्प ३६ व्यवहार उपांगसूत्र-४ ३८ उपागसूत्र-५ उपांगसूत्र-६ पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२ छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२ ३७ दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प ३९ महानिशीथ | आवश्यक ४१.१ ओघनियुक्ति ४१.२ पिंडनियुक्ति ४२ | दशवैकालिक ४० उपांगसूत्र-७ प्रज्ञापना सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति १८ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति निरयावलिका २० | कल्पवतंसिका २१ पुष्पिका पुष्पचूलिका २३ | वृष्णिदशा २४ | चतु:शरण १९ उपांगसूत्र-८ उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ ४३ | उत्तराध्ययन ४४ । नन्दी ४५ । अनुयोगद्वार उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक 02 2 06 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य आगम साहित्य साहित्य नाम बुक्स क्रम साहित्य नाम बुक्स मूल आगम साहित्य:147 आगम अन्य साहित्य: 10 [49] 1-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print -1- साम थानुयोग 06 -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net [45]] -2- आगम संबंधी साहित्य -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] -3- ऋषिभाषित सूत्राणि | आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली 01 -1- सामसूत्रगुती मनुवाह [47] आगम साहित्य- कुल पुस्तक 516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद NetE [47] | -3- Aagamsootra English Trans. | [11] |-4- मागमसूत्र सटी राती अनुवाद | [48]| -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print | [12] अन्य साहित्य:आगम विवेचन साहित्य: 171 1तवाल्यास साहित्य-1- आगमसूत्र सटीक [46] 2 સૂત્રાભ્યાસ સાહિત્ય-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-1/ [51]| 3 વ્યાકરણ સાહિત્ય 05 | -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-2 गोगटीकं पताकार-2 109114 વ્યાખ્યાન સાહિત્ય 04 -4- आगम चूर्णि साहित्य [09] 58लत साहित्य|-5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 व साहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 माराधना साहित्य |-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 परियय साहित्य 04 आगम कोष साहित्य:149 પૂજન સાહિત્ય 02 -1- आगम सद्दकोसो | [04] 10 तीर्थ६२ संक्षिप्त र्शन -2- आगम कहाकोसो [01] 11ही साहित्य 05 -3- आगम-सागर-कोष: [05] 12ीपरत्नसागरना वधुशोधनिबंध 05 -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] આગમ સિવાયનું સાહિત્ય ફૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य:-1- माराम विषयानुभ- (भूत) | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) | 516 -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक), | 2-आगमेतर साहित्य (कुल 085 -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन 601 લિ મુનિ દીપરત્નસાગરનું સાહિત્યા | भुनिटीपरत्नसागरनुं सागम साहित्य पुस्त516] तेनास पाना [98,300] मुनिटीपरत्नसागरनु अन्य साहित्य [हुल पुस्तs 85] तनाहुत पाना [09,270] 3 भुनिटीपरत्नसार संलित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD नाता पाना [27,930] अभा२। प्राशनोला १०१ + विशिष्ट DVDSC पाना 1,35,500 09 04 03 25 85 09 02 04 037 मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक [४३] उत्तराध्ययन मूलसूत्र-४- हिन्दी अनुवाद अध्ययन-१-विनयश्रुत सूत्र-१ जो सांसारिक संयोगो से मुक्त है, अनगार है, भिक्षु है, उसके विनय धर्म का अनुक्रम से निरूपण करूँगा, उसे ध्यानपूर्वक मुझसे सुनो। सूत्र -२ जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, गुरु के सान्निध्य में रहता है, गुरु के इंगित एवं आकार-को जानता है, वह विनीत' है। जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता है, गुरु के सान्निध्य में नहीं रहता है, गुरु के प्रतिकूल आचरण करता है, असंबुद्ध है-वह अविनीत' है । सूत्र-४ जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया घृणा के साथ सभी स्थानों से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल आचरण करने वाला दुःशील वाचाल शिष्य भी सर्वत्र अपमानित करके निकाला जाता है। सूत्र-५ जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा खाता है, उसी प्रकार पशुबुद्धि शिष्य शील छोड़कर दुःशील में रमण करता है। सूत्र-६ अपना हित चाहनेवाला भिक्षु, सड़े कान वाली कुतिया और विष्ठाभोजी सूअर के समान, दुःशील से होनेवाले मनुष्य की हीनस्थिति को समझ कर विनय धर्म में अपने को स्थापित करे। सूत्र-७ इसलिए विनय का आचरण करना जिससे कि शील की प्राप्ति हो । जो बुद्धपुत्र है-वह कहीं से भी निकाला नहीं जाता। सूत्र -८ शिष्य गुरुजनों के निकट सदैव प्रशान्त भाव से रहे, वाचाल न बने । अर्थपूर्ण पदों को सीखे । निरर्थक बातों को छोड़ दे। सूत्र-९ गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर समझदार शिष्य क्रोध न करे, क्षमा की आराधना करे । क्षुद्र व्यक्तियों के सम्पर्क से दूर रहे, उनके साथ हंसी, मज़ाक और अन्य कोई क्रीड़ा भी न करे। सूत्र - १० शिष्य आवेश में आकर कोई चाण्डलिक कर्म न करे, बकवास न करे । अध्ययन काल में अध्ययन करे और उसके बाद एकाकी ध्यान करे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ११ आवेश-वश यदि शिष्य कोई चाण्डालिक व्यवहार कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए । किया हो तो किया' और न किया हो तो नहीं किया' कहे। सूत्र - १२ जैसे कि गलिताश्व को बार-बार चाबुक की जरूरत होती है, वैसे शिष्य गुरु के बार-बार आदेश-वचनों की अपेक्षा न करे । किन्तु जैसे आकीर्ण अश्व चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे योग्य शिष्य गुरु के संकेतमात्र से पापकर्म छोड़ दे । सूत्र-१३ आज्ञा में न रहने वाले, बिना विचारे बोलने वाले दुष्ट शिष्य, मृदु स्वभाव वाले गुरु को भी क्रुद्ध बना देते हैं। और गुरु के मनोनुकूल चलनेवाले एवं पटुता से कार्य करनेवाले शिष्य शीघ्र ही कुपित होनेवाले दुराश्रय गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं। सूत्र - १४ बिना पूछे कुछ भी न बोले, पूछने पर भी असत्य न कहे । यदि कभी क्रोध आ जाए तो उसे निष्फल करेआचार्य की प्रिय और अप्रिय दोनों ही शिक्षाओं को धारण करे । सूत्र - १५ स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना । स्वयं पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है। सूत्र-१६ शिष्य विचार करे- अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा स्वयं पर विजय प्राप्त करूँ | बन्धन और वध के द्वारा दूसरों से मैं दमित किया जाऊं, यह अच्छा नहीं है।' सूत्र - १७ लोगों के समक्ष अथवा अकेले में वाणी से अथवा कर्म से, कभी भी आचार्यों के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए। सूत्र-१८ अर्थात् आचार्यों के बराबर या आगे न बैठे, न पीठ के पीछे ही सटकर बैठे, गुरु के अति निकट जांघ से जांघ सटाकर न बैठे । बिछौने पर बैठे-बैठे ही गुरु के कथित आदेश का स्वीकृतिरूप उत्तर न दे। सूत्र - १९ गुरु के समक्ष पलथी लगाकर न बैठे, दोनों हाथों से शरीर को बांधकर न बैठे तथा पैर फैलाकर भी न बैठे सूत्र- २० गुरु के प्रासाद को चाहने वाला मोक्षार्थी शिष्य, आचार्यों के द्वारा बुलाये जाने पर किसी भी स्थिति में मौन न रहे, किन्तु निरन्तर उनकी सेवा में उपस्थित रहे। सूत्र - २१ गुरु के द्वारा बुलाए जाने पर बुद्धिमान् शिष्य कभी बैठा न रहे, किन्तु आसन छोड़कर उनके आदेश को यत्नपूर्वक स्वीकार करे। सूत्र - २२ आसन अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी भी गुरु से कोई बात न पूछे, किन्तु उनके समीप आकर, उकडू मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक आसन से बैठकर और हाथ जोड़कर पूछे । सूत्र - २३ विनयी शिष्य के द्वारा इस प्रकार विनीत स्वभाव से पूछने पर गुरु सूत्र, अर्थ और तदुभय-दोनों का यथाश्रुत निरूपण करे। सूत्र - २४ भिक्षु असत्य का परिहार करे, निश्चयात्मक भाषा न बोले । भाषा के अन्य परिहास एवं संशय आदि दोषों को भी छोड़े । माया का सदा परित्याग करे । सूत्र - २५ किसी के पूछने पर भी अपने, दूसरों के अथवा दोनों के लिए सावध भाषा न बोले, निरर्थक न बोले, मर्मभेदक वचन न कहे। सूत्र - २६ लहार की शाला, घरों, घरों की बीच की संधियों और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ खडा न रहे, न बात करे। सूत्र- २७, २८ प्रिय अथवा कठोर शब्दों से आचार्य मुझ पर जो अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है' -ऐसा विचार कर प्रयत्नपूर्वक उनका अनुशासन स्वीकार करे। आचार्य का प्रसंगोचित कोमल या कठोर अनुशासन दुष्कृत का निवारक है । उस अनुशासन को बुद्धिमान शिष्य हितकर मानता है । असाधु के लिए वही अनुशासन द्वेष का कारण बनता है। सूत्र - २९ भयमुक्त, मेधावी प्रबुद्ध शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं । किन्तु वही क्षमा एवं चित्तविशुद्धि करनेवाला गुरु का अनुशासन मूरों के लिए द्वेष का निमित्त होता है । सूत्र-३० शिष्य ऐसे आसन पर बैठे, जो गुरु के आसन से नीचा हो, जिस से कोई आवाझ न निकलती हो, स्थिर हो। आसन से बार-बार न उठे। प्रयोजन होने पर भी कम ही उठे, स्थिर एवं शान्त होकर बैठे। सूत्र-३१ भिक्षु समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौटे । असमय में कोई कार्य न करे । समय पर ही सब कार्य करे। सूत्र - ३२ भिक्षा के लिए गया हुआ भिक्षु, खाने के लिए उपविष्ट लोगों की पंक्ति में न खड़ा रहे । मुनि की मर्यादा के अनुरूप एषणा करके गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ आहार स्वीकार करे और शास्त्रोक्त काल में आवश्यकतापूर्तिमात्र परिमित भोजन करे। सूत्र-३३ यदि पहले से ही अन्य भिक्षु गृहस्थ के द्वार पर खड़े हों तो उनसे अतिदूर या अतिसमीप खड़ा न रहे और न देने वाले गृहस्थों की दृष्टि के सामने ही रहे, किन्तु एकान्त में अकेला खड़ा रहे । उपस्थित भिक्षुओं को लांघ कर घर में भोजन लेने को न जाए । सूत्र - ३४ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक संयमी मुनि प्रासुक और परकृत आहार ले, किन्तु बहुत ऊंचे या नीचे स्थान से लाया हुआ तथा अति समीप या अति दूर से दिया जाता हुआ आहार न ले। सूत्र - ३५ संयमी मुनि प्राणी और बीजों से रहित, ऊपर से ढके हुए और दीवार आदि से संवृत्त मकान में अपने सहधर्मी साधुओं के साथ भूमि पर न गिराता हुआ विवेकपूर्वक आहार करे । सूत्र - ३६ आहार करते समय मुनि, भोज्य पदार्थों के सम्बन्ध में-अच्छा किया है, अच्छा पकाया है, अच्छा काटा है, अच्छा हुआ है, अच्छा प्रासुक हो गया है, अथवा घृतादि अच्छा भरा है-अच्छा रस उत्पन्न हो गया है, बहुत ही सुन्दर है-इस प्रकार के सावद्य-वचनों का प्रयोग न करे। सूत्र - ३७ __ मेधावी शिष्य को शिक्षा देते हुए आचार्य वैसे ही प्रसन्न होते हैं, जैसे कि वाहक अच्छे घोड़े को हाँकता हुआ प्रसन्न रहता है । अबोध शिष्य को शिक्षा देते हुए गुरु वैसे ही खिन्न होता है, जैसे कि दुष्ट घोड़े को हांकता हुआ उसका वाहक ! सूत्र - ३८, ३९ गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को पापदृष्टिवाला शिष्य ठोकर और चांटा मारने, गाली देने और प्रहार करने के समान कष्टकारक समझता है। 'गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह आत्मीय समझकर शिक्षा देते हैं -ऐसा सोचकर विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है । परन्तु पापदृष्टिवाला कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास समान समझता है। सूत्र-४० शिष्य न तो आचार्य को कुपित करे और न कठोर अनुशासनादि से स्वयं कुपित हो । आचार्य का उपघात करनेवाला न हो और न गुरु का छिद्रान्वेषी हो। सूत्र - ४१ अपने किसी अभद्र व्यवहार से आचार्य को अप्रसन्न हआ जाने तो विनीत शिष्य प्रीतिवचनों से प्रसन्न करे । हाथ जोड़ कर शान्त करे और कहे कि 'मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा।'' सूत्र - ४२ जो व्यवहार धर्म से अर्जित है, और प्रबुद्ध आचार्यों के द्वारा आचरित है, उस व्यवहार को आचरण में लाने वाला मुनि कभी निन्दित नहीं होता है। सूत्र - ४३ शिष्य आचार्य के मनोगत और वाणीगत भावों को जान कर उन्हें सर्वप्रथम वाणी से ग्रहण करे और फिर कार्य में परिणत करे। सूत्र-४४ विनयी शिष्य गुरु द्वारा प्रेरित न किए जाने पर भी कार्य करने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है । प्रेरणा होने पर तत्काल यथोपदिष्ट कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करता है। सूत्र-४५ विनय के स्वरूप को जानकर जो मेधावी शिष्य विनम्र हो जाता है, उसकी लोक में कीर्ति होती है । प्राणियों के लिए पृथ्वी के आधार समान योग्य शिष्य समय पर धर्माचरण करनेवालों का आधार बनता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-४६ शिक्षण काल से पूर्व ही शिष्य के विनय-भाव से परिचित, संबुद्ध, पूज्य आचार्य उस पर प्रसन्न रहते हैं। प्रसन्न होकर वे उसे अर्थगंभीर विपुल श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं। सूत्र-४७ वह शिष्य पूज्यशास्त्र होता है-उसके सारे संशय मिट जाते हैं । वह गुरु के मन को प्रिय होता है । वह कर्मसम्पदा युक्त होता है । तप समाचारी और समाधि सम्पन्न होता है । पांच महाव्रतों का पालन करके वह महान् तेजस्वी होता है। सूत्र - ४८ वह देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित विनयी शिष्य मल पंक से निर्मित इस देह को त्याग कर शाश्वत सिद्ध होता है अथवा अल्प कर्म वाला महान् ऋद्धिसम्पन्न देव होता है । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२ - परीषहविभक्ति सूत्र - ४९ आयुष्मन् ! भगवान् ने कहा है-श्रमण जीवन में बाईस परीषह होते हैं, जो कश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित हैं, जिन्हें सुनकर, जानकर, परिचित कर, पराजित कर, भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ मुनि, परीषहों से स्पृष्ट-होने पर विचलित नहीं होता । वे बाईस परीषह कौन से हैं ? वे बाईस परीषह इस प्रकार हैं-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, अचेल, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, जल्ल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन परीषह । सूत्र-५० कश्यप-गोत्रीय भगवान् महावीर ने परीषहों के जो भेद बताए हैं, उन्हें मैं तुम्हें कहता हूँ । मुझसे तुम अनुक्रम से सुनो। सूत्र-५१-५२ बहुत भूख लगने पर भी मनोबल से युक्त तपस्वी भिक्षु फल आदि का न स्वयं छेदन करे, न कराए, उन्हें न स्वयं पकाए और न पकवाए। लंबी भूख के कारण काकजंघा के समान शरीर दुर्बल हो जाए, कृश हो जाए, धमनियाँ स्पष्ट नजर आने लगें, तो भी अशन एवं पानरूप आहार की मात्रा को जानने वाला भिक्षु अदीनभाव से विचरण करे। सूत्र -५३-५४ __ असंयम से अरुचि रखनेवाला, लज्जावान् संयमी भिक्षु प्यास से पीड़ित होने पर भी सचित जल का सेवन न करे, किन्तु अचित जल की खोज करे । यातायात से शून्य एकांत निर्जन मार्गों में भी तीव्र प्यास से आतुर-होने पर, मुँह के सूख जाने पर भी मुनि अदीनभाव से प्यास को सहन करे। सूत्र - ५५-५६ विरक्त और अनासक्त होकर विचरण करते हुए मुनि को शीतकाल में शीत का कष्ट होता ही है, फिर भी आत्मजयी जिनशासन को समझकर स्वाध्यायादि के प्राप्त काल का उल्लंघन न करे । शीत लगने पर मुनि ऐसा न सोचे कि मेरे पास शीत-निवारण के योग्य साधन नहीं है। शरीर को ठण्ड से बचाने के लिए छवित्राण-वस्त्र भी नहीं हैं, तो मैं क्यों न अग्नि का सेवन कर लूँ | सूत्र-५७-५८ गरम भूमि, शिला एवं लू आदि के परिताप से, प्यास की दाह से, ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सात के लिए आकुलता न करे । स्नान को इच्छा न करे । जल से शरीर को सिंचित न करे, पंखे आदि से हवा न करे। सूत्र-५९-६० महामुनि डांस तथा मच्छरों का उपद्रव होने पर भी समभाव रखे । जैसे युद्ध के मोर्चे पर हाथी बाणों की परवाह न करता हुआ शत्रुओं का हनन करता है, वैसे मुनि परीषहों की परवाह न करते हुए राग-द्वेष रूपी अन्तरंग शत्रुओं का हनन करे । दंशमशक परीषह का विजेता साधक दंश-मशकों से संत्रस्त न हो, उन्हें हटाए नहीं । उनके प्रति मन में भी द्वेष न लाए । मांस काटने तथा रक्त पीने पर भी उपेक्षा भाव रखे, उनको मारे नहीं। सूत्र-६१-६२ 'वस्त्रों के अति जीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक हो जाऊंगा । अथवा नए वस्त्र मिलने पर मैं फिर सचेलक हो जाऊंगा''-मुनि ऐसा न सोचे । विभिन्न एवं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण मुनि कभी अचेलक होता मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक है, कभी सचेलक । दोनों ही स्थितियाँ संयम धर्म के लिए हितकारी है।'-ऐसा समझकर मुनि खेद न करे । सूत्र- ६३-६४ गांव से गांव विचरण करते हुए अकिंचन अनगार के मन में यदि कभी संयम के प्रति अरति-अरुचि, उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह सहन करे । विषयासक्ति से विरक्त रहनेवाला, आत्मभाव की रक्षा करनेवाला, धर्म में रमण करनेवाला, आरम्भ-प्रवृत्ति से दूर रहनेवाला निरारम्भ मुनि अरति का परित्याग कर उपशान्त भाव से विचरण करे । सूत्र-६५-६६ 'लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे पुरुषों के लिए बंधन है'-ऐसा जो जानता है, उसका श्रामण्य-सुकृत होता है । 'ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियाँ पंक-समान हैं-मेधावी मुनि इस बात को समझकर किसी भी तरह संयमी जीवन का विनिघात न होने दे, किन्तु आत्मस्वरूप की खोज करे । सूत्र - ६७-६८ शुद्ध चर्या से प्रशंसित मुनि एकाकी ही परीषहों को पराजित कर गाँव, नगर, निगम अथवा राजधानी में विचरण करे । भिक्षु गृहस्थादि से असमान होकर विहार करे, परिग्रह संचित न करे, गृहस्थों में निर्लिप्त रहे । सर्वत्र अनिकेत भाव से मुक्त होकर परिभ्रमण करे । सूत्र- ६९-७० श्मशान में, सूने घर में और वृक्ष के मूल में एकाकी मुनि अपचल भाव से बैठे । आसपास के अन्य किसी प्राणी को कष्ट न दे । उक्त स्थानों में बैठे हए यदि उपसर्ग आ जाए तो उसे समभाव से धारण करे । अनिष्ट की शंका से भयभीत होकर वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर न जाए। सूत्र - ७१-७२ ऊंची-नीची शय्या (उपाश्रय) के कारण तपस्वी एवं सक्षम भिक्षु संयम-मर्यादा को भंग न करे, पाप दृष्टिवाला साधु ही हर्ष शोक से अभिभूत होकर मर्यादा तोड़ता है । प्रतिरिक्त एकान्त उपाश्रय पाकर, भले ही वह अच्छा हो या बुरा, उसमें मुनि को समभाव से यह सोच कर रहना चाहिए कि यह एक रात क्या करेगी ? सूत्र-७३-७४ यदि कोई भिक्षु को गाली दे, तो वह उसके प्रति क्रोध न करे । क्रोध करने वाला अज्ञानियों के सदृश होता है । अतः भिक्षु आक्रोश-काल में संज्वलित न हो, दारुण, ग्रामकण्टक की तरह चुभने वाली कठोर भाषा को सुन कर भिक्षु मौन रहे, उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए । सूत्र-७५-७६ मारे-पीटे जाने पर भी भिक्षु क्रोध न करे । दुर्भावना से मन को भी दूषित न करे । तितिक्षा-को साधना का श्रेष्ठ अंग जानकर मुनिधर्म का चिन्तन करे । संयत और दान्त-श्रमण को यदि कोई कहीं मारे-पीटे तो यह चिन्तन करे कि आत्मा का नाश नहीं होता है। सूत्र-७७-७८ वास्तव में अनगार भिक्षु ही यह चर्या सदा से ही दुष्कर रही है कि उसे वस्त्र, पात्र, आहारादि सब कुछ याचना से मिलता है । उसके पास कुछ भी अयाचित नहीं होता है । गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट साधु के लिए गृहस्थ के सामने हाथ फैलाना सरल नहीं है, अतः 'गृहवास ही श्रेष्ठ है'-मुनि ऐसा चिन्तन न करे। सूत्र - ७९-८० गृहस्थों के घरों में भोजन तैयार हो जाने पर आहार की एषणा करे। आहार थोड़ा मिले, या न मिले, पर संयमी मुनि इसके लिए अनुताप न करे । 'आज मुझे कुछ नहीं मिला, संभव है, कल मिल जाय'-जो ऐसा सोचता है, उसे अलाभ कष्ट नहीं देता। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-८१-८२ 'कर्मों के उदय से रोग उत्पन्न होता है'-ऐसा जानकर वेदना से पीड़ित होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित प्रज्ञा को स्थिर बनाए और प्राप्त पीडा को समभाव से सहे । आत्मगवेषक मुनि चिकित्सा पीड़ा को समभाव से सहे । आत्मगवेषक मुनि चिकित्सा का अभिनन्दन न करे, समाधिपूर्वक रहे । यही उसका श्रामण्य है कि वह रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा न करे, न कराए। सूत्र - ८३-८४ अचेलक और रूक्षशरीरी संयत तपस्वी साधु को घास पर सोने से शरीर को कष्ट होता है । गर्मी पड़ने से घास पर सोते समय बहुत वेदना होती है, यह जान करके तृण-स्पर्श से पीड़ित मुनि वस्त्र धारण नहीं करते हैं। सूत्र-८५-८६ ग्रीष्म ऋतु में मैल से, रज से अथवा परिताप से शरीर के लिप्त हो जाने पर मेधावी मुनि साता के लिए विलाप न करे । निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्यधर्म को पाकर शरीर-विनाश के अन्तिम क्षणों तक भी शरीर पर जल्ल-स्वैद-जन्य मैल को रहने दे। सूत्र-८७-८८ राजा आदि द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार एवं निमन्त्रण को जो अन्य भिक्षु स्वीकार करते हैं, मुनि उनकी स्पृहा न करे । अनुत्कर्ष, अल्प इच्छावाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेनेवाला अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्धआसक्त न हो । प्रज्ञावान् दूसरों को सम्मान पाते देख अनुताप न करे । सूत्र-८९-९० निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञानरूप फल देनेवाले अपकर्म किए हैं, जिससे मैं किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर कुछ भी उत्तर देना नहीं जानता हूँ।'' 'अज्ञानरूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म परिपक्व होने पर उदय में आते हैं। इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि अपने को आश्वस्त करे। सूत्र-९१-९२ ''मैं व्यर्थ में ही मैथुनादि सांसारिक सुखों से विरक्त हुआ, इन्द्रिय और मन का संवरण किया । क्योंकि धर्म कल्याण-कारी है या पापकारी है, यह मैं प्रत्यक्ष तो कुछ देख पाता नहीं हूँ-" ऐसा मुनि न सोचे । 'तप और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमाओं का भी पालन कर रहा हूँ, इस प्रकार विशिष्ट साधनापथ पर विहरण करने पर भी मेरा छद्म दूर नहीं हो रहा है-'' ऐसा चिन्तन न करे । सूत्र-९३-९४ "निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, मैं तो धर्म के नाम पर ठगा गया हूँ'-''पूर्व काल में जिन हुए थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे''-ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। सूत्र - ९५ कश्यप-गोत्रीय भगवान महावीर ने इन सभी परीषहों का प्ररूपण किया है। इन्हें जानकर कहीं भी किसी भी परीषह से स्पृष्ट-आक्रान्त होने पर भिक्षु इनसे पराजित न हो । -ऐसा में कहता हूँ। अध्ययन-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३ - चातुरंगीय सूत्र-९६ इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं-मनुष्यत्व, सद्धर्म का श्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ। सूत्र - ९७ नाना प्रकार के कर्मों को करके नानाविध जातियों में उत्पन्न होकर, पृथक्-पृथक् रूप से प्रत्येक संसारी जीव समस्त विश्व को स्पर्श कर लेते हैं। सूत्र - ९८ अपने कृत कर्मों के अनुसार जीव कभी देवलोक में, कभी नरक में और कभी असुर निकाय में जाता है। सूत्र - ९९ यह जीव कभी क्षत्रिय, कभी चाण्डाल, कभी बुक्कस, कभी कुंथु और कभी चींटी होता है। सूत्र - १०० जिस प्रकार क्षत्रिय लोग चिरकाल तक समग्र ऐश्वर्य एवं सुखसाधनों का उपभोग करने पर भी निर्वेद-को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्मों से मलिन जीव अनादि काल से आवर्तस्वरूप योनिचक्र में भ्रमण करते हुए भी संसार दशा से निर्वेद नहीं पाते हैं। सूत्र-१०१ कर्मों के संग से अति मूढ, दुःखित और अत्यन्त वेदना से युक्त प्राणी मनुष्येतर योनियों में जन्म लेकर पुनः पुनः विनिघात पाते हैं। सूत्र - १०२ कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगति निरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि प्राप्त होती है और उसके फलस्वरूप उन्हें मनुष्यत्व प्राप्त होता है। सूत्र - १०३ मनुष्यशरीर प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे सुनकर जीव तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त करते हैं। सूत्र-१०४ कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाए, फिर भी उस पर श्रद्धा होना परम दुर्लभ है । बहुत से लोग नैयायिक मार्ग को सुनकर भी उससे विचलित हो जाते हैं। सूत्र - १०५ श्रुति और श्रद्धा प्राप्त करके भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है । बहुत से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्तया स्वीकार नहीं कर पाते । सूत्र-१०६ मनुष्यत्व प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर संवृत होता है, कर्म रज को दूर करता है। सूत्र - १०७ सरलता से शुद्धि प्राप्त होती है । शुद्धि में धर्म रहता है । जिसमें धर्म है वह घृत से सिक्त अग्नि की तरह परम निर्वाण को प्राप्त होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १०८ ___ कर्मों के हेतुओं को दूर करके और क्षमा से यश-का संयम करके वह साधक पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्ध्व दिशा की ओर जाता है। सूत्र - १०९ अनेक प्रकार के शील का पालन करने से देव होते हैं । उत्तरोत्तर समृद्धि के द्वारा महाशुक्ल की भाँति दीप्तिमान होते हैं। और तब वे 'स्वर्ग से च्यवन नहीं होता है। ऐसा मानने लगते हैं। सूत्र-११० एक प्रकार से दिव्य भोगों के लिए अपने को अर्पित किए हुए वे देव इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं । तथा ऊर्ध्व कल्पों में पूर्व वर्ष शत तक रहते हैं । सूत्र - १११ वहां देवलोक में यथास्थान अपनी काल-मर्यादा तक ठहरकर, आयु क्षय होने पर वे देव वहाँ से लौटते हैं, और मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं । वे वहाँ दशांग से युक्त होते हैं । सूत्र - ११२ क्षेत्रभूमि, वास्तु, स्वर्ण, पशु और दास ये चार काम-स्कन्ध जहां होते हैं, वहाँ वे उत्पन्न होते हैं। सूत्र-११३ वे सन्मित्रों से युक्त, ज्ञातिमान्, उच्च गोत्रवाले, सुन्दर वर्णवाले, नीरोग, महाप्राज्ञ, अभिजात, यशस्वी और बलवान होते हैं। सूत्र - ११४ जीवपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर भी पूर्व काल में विशुद्ध सद्धर्म के आराधक होने के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते हैं। सूत्र-११५ पूर्वोक्त चार अंगो को दुर्लभ जानकर साधक संयम धर्म को स्वीकार करते हैं । अनन्तर तपश्चर्या से समग्र कर्मों को दूर कर शाश्वत सिद्ध होते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-४-असंस्कृत सूत्र - ११६ टूटा जीवन सांधा नहीं जा सकता, अतः प्रमाद मत करो, वृद्धावस्था में कोई शरण नहीं है । यह विचारो कि 'प्रमादी, हिंसक और असंयमी मनुष्य समय पर किसकी शरण लेंगे | सूत्र - ११७ जो मनुष्य अज्ञानता के कारण पाप-प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, वे वासना के जाल में पड़े हुए और वैर से बंधे मरने के बाद नरक में जाते हैं। सूत्र-११८ जैसे संधि-मुख में पकड़ा गया पापकारी चोर अपने कर्म से छेदा जाता है, वैसे ही जीव अपने कृत कर्मों के कारण लोक तथा परलोक में छेदा जाता है। किए हए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। सूत्र-११९ संसारी जीव अपने और अन्य बंधु-बांधवों के लिए साधारण कर्म करता है, किन्तु उस कर्म के फलोदय के समय कोई भी बन्धु बन्धुता नहीं दिखाता है। सूत्र - १२० प्रमत्त मनुष्य इस लोक में और परलोक में धन से त्राण- नहीं पाता है । दीप बुझ गया हो उसको पहले प्रकाश में देखा हुआ मार्ग भी न देखे हुए जैसा हो जाता है, वैसे ही अनन्त मोह के कारण प्रमत्त व्यक्ति मोक्ष-मार्ग को देखता हुआ भी नहीं देखता है । सूत्र - १२१ आशुप्रज्ञावाला ज्ञानी साधक सोए हुए लोगों में भी प्रतिक्षण जागता रहे । प्रमाद में एक क्षण के लिए भी विश्वास न करे । समय भयंकर है, शरीर दुर्बल है। अतः भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमादी होकर विचरण करे। सूत्र - १२२ साधक पग-पग पर दोषों की संभावना को ध्यान में रखता हुआ चले, छोटे दोष को भी पाश समझकर सावधान रहे । नये गणों के लाभ के लिए जीवन सुरक्षित रखे । और जब लाभ न होता दीखे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर को छोड़े। सूत्र - १२३ शिक्षित और वर्म धारी अश्व जैसे युद्ध से पार हो जाता है, वैसे ही स्वच्छंदता निरोधक साधक संसार से पार हो जाता है। पूर्व जीवन में अप्रमत्त होकर विचरण करनेवाला मुनि शीघ्र ही मोक्ष पाता है। सूत्र-१२४ जो पूर्व जीवन में अप्रमत्त नहीं रहता, वह बाद में भी अप्रमत्त नहीं हो पाता है। यह ज्ञानी जनों की धारणा है। 'अभी क्या है, बाद में अन्तिम समय अप्रमत्त हो जाएंगे' यह शाश्वतवादियों की मिथ्या धारणा है। पूर्व जीवन में प्रमत्त रहनेवाला व्यक्ति, आयु के शिथिल होने पर मृत्यु के समय, शरीर छूटने की स्थिति आने पर विषाद पाता है सूत्र - १२५ कोई भी तत्काल विवेक को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः अभी से कामनाओं का परित्याग कर, सन्मार्ग में उपस्थित होकर, समत्व दृष्टि से लोक को अच्छी तरह जानकर आत्मरक्षक महर्षि अप्रमत्त होकर विचरे । सूत्र - १२६ बार-बार रागद्वेष पर विजय पाने को यत्नशील संयम में विचरण करते श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक स्पर्श परेशान करते हैं । किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी द्वेष न करे । सूत्र - १२७ अनुकूल स्पर्श बहुत लुभावने होते हैं । किन्तु साधक तथाप्रकार के विषयों में मन को न लगाए । क्रोध से अपने को बचाए रखे । मान को दूर करे । माया का सेवन न करे । लोभ को त्यागे । सूत्र-१२८ जो व्यक्ति संस्कारहीन, तुच्छ और परप्रवादी हैं, जो राग और द्वेष में फंसे हुए हैं, वासनाओं के दास हैं, वे 'धर्म रहित हैं -ऐसा जानकर साधक उनसे दूर रहे । शरीर-भेद के अन्तिम क्षणों तक सद्गुणों की आराधना करे। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-५-अकाममरणीय सूत्र-१२९-१३० संसार सागर की भाँति है, उसका प्रवाह विशाल है, उसे तैर कर पार पहुँचना अतीव कष्टसाध्य है । फिर भी कुछ लोग पार कर गये हैं । उन्हीं में से एक महाप्राज्ञ (महावीर) ने यह स्पष्ट किया था। मृत्यु के दो भेद हैं-अकाम मरण और सकाम मरण। सूत्र-१३१ बालजीवों के अकाम मरण बार-बार होते हैं । पण्डितों का सकाम मरण उत्कर्ष से एक बार होता है। सूत्र - १३२-१३४ महावीर ने दो स्थानों में से प्रथम स्थान के विषय में कहा है कि काम-भोग में आसक्त बाल जीव-अज्ञानी आत्मा क्रूर कर्म करता है । जो काम-भोगों में आसक्त होता है, वह कूट की ओर जाता है। वह कहता है-''परलोक तो मैंने देखा नहीं है । और यह रति सुख है-'' 'वर्तमान के ये कामभोग-सम्बन्धी सुख तो हस्तगत हैं । भविष्य में मिलने वाले सुख संदिग्ध हैं । कौन जानता है-परलोक है या नहीं-" | सूत्र-१३५-१४० ''मैं तो आम लोगों के साथ रहूँगा । ऐसा मानकर अज्ञानी मनुष्य भ्रष्ट हो जाता है । किन्तु वह कामभोग के अनुराग से कष्ट ही पाता है । फिर वह त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है । प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन ही प्राणीसमूह की हिंसा करता है। जो हिंसक, बाल-अज्ञानी, मृषावादी, मायावी, चुगलखोर तथा शठ होता है वह मद्य एवं मांस सेवन करता हुआ यह मानता है कि यही श्रेय है । वह शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में आसक्त रहता है। वह राग और द्वेष दोनों से वैसे ही कर्म-मल संचय करता है, जैसे कि शिशुनाग अपने मुख और शरीर दोनों से मिट्टी संचय करता है । फिर वह भोगासक्त बालजीव आतंकरोग से आक्रान्त होने पर ग्लान होता है, परिताप करता है, अपने किए हुए कर्मों को याद कर परलोक से भयभीत होता है। वह सोचता है, मैंने उन नारकीय स्थानों के विषय में सुना है, जो शील से रहित क्रूर कर्मवाले अज्ञानी जीवों की गति है, और जहाँ तीव्र वेदना है। सूत्र-१४१-१४३ उन नरकों में औपपातिक स्थिति है । आयुष्य क्षीण होने के पश्चात् अपने कृतकर्मों के अनुसार वहाँ जाता हुआ प्राणी परिताप करता है । जैसे कोई गाड़ीवान् समतल महान् मार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और तब गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। इसी प्रकार जो धर्म का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार करता है, वह मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ बालजीव शोक करता है, जैसे कि धुरी के टूटने पर गाड़ीवान् शोक करता है। सूत्र-१४४-१४५ मृत्यु के समय वह अज्ञानी परलोक के भय से संत्रस्त होता है । एक ही दाव में सब कुछ हार जानेवाले धूर्त की तरह शोक करता हुआ अकाम मरण से मरता है । यह अज्ञानी जीवों के अकाम मरण का प्रतिपादन किया है। अब पण्डितों के सकाम मरण को मुझसे सुनोसूत्र-१४६-१४७ जैसा कि मैंने परम्परा से सुना है कि-संयत और जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं का मरण अतिप्रसन्न और आघातरहित होता है । यह सकाम मरण न सभी भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को । गृहस्थ नाना से सम्पन्न होते हैं, जब कि बहुत से भिक्षु भी विषम-शीलवाले होते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-१४८ __कुछ भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं । किन्तु शुद्धाचारी साधुजन सभी गृहस्थों से संयम में श्रेष्ठ हैं। सूत्र-१४९-१५० दुराचारी साधु को वस्त्र, अजिन, नग्नत्व, जटा, गुदड़ी, शिरोमुंडन आदि बाह्याचार, नरकगति में जाने से नहीं बचा सकते । भिक्षावृत्ति से निर्वाह करनेवाला भी यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त नहीं हो सकता है । भिक्षु हो अथवा गृहस्थ, यदि वह सव्रती है, तो स्वर्ग में जाता है। सूत्र - १५१-१५२ श्रद्धावान् गृहस्थ सामायिक साधना के सभी अंगों का काया से स्पर्श करे, कृष्ण और शुक्ल पक्षों में पौषध व्रत को एक रात्रि के लिए भी न छोड़े । इस प्रकार धर्मशिक्षा से सम्पन्न सुव्रती गृहवास में रहता हुआ भी मानवीय औदारिक शरीर को छोडकर देवलोक में जाता है। सूत्र - १५३ संयमी भिक्षु की दोनों में से एक स्थिति होती है-या तो वह सदा के लिए सब दुःखों से मुक्त होता है अथवा महान् ऋद्धिवाला देव होता है। सूत्र-१५४-१५५ देवताओं के आवास अनुक्रम से ऊर्ध्व, मोहरहित, द्युतिमान् तथा देवों से परिव्याप्त होते हैं । उनमें रहने वाले देव यशस्वी-दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले और अभी-अभी उत्पन्न हुए हों, ऐसी भव्य कांति वाले एवं सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी होते हैं। सूत्र-१५६ भिक्षु हो या गृहस्थ, जो हिंसा आदि से निवृत्त होते हैं, वे संयम और तप का अभ्यास कर उक्त देवलोकों में जाते हैं। सूत्र - १५७ सत्पुरुषों के द्वारा पूजनीय उन संयत और जितेन्द्रिय आत्माओं के उक्त वृत्तान्त को सुनकर शीलवान् बहुश्रुत साधक मृत्यु के समय में भी संत्रस्त नहीं होते हैं। सूत्र-१५८ बालमरण और पंडितमरण की परस्पर तुलना करके मेधावी साधक विशिष्ट सकाम मरण को स्वीकार करे, और मरण काल में दया धर्म एवं क्षमा से पवित्र तथाभूत आत्मा से प्रसन्न रहे। सूत्र-१५९-१६० जब मरण-काल आए, तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या स्वीकार की थी, तदनुसार ही भिक्षु गुरु के समीप पीडाजन्य लोमहर्ष को दूर करे तथा शान्तिभाव से शरीर के भेद की प्रतीक्षा करे।। मृत्यु का समय आने पर मुनि भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन में से किसी एक को स्वीकार कर सकाम मरण से शरीर को छोड़ता है। ऐसा मैं कहता हू अध्ययन-५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-६-क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय सूत्र-१६१-१६२ जितने अविद्यावान् हैं, वे सब दुःख के उत्पादक हैं । वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं । इसलिए पण्डित पुरुष अनेकविध बन्धनों की एवं जातिपथों की समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और विश्व के सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे । सूत्र - १६३-१६४ अपने ही कृत कर्मों से लुप्त मेरी रक्षा करने में माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी तथा औरस पुत्र समर्थ नहीं हैं । सम्यक् द्रष्टा साधक अपनी स्वतंत्र बुद्धि से इस अर्थ की सत्यता को देखे । आसक्ति तथा स्नेह का छेदन करे । किसी के पूर्व परिचय की भी अभिलाषा न करे। सूत्र-१६५ गौ, बैल, घोड़ा, मणि, कुण्डल, पशु, दास और अन्य सहयोगी पुरुष-इन सबका परित्याग करने वाला साधक परलोक में कामरूपी देव होगा। सूत्र-१६६ ___ कर्मों से दुःख पाते हुए प्राणी को स्थावर-जंगम संपत्ति, धन, धान्य और गृहोपकरण भी दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते। सूत्र - १६७ सबको सब तरह से सुख प्रिय है, सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है। यह जानकर भय और वैर से उपरत साधक किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । सूत्र - १६८ अदत्तादान नरक है, यह जानकर बिना दिया हुआ एक तिनका भी मुनि न ले । असंयम के प्रति जुगुप्सा रखनेवाला मुनि अपने पात्र में दिया हुआ ही भोजन करे । सूत्र-१६९ इस संसार में कुछ लोग मानते हैं कि-'पापों का परित्याग किए बिना ही केवल तत्त्वज्ञान को जानने-भर से ही जीव सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । सूत्र- १७० जो बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्तों की स्थापना तो करते हैं, कहते बहुत हैं, किन्तु करते कुछ नहीं हैं, वे ज्ञानवादी केवल वाग् वीर्य से अपने को आश्वस्त करते रहते हैं। सूत्र - १७१ विविध भाषाएँ रक्षा नहीं करती हैं, विद्याओं का अनुशासन भी कहाँ सुरक्षा देता है ? जो इन्हें संरक्षक मानते हैं, वे अपने आपको पण्डित माननेवाले अज्ञानी जीव पाप कर्मों में मग्न हैं, डूबे हुए हैं। सूत्र - १७२ जो मन, वचन और काया से शरीर में, शरीर के वर्ण और रूप में सर्वथा आसक्त हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। सूत्र- १७३ उन्होंने इस अनन्त संसार में लम्बे मार्ग को स्वीकार किया है । इसलिए सब ओर देख-भालकर साधक अप्रमत्त भाव से विचरण करे । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र- १७४ मुक्ति का लक्ष्य रखनेवाला साधक कभी भी बाह्य विषयों की आकांक्षा न करे । पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे । सूत्र- १७५ प्राप्त अवसर का ज्ञाता साधक कर्म के हेतुओं को दूर करके विचरे । गृहस्थ के द्वारा अपने लिए तैयार किया गया आहार और पानी आवश्यकतापूर्तिमात्र ग्रहण कर सेवन करे । सूत्र-१७६ साधु लेशमात्र भी संग्रह न करे, पक्षी की तरह संग्रह से निरपेक्ष रहता हुआ पात्र लेकर भिक्षा के लिए विचरण करे। सूत्र-१७७ एषणा समिति से युक्त लज्जावान् संयमी मुनि गांवों में अनियत विहार करे, अप्रमत्त रहकर गृहस्थों से पिण्डपातभिक्षा की गवेषणा करे । सूत्र - १७८ अनुत्तर ज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के धर्ता, अर्हन्, ज्ञातपुत्र वैशालिक महावीर ने ऐसा कहा है। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-७-उरभ्रीय सूत्र-१७९-१८२ जैसे कोई व्यक्ति संभावित अतिथि के उद्देश्य से मेमने का पोषण करता है। उसे चावल, जौ या हरी घास आदि देता है। और उसका यह पोषण अपने आंगन में ही करता है । इस प्रकार वह मेमना अच्छा खाते-पीते पुष्ट, बलवान, मोटा, बड़े पेटवाला हो जाता है । अब वह तृप्त एवं मांसल देहवाला मेमना बस अतिथि की प्रतीक्षा करता है । जब तक अतिथि नहीं आता है, तब तक वह बेचारा जीता है । मेहमान के आते ही वह सिर काटकर खा लिया जाता है । मेहमान के लिए प्रकल्पित मेमना, जैसे कि मेहमान की प्रतीक्षा करता है, वैसे ही अधर्मिष्ठ अज्ञानी जीव भी यथार्थ में नरक के आयुष्य की प्रतीक्षा करता है। सूत्र- १८३-१८५ हिंसक, अज्ञानी, मिथ्याभाषी, मार्ग लूटनेवाला बटमार, दूसरों को दी हुई वस्तु को बीच में ही हड़प जानेवाला, चोर, मायावी ठग, कुतोहर-विकल्पना में निरन्तर लगा रहने वाला, धूर्त-स्त्री और अन्य विषयों में आसक्त, महाआरम्भ और महा-परिग्रहवाला, सुरा और मांस का उपभोगी बलवान्, दूसरों को सताने वाला-बकरे की तरह कर-कर शब्द करते हुए मांसादि अभक्ष्य खानेवाला, मोटी तोंद और अधिक रक्तवाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है, जैसे कि मेमना मेहमान की प्रतीक्षा करता है। सूत्र - १८६-१८७ आसन, शय्या, वाहन, धन और अन्य कामभोगों को भोगकर, दुःख से एकत्रित किए धन को छोड़कर, कर्मों की बहुत धूल संचित कर-केवल वर्तमान को ही देखने में तत्पर, कर्मों से भारी हुआ जीव मृत्यु के समय वैसे ही शोक करता है, जैसे कि मेहमान के आने पर मेमना करता है। सूत्र - १८८ नाना प्रकार से हिंसा करनेवाले अज्ञानी जीव आयु के क्षीण होने पर जब शरीर छोड़ते हैं तो वे कृत कर्मों से विवश अंधकाराच्छन्न नरक की ओर जाते हैं। सूत्र - १८९-१९१ एक क्षुद्र काकिणी के लिए मूढ मनुष्य हजार गँवा देता है और राजा एक अपथ्य आम्रफल खाकर बदले मे जैसे राज्य को खो देता है। इसी प्रकार देवताओं के कामभोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग नगण्य हैं। मनुष्य की अपेक्षा देवताओं की आयु और कामभोग हजार गुणा अधिक हैं | 'प्रज्ञावान् साधक की देवलोक में अनेक युत वर्ष की स्थिति होती है।' -यह जानकर भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष से भी कम आयुकाल में उन दिव्य सुखों को गँवा रहे हैं। सूत्र - १९२-१९४ तीन वणिक मूल धन लेकर व्यापार को निकले । उनमें से एक अतिरिक्त लाभ प्राप्त करता है। एक सिर्फ मूल ही लेकर लौटता है । और एक मूल भी गँवाकर आता है। यह व्यवहार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना । मनुष्यत्व मूल धन है । देवगति लाभरूप है। मूल के नाश से जीवों को निश्चय ही नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होती है। सूत्र - १९५-१९७ अज्ञानी जीव की दो गति हैं-नरक और तिर्यंच । वहाँ उसे वधमूलक कष्ट प्राप्त होता है । क्योंकि वह लोलुपता और वंचकता के कारण देवत्व और मनुष्यत्व को पहले ही हार चूका होता है । नरक और तिर्यंच-रूप दो दर्गति को प्राप्त अज्ञानी जीव देव और मनुष्य गति को सदा ही हारे हए हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक क्योंकि भविष्य में उन का दीर्घ काल तक वहाँ से निकलना दुर्लभ है । इस प्रकार हारे हुए बालजीवों को देखकर तथा बाल एवं पण्डित की तुलना कर जो मानुषीयोनिमें आते हैं, वे मूलधन के साथ लौटे वणिक् की तरह सूत्र-१९८-२०० ___ जो मनुष्य विविध परिमाणवाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुव्रती हैं, वे मानुषी योनि में उत्पन्न होते हैं । क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं जिनकी शिक्षा विविध परिमाण वाली व्यापक है, जो घर में रहते हुए भी शील से सम्पन्न एवं उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं, वे अदीन पुरुष मूलधनरूप मनुष्यत्व से आगे बढ़कर देवत्व को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार दैन्यरहित पराक्रमी भिक्षु और गृहस्थ को लाभान्वित जानकर कैसे कोई विवेकी पुरुष उक्त लाभ को हारेगा? और हारता हआ कैसे संवेदन नहीं करेगा? सूत्र - २०१-२०५ देवताओं के काम-भोग की तुलना में मनुष्य के काम-भोग वैसे ही क्षुद्र हैं, जैसे समुद्र की तुलना में कुश के अग्रभाग पर टिका हुआ जलबिन्दु । मनुष्यभव की इस अत्यल्प आयु में कामभोग कुशाग्र पर स्थित जलबिन्दु-मात्र हैं, फिर भी अज्ञानी किस हेतु से अपने लाभकारी योग-क्षेमको नहीं समझता? मनुष्य भव में काम भोगों से निवृत्त न होनेवाले को आत्मार्थ विनष्ट हो जाता है । क्योंकि वह सन्मार्ग को बार-बार सुनकर भी उसे छोड़ देता है । मनुष्य भव में काम भोगों से निवृत्त होनेवाले का आत्म-प्रयोजन नष्ट नहीं होता है । वह पूतिदेह-के छोड़ने पर देव होता है-ऐसा मैंने सुना है । देवलोक से आकर वह जीव जहाँ श्रेष्ठ ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण, आयु और सुख होते हैं, उस मनुष्य-कुल में उत्पन्न होता है। सूत्र-२०६ बालजीव की अज्ञानता तो देखो । वह अधर्म को ग्रहण कर एवं धर्म को छोड़कर अधर्मिष्ठ बनता है और नरक में उत्पन्न होता है। सूत्र - २०७ सब धर्मों का अनुवर्तन-करने वाले धीर पुरुष का धैर्य देखो । वह अधर्म को छोड़कर धर्मिष्ठ बनता है और देवों में उत्पन्न होता है। सूत्र-२०८ पण्डित मुनि बालभाव और अबाल भाव की तुलना-करके बाल भाव को छोड़कर अबाल भाव को स्वीकारता है । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन अध्ययन / सूत्रांक अध्ययन-८- कापिलीय सूत्र - २०९ अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में वह कौन सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं ? सूत्र - २१० I पूर्व सम्बन्धों को एक बार छोड़कर फिर किसी पर भी स्नेह न करे । स्नेह करनेवालों के साथ भी स्नेह न करनेवाला भिक्षु सभी प्रकार के दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है । सूत्र - २११-२१४ केवलज्ञान और केवलदर्शन से सम्पन्न तथा मोहमुक्त कपिल मुनिने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा मुक्ति के लिए कहा मुनि कर्मबन्धन के हेतुस्वरूप सभी प्रकार के ग्रन्थ तथा कलह का त्याग करे । काम भोगों के सब प्रकारों दोष देखता हुआ आत्मरक्षक मुनि उनमें लिप्त न हो । आसक्तिजनक आमिषरूप भोगों में निमग्न, हित और निश्रेयस में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञ, मन्द और मूढ जीव कर्मों से वैसे ही बंध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी । काम-भोगों का त्याग दुष्कर है, अधीर पुरुषों के द्वारा कामभोग आसानी से नहीं छोड़े जाते । किन्तु जो सुव्रती साधु हैं, वे दुस्तर कामभोगों को उसी प्रकार तैर जाते हैं, जैसे वणिक समुद्र को । सूत्र - २१५ 'हम श्रमण हैं'-ऐसा कहते हुए भी कुछ पशु की भाँति अज्ञानी जीव प्राणवध को नहीं समझते हैं । वे मन्द और अज्ञानी पापदृष्टियों के कारण नरक में जाते हैं । सूत्र - २१६ जिन्होंने साधु धर्म की प्ररूपणा की है, उन आर्य पुरुषों ने कहा है-"जो प्राणवध का अनुमोदन करता है, वह कभी भी सब दुःखों से मुक्त नहीं होता । सूत्र - २१७ जो जीवों की हिंसा नहीं करता, वह साधक 'समित' कहा जाता है। उसके जीवन में से पाप-कर्म वैसे ही निकल जाता है, जैसे ऊंचे स्थान से जल । सूत्र - २१८ संसार में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन, कायरूप किसी भी प्रकार के दण्ड का प्रयोग न करे। सूत्र - २१९ शुद्ध एषणाओं को जानकर भिक्षु उनमें अपने आप को स्थापित करे भिक्षाजीवी मुनि संयमयात्रा के लिए आहार की एषणा करे, किन्तु रसों में मूर्छित न बने । सूत्र - २२० भिक्षु जीवन-यापन के लिए प्रायः नीरस, शीत, पुराने कुल्माष, सारहीन, रूखा और मंथुबेर आदि का चूर्ण भिक्षा में ग्रहण करता है । सूत्र - २२१ "जो साधु लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें साधु नहीं कहा जाता है" ऐसा आचार्यों ने कहा है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद Page 23 - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - २२२-२२३ जो वर्तमान जीवन को नियंत्रित न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे कामभोग और रसों में आसक्त असुरकाय में उत्पन्न होते हैं । वहाँ से निकलकर भी वे संसार में बहुत काल तक परिभ्रमण करते हैं। बहुत अधिक कर्मों से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधि धर्म की प्राप्ति अतीव दुर्लभ है । सूत्र - २२४-२२५ धन-धान्य आदि से प्रतिपूर्ण यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक को दे दिया जाए, तो भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं होगा । इतनी दुष्पूर है यह लोभाभिभूत आत्मा । जैसे लाभ होता है, वैसे लोभ होता है । लाभ से लोभ बढ़ता जाता है । दो माशा सोने से निष्पन्न होनेवाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओंसे भी पूरा नहीं हो सका। सूत्र- २२६-२२७ जिनके हृदय में कपट है अथवा जो वक्ष में फोड़े के रूप स्तनोंवाली हैं, जो अनेक कामनाओंवाली हैं, जो पुरुष को प्रलोभन मैं फँसाकर उसे दास की भाँति नचाती हैं, ऐसी राक्षसी-स्वरूप साधनाविद्या तक स्त्रियों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। स्त्रियों को त्यागनेवाला अनगार उनमें आसक्त न हो । भिक्षु-धर्म को पेशल जानकर उसमें अपनी आत्मा को स्थापित करे। सूत्र - २२८ विशुद्ध प्रज्ञावाले कपिल मुनिने इस प्रकार धर्म कहा है । जो इसकी सम्यक् आराधना करेंगे, वे संसारसमुद्र को पार करेंगे । उनके द्वारा ही दोनों लोक आराधित होंगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-९-नमिप्रव्रज्या सूत्र-२२९-२३० देवलोक से आकर नमि के जीवने मनुष्य लोक में जन्म लिया । उसका मोह उपशान्त हआ, तो उसे पूर्वजन्म का स्मरण हुआ । स्मरण करके अनुत्तर धर्म में स्वयं संबुद्ध बने । राज्य का भार पुत्र को सौंपकर उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया। सूत्र - २३१ नमिराजा श्रेष्ठ अन्तःपुरमें रह कर, देवलोक के भोगों के समान सुन्दर भोगों को भोगकर एक दिन प्रबुद्ध हुए और उन्होंने भोगों का परित्याग किया। सूत्र - २३२ भगवान् नमि ने पुर और जनपदसहित अपनी राजधानी मिथिला, सेना, अन्तःपुर और समग्र परिजनों को छोड़कर अभिनिष्क्रमण किया और एकान्तवासी बने । सूत्र-२३३ जिस समय राजर्षि नमि अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो रहे थे, उस समय मिथिला में बहत कोलाहल हुआ था। सूत्र - २३४-२३५ उत्तम प्रव्रज्या-स्थान के लिए प्रस्तुत हुए नमि राजर्षि को ब्राह्मण के रूप में आए हुए देवेन्द्रने कहा-'हे राजर्षि ! आज मिथिला नगरी में, प्रासादों में और घरों में कोलाहल पूर्ण दारुण शब्द क्यों सुनाई दे रहे हैं?'' सूत्र-२३६-२३८ देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने देवेन्द्र को कहा-''मिथिला में एक चैत्य वृक्ष था। जो शीतल छायावाला, मनोरम, पत्र-पुष्प एवं फलों से युक्त, बहुतों के लिए सदैव बहुत उपकारक था-प्रचण्ड आंधी से उस मनोरम वृक्ष के गिर जाने पर दुःखित, अशरण और आर्त ये पक्षी क्रन्दन कर रहे हैं।' सूत्र- २३९-२४० राजर्षि के इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''यह अग्नि है, यह वायु है और इनसे यह आपका राजभवन जल रहा है। भगवन् ! आप अपने अन्तःपुर की ओर क्यों नहीं देखते ?'' सूत्र - २४१-२४४ देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जिनके पास अपना जैसा कुछ भी नहीं है, ऐसे हम लोग सुख से रहते हैं, सुख से जीते हैं। मिथिला के जलने में मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है-पुत्र, पत्नी और गृह-व्यापार से मुक्त भिक्षु के लिए न कोई वस्तु प्रिय होती है और न कोई अप्रिय-'सब ओर से मैं अकेला ही हूँ'-इस प्रकार एकान्तद्रष्टा-गृहत्यागी मुनि को सब प्रकार से सुख ही सुख है। सूत्र-२४५-२४६ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-'हे क्षत्रिय ! पहले तुम नगर का परकोटा, गोपुर, अट्टालिकाएँ, दुर्ग की खाई, शतघ्नी-बनाकर फिर जाना, प्रव्रजित होना ।' सूत्र - २४७-२५० इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-'' श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा को मन, वचन, काय की त्रिगुप्ति से सुरक्षित, एवं अजेय मजबूत प्राकार बनाकर मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक पराक्रम को धनुष, ईर्या समिति को उसकी डोर, धृति को उसकी मूठ बनाकर, सत्य से उसे बांधकर-तप के बाणों से युक्त धनुष से कर्म-रूपी कवच को भेदकर अन्तर्युद्ध का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।'' सूत्र-२५१-२५२ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! पहले तुम प्रासाद, वर्धमान गृह, चन्द्रशालाएँ बनाकर फिर जाना ।' सूत्र- २५३-२५४ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो मार्ग में घर बनाता है, वह अपने को संशय में डालता है, अतः जहाँ जाने की इच्छा हो वहीं अपना स्थायी घर बनाना चाहिए।" सूत्र - २५५-२५६ इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! पहले तुम बटमारों, प्राणघातक डाकुओं, गांठ काटनेवालों और चोरों से नगर की रक्षा करके फिर जाना ।' सूत्र-२५७-२५८ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''इस लोक में मनुष्यों द्वारा अनेक बार मिथ्यादण्ड का प्रयोग किया जाता है । अपराध न करनेवाले निर्दोष पकड़े जाते हैं, सही अपराधी छूट जाते हैं।'' सूत्र - २५९-२६० इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! जो राजा अभी तुम्हें नमते नहीं हैं, पहले उन्हें अपने वश में करके फिर जाना ।' सूत्र - २६१-२६४ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो दुर्जय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय ही परम विजय है बाहर के युद्धों से क्या ? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है-पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन-ये ही वास्तव में दुर्जेय हैं । एक अपने आप को जीत लेने पर सभी जीत लिए जाते हैं ।' सूत्र - २६५-२६६ इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! तुम विपुल यज्ञ कराकर, श्रमण और ब्राह्मणों को भोजन कराकर, दान देकर, भोग भोगकर और स्वयं यज्ञ कर के फिर जाना ।" सूत्र - २६७-२६८ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो मनुष्य प्रति मास दस लाख गायों का दान करता है, उसको भी संयम ही श्रेय है । फिर भले ही वह किसी को कुछ भी दान न करे ।' सूत्र- २६९-२७० इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-'' हे मनुजाधिप ! तुम गृहस्थ आश्रम को छोड़कर जो दूसरे संन्यास आश्रम की इच्छा करते हो, यह उचित नहीं है। गृहस्थ आश्रम में ही रहते हुए पौषधव्रत में अनुरत रहो ।' सूत्र - २७१-२७२ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो बाल साधक महीने-महीने के तप करता है और पारणा में कुश के अग्र भाग पर आए उतना ही आहार ग्रहण करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी पा नहीं सकता है।" मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-२७३-२७४ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! तुम चाँदी, सोना, मणि, मोती, कांसे के पात्र, वस्त्र, वाहन और कोश की वृद्धि करके फिर मुनि बनना।' सूत्र - २७५-२७७ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हों, फिर भी लोभी मनुष्य की उनसे कुछ भी तृप्ति नहीं होती। क्योंकि इच्छा आकाश समान अनन्त है ।" "पृथ्वी चावल, जौ, सोना और पशु की इच्छापूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं है- यह जानकर साधक तप का आचरण करे ।' सूत्र - २७८-२७९ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-'' हे पार्थिव ! आश्चर्य है, तुम प्रत्यक्ष में प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त भोगों की इच्छा कर रहे हो । मालूम होता है, तुम व्यर्थ के संकल्पों से ठगे जा रहे हो।' सूत्र-२८०-२८२ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''संसार के काम भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। जो कामभोगों चाहते हैं, किन्तु उनका सेवन नहीं कर पाते , वे भी दुर्गति में जाते है क्रोध से अधोगति में जाना होता है। मान से अधमगति होती है । माया से सुगति में बाधाएँ आती है। लोभ से दोनों तरह का भय होता है।'' सूत्र - २८३-२८८ देवेन्द्र ब्राह्मण का रूप छोड़कर, अपने वास्तविक इन्द्रस्वरूप को प्रकट करके मधुर वाणी से स्तुति करता हुआ नमि राजर्षि को वन्दना करता है-''अहो, आश्चर्य है-तुमने क्रोध को जीता । मान को पराजित किया । माया को निराकृत किया । लोभ को वश में किया। अहो ! उत्तम है तुम्हारी सरलता । उत्तम है तुम्हारी मृदुता । उत्तम है तुम्हारी क्षमा । अहो ! उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता । भगवन् ! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तम होंगे । कर्म-मल से रहित होकर आप लोक में सर्वोत्तम स्थान सिद्धि को प्राप्त करेंगे। टस प्रकार स्तति करते हए इन्द्र ने, उत्तम श्रद्धा से, राजर्षि को प्रदक्षिणा करते हुए, अनेक बार वन्दना की | इसके पश्चात नमि मुनिवर के चक्र और अंकुश के लक्षणों से युक्त चरणों की वन्दना करके ललित एवं चपल कुण्डल और मुकुट को धारण करनेवाला इन्द्र ऊपर आकाशमार्ग से चला गया। सूत्र - २८९ नमिराजर्षिने आत्मभावना से अपने को विनत किया । साक्षात् देवेन्द्र के द्वारा प्रेरित होने पर भी गृह और वैदेही की राज्यलक्ष्मी को त्याग कर श्रामण्यभाव में सुस्थिर रहे । सूत्र-२९० संबुद्ध, पण्डित और विचक्षण पुरुष इसी प्रकार भोगों से निवृत्त होते हैं, जैसे कि नमि राजर्षि । - ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१०- द्रुमपत्रक सूत्र - २९१ गौतम ! जैसे समय बीतने पर वृक्ष का सूखा हुआ सफेद पत्ता गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन है। अतः गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र - २९२ कुश-डाभ के अग्र भाग पर टिके हुए ओस के बिन्दु की तरह मनुष्य का जीवन क्षणिक है ।अत: गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-२९३ अल्पकालीन आयुष्य में, विघ्नों से प्रतिहत जीवन में ही पूर्वसंचित कर्मरज को दूर करना है, गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र - २९४ विश्व के सब प्राणियों को चिरकाल में भी मनुष्य भव की प्राप्ति दुर्लभ है । कर्मों का विपाक तीव्र है। इसलिए गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र - २९५-२९९ पृथ्वीकाय में, अप्काय में, तेजस् काय में, वायुकाय में असंख्यात काल तक रहता है । अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । और वनस्पतिकाय में गया हआ जीव उत्कर्षतः दुःख से समाप्त होने वाले अनन्त काल तक रहता है। अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३००-३०२ द्वीन्द्रिय...त्रीन्द्रिय में...और चतुरिन्द्रिय में गया हआ जीव उत्कर्षतः संख्यात काल तक रहता है । इसलिए गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३०३ पंचेन्द्रिय काय में गया हआ जीव उत्कर्षतः सात आठ भव तक रहता है । इसलिए गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। सूत्र-३०४ देव और नरक योनि में गया हुआ जीव उत्कर्षतः एक-एक भव ग्रहण करता है। अतः गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। सूत्र-३०५ प्रमादबहुल जीव शुभाशुभ कर्मों के कारण संसार में परिभ्रमण करता है । इसलिए गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर। सूत्र - ३०६-३१० दुर्लभ मनुष्य जीवन पाकर भी आर्यत्व पाना दुर्लभ है । मनुष्य होकर भी बहुत से लोग दस्यु और म्लेच्छ होते हैं। आर्यत्व की प्राप्ति होने पर भी अविकल पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति दुर्लभ है । बहुत से जीवों को विकलेन्द्रियत्व भी देखा जाता है। अविकल पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति होने पर भी श्रेष्ठ धर्म का श्रवण पुनः दुर्लभ है । कुतीर्थिकों की उपासना मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 28 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक करनेवाले भी देखे जाते हैं । उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना दुर्लभ है । बहुत से लोग मिथ्यात्व का सेवन करते हैं। धर्मश्रद्धा होने पर भी तदनुरूप आचरण होना दुर्लभ है । बहुत से धर्मश्रद्धालु भी काम भोगों में आसक्त हैं। अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३११-३१६ तुम्हारा शरीर जीर्ण हो रहा है, बाल सफेद हो रहे हैं । श्रवणशक्ति कमजोर हो रही है। शरीर जीर्ण हो रहा है, आँखों की शक्ति क्षीण हो रही है । घ्राण शक्ति हीन हो रही है । रसग्राहक जिह्वा की शक्ति नष्ट हो रही है । स्पर्शशक्ति क्षीण हो रही है । सारी शक्ति ही क्षीण हो रही है। इस स्थिति में गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३१७ वात-विकार आदि से जन्य चितोद्वेग, फोड़ा-फुन्सी, विसूचिका तथा अन्य भी शीघ्र-घाती विविध रोग से शरीर गिर जाता है, विध्वस्त हो जाता है । अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३१८ जैसे शरद-कालीन कुमुद पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू भी अपना सभी प्रकार का स्नेह का त्याग कर, गौतम ! इसमें तू समय मात्र भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३१९ धन और पत्नी का परित्याग कर तू अनगार वृत्ति में दीक्षित हुआ है । अतः एक बार वमन किए गए भोगों को पुनः मत पी, गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३२० मित्र, बान्धव और विपुल धनराशि को छोड़कर पुनः उनकी गवेषणा मत कर । हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। सूत्र-३२१ भविष्य में लोग कहेंगे-'आज जिन नहीं दिख रहे हैं और जो मार्गदर्शक हैं भी, वे एक मत के नहीं है।' किन्तु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। अतः गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३२२ कंटकाकीर्ण पथ छोड़कर तू साफ राज-मार्ग पर आ गया है। अतः दृढ़ श्रद्धा के साथ इस मार्ग पर चल । गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३२३ कमजोर भारवाहक विषम मार्ग पर जाता है, तो पश्चात्ताप करता है, गौतम ! तुम उसकी तरह विषम मार्ग पर मत जाओ। अन्यता बाद में पछताना होगा । गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र-३२४ हे गौतम ! तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तीर के निकट पहुँच कर क्यों खड़ा है ? उसको पार करने में जल्दी कर । गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । सूत्र - ३२५ तू देहमुक्त सिद्धत्व को प्राप्त कराने वाली क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो कर क्षेम, शिव और अनुत्तर सिद्धि लोक को प्राप्त करेगा । अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र- ३२६ बुद्ध-तत्त्वज्ञ और उपशान्त होकर पूर्ण संयत भाव से तू गांव एवं नगर में विचरण कर । शान्ति मार्ग को बढ़ा । गौतम ! इसमें समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । सूत्र- ३२७ अर्थ और पद से सुशोभित एवं सुकथित भगवान की वाणी को सुनकर, राग-द्वेष का छेदन कर गौतम सिद्धि गति को प्राप्त हुए। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-११-बहुश्रुतपूजा सूत्र- ३२८ सांसारिक बन्धनों से रहित अनासक्त गृहत्यागी भिक्षु के आचार का मैं यथाक्रम कथन करूँगा, उसे तुम मुझसे सुनो। सूत्र- ३२९ जो विद्याहीन है, और विद्यावान होकर भी अहंकारी है, अजितेन्द्रिय है, अविनीत है, बार-बार असंबद्ध बोलता है-वह अबहुश्रुत है। सूत्र - ३३० इन पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती है-अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य । सूत्र - ३३१-३३२ जो हँसी-मज़ाक नहीं करता, सदा दान्त रहता है, किसी का मर्म प्रकाशित नहीं करता, अशील न हो, विशील न हो, रसलोलुप न हो, क्रोधी न हो, सत्य में अनुरक्त हो, इन आठ स्थितियों में व्यक्ति शिक्षाशील होता है। सूत्र-३३३-३३६ चौदह प्रकार से व्यवहार करनेवाला संयत-मुनि अविनीत कहलाता है और वह निर्वाण प्राप्त नहीं करता। जो बार बार क्रोध करता है, क्रोध को लम्बे समय तक बनाये रखता है, मित्रता को ठुकराता है, श्रुत प्राप्त कर अहंकार करता है-स्खलना होने पर दूसरों का तिरस्कार करता है, मित्रों पर क्रोध करता है, प्रिय मित्रों की भी एकान्त में बुराई करता है-असंबद्ध प्रलाप करता है, द्रोही है, अभिमानी है, रसलोलुप है, अजितेन्द्रिय है, असंविभागी है और अप्रीतिकर है । वह अविनीत है। सूत्र-३३७-३४० पन्द्रह कारणों से सुविनीत कहलाता है जो नम्र है, अचपल है, दम्भी नहीं है, अकुतूहली है-किसी की निन्दा नहीं करता, जो क्रोध को लम्बे समय तक पकड़ कर नहीं रखता, मित्रों के प्रति कृतज्ञ है, श्रुत को प्राप्त करने पर अहंकार नहीं करता-स्खलना होने पर दूसरों का तिरस्कार नहीं करता । मित्रों पर क्रोध नहीं करता । जो अप्रिय मित्र के लिए भी एकान्त में भलाई की ही बात करता है-वाक्-कलह और मारपीट, नहीं करता, अभिजात है, लज्जाशील है, प्रतिसंलीन वह बुद्धिमान् साधु विनीत होता है। सूत्र - ३४१ जो सदा गुरुकुल में रहता है, योग और उपधान में निरत है, प्रिय करनेवाला और प्रियभाषी है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। सूत्र-३४२ जैसे शंख में रखा हुआ दूध स्वयं अपने और अपने आधार के गुणों के कारण दोनों ओर से सुशोभित रहता है, उसी तरह बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत भी सुशोभित होते हैं। सूत्र - ३४३ जिस प्रकार कम्बोज देश के अश्वो में कन्धक घोड़ा जातिमान और वेग में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत श्रेष्ठ होता है। सूत्र-३४४ जैसे जातिमान् अश्व पर आरूढ दृढ पराक्रमी शूरवीर योद्धा दोनों तरफ होनेवाले नन्दी घोषों से-सुशोभित मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक होता है, वैसे बहुश्रुत भी सुशोभित होता है । सूत्र-३४५ जिस प्रकार हथिनियों से घिरा हुआ साठ वर्ष का बलवान हाथी किसी से पराजित नहीं होता, वैसे बहश्रुत भी किसी से पराजित नहीं होता। सूत्र - ३४६ जैसे तीक्ष्ण सींगोंवाला, बलिष्ठ कंधोंवाला वृषभ-यूथ के अधिपति के रूप में सुशोभित होता है, वैसे ही बहुश्रुत मुनि भी गण के अधिपति के रूप में सुशोभित होता है। सूत्र - ३४७ जैसे तीक्ष्ण दाढ़ोंवाला पूर्ण युवा एवं दुष्पराजेय सिंह पशुओं में श्रेष्ठ होता है, वैसे बहुश्रुत भी अन्य तीर्थकों में श्रेष्ठ होता है। सूत्र-३४८ जैसे शंख, चक्र और गदा को धारण करनेवाला वासुदेव अपराजित बलवाला योद्धा होता है, वैसे बहुश्रुत भी अपराजित बलशाली होता है। सूत्र-३४९ जैसे महान ऋद्धिशाली चातुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का स्वामी होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी चौदह पूर्वो की विद्या का स्वामी होता है। सूत्र- ३५० जैसे सहस्रचक्षु, वज्रपाणि, पुरन्दर शक्र देवों का अधिपति होता है, वैसे बहुश्रुत भी होता है। सूत्र-३५१ जैसे अन्धकार का नाशक उदीयमान सूर्य तेज से जलता हुआ-सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी तेजस्वी होता है। सूत्र-३५२ जैसे नक्षत्रों के परिवार से परिवृत्त, चन्द्रमा पूर्णिमा को परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी ज्ञानादि की कलाओं से परिपूर्ण होता है। सूत्र - ३५३ जिस प्रकार व्यापारी आदि का कोष्ठागार सुरक्षित और अनेक प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी नाना प्रकार के श्रुत से परिपूर्ण होता है। सूत्र-३५४ 'अनादृत' देवका 'सुदर्शन' नामक जम्बू वृक्ष जिस प्रकार सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है। सूत्र-३५५ ___ जिस प्रकार नीलवंत वर्षधर पर्वत से निकली हुई जलप्रवाह से परिपूर्ण, समुद्रगामिनी सीता नदी सब नदियों में श्रेष्ठ हैं, इसी प्रकार बहुश्रुत भी सर्वश्रेष्ठ होता है। सूत्र - ३५६ जैसे कि नाना प्रकार की औषधियों से दीप्त महान् मंदर-मेरु पर्वत सब पर्वतों में श्रेष्ठ हैं, ऐसे ही बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-३५७ जिस प्रकार सदैव अक्षय जल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र नानाविध रत्नों से परिपूर्ण रहता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। सूत्र-३५८ समुद्र के समान गम्भीर, दुरासद, अविचलित, अपराजेय, विपुल श्रुतज्ञान से परिपूर्ण, त्राता-ऐसे बहुश्रुत मुनि कर्मों को क्षय करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं। सूत्र-३५९ मोक्ष की खोज करनेवाला मुनि श्रुत का आश्रय ग्रहण करे, जिससे वह स्वयं को और दूसरों को भी सिद्धि प्राप्त करा सके । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-११ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१२-हरिकेशीय सूत्र - ३६० हरिकेशबल-चाण्डालकुल में उत्पन्न हुए थे, फिर भी ज्ञानादि उत्तम गुणों के धारक और जितेन्द्रिय भिक्षु थे सूत्र-३६१ वे ईर्या, एषणा, भाषा, उच्चार, आदान-निक्षेप इन पाँच समितियों में यत्नशील समाधिस्थ संयमी थे। सूत्र-३६२ मन, वाणी और काय से गुप्त जितेन्द्रिय मुनि, भिक्षा लेने यज्ञमण्डप में गये, जहाँ ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे । सूत्र-३६३ तप से उनका शरीर सुख गया था और उनके उपधि एवं उपकरण भी प्रान्त थे । उक्त स्थिति में मुनि को आते देखकर अनार्य उनका उपहास करने लगे। सूत्र-३६४ जातिमद से प्रतिस्तब्ध-दृप्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी लोगों ने इस प्रकार कहासूत्र-३६५-३६६ बीभत्स रूपवाला, काला, विकराल, बेडोल, मोटी नाकवाला, अल्प एवं मलिन वस्त्रवाला, धूलिधूसरित होने से भूत की तरह दिखाई देनेवाला, गले में संकरदूष्य धारण करनेवाला यह कौन आ रहा है ? __ अरे अदर्शनीय ! तू कौन है ? यहाँ किस आशा से आया है तू ? गंदे और धूलिधूसरित वस्त्र से तू अधनंगा पिशाच की तरह दीख रहा है । जा, भाग यहाँ से, यहाँ क्यों खड़ा है ?'' सूत्र-३६७-३६९ उस समय महामुनि के प्रति अनुकम्पा का भाव रखनेवाले तिन्दुक वृक्षवासी यक्षने अपने शरीर को छुपाकर ऐसे वचन कहे- 'मैं श्रमण हूँ | मैं संयत हूँ । मैं ब्रह्मचारी हूँ | मैं धन, पचन और परिग्रह का त्यागी हूँ। भिक्षा समय दूसरों के लिए निष्पन्न आहार के लिए यहाँ आया हूँ। यहाँ प्रचूर अन्न दिया, खाया और उपभोग में लाया जा रहा है । आपको मालूम होना चाहिए, मैं भिक्षाजीवी हूँ । अतः बचे हुए अन्न में से कुछ इस तपस्वी को भी मिल जाए । सूत्र - ३७० रुद्रदेव-''यह भोजन केवल ब्राह्मणों के लिए तैयार किया गया है । यह एकपक्षीय है, अतः दूसरों के लिए अदेय है । हम तुझे यह यज्ञार्थनिष्पन्न अन्न जल नहीं देंगे । फिर तू यहाँ क्यों खड़ा है ?'' सूत्र - ३७१ यक्ष-"अच्छी फसल की आशा से किसान जैसे ऊंची और नीची भूमि में भी बीज बोते हैं । इस कृषकदृष्टि से ही मुझे दान दो । मैं भी पुण्यक्षेत्र हूँ, अतः मेरी भी आराधना करो।'' सूत्र - ३७२ रुद्रदेव-' 'संसार में ऐसे क्षेत्र हमें मालूम हैं, जहाँ बोये गए बीज पूर्ण रूप से उग आते हैं । जो ब्राह्मण जाति और विद्या से सम्पन्न हैं, वे ही पुण्यक्षेत्र हैं। सूत्र- ३७३-३७४ यक्ष- जिनमें क्रोध, मान, हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह हैं, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विहीन पापक्षेत्र हैं ।" हे ब्राह्मणो ! इस संसार में आप केवल वाणी का भार ही वहन कर रहे हो । वेदों को पढ़कर भी उनके अर्थ नहीं जानते । जो मुनि भिक्षा के लिए समभावपूर्वक ऊंच नीच घरों में जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-३७५ रुद्रदेव-''हमारे सामने अध्यापकों के प्रति प्रतिकूल बोलने वाले निर्ग्रन्थ ! क्या बकवास कर रहा है ? यह अन्न जल भले ही सड़ कर नष्ट हो जाय, पर, हम तुझे नहीं देंगे।'' सूत्र-३७६ यक्ष-मैं समितियों से सुसमाहित हूँ, गुप्तियों से गुप्त हूँ और जितेन्द्रिय हूँ | यह एषणीय आहार यदि नहीं देते हो, तो आज इन यज्ञों का तुम क्या लाभ लोगे ? सूत्र- ३७७-३७९ रुद्रदेव-यहाँ कोई है क्षत्रिय, उपज्योतिष-रसोइये, अध्यापक और छात्र, जो इस निर्ग्रन्थ को डण्डे से, फलक से पीट कर और कण्ठ पकड़ कर निकाल दें। यह सुनकर बहुत से कुमार दौड़ते हुए आए और दण्डों से, बेंतो से, चाबकों से ऋषि को पीटने लगे। राजा कौशलिक की अनिन्द्य सुंदरी कन्या भद्रा ने मुनि को पीटते देखकर क्रुद्ध कुमारों को रोका। सूत्र-३८०-३८२ भद्रा-देवता की बलवती प्रेरणा से राजा ने मुझे इस मुनि को दिया था, किन्तु मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा । मेरा परित्याग करने वाले यह ऋषि नरेन्द्रों और देवेन्द्रों से भी पूजित हैं। ये वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयम और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने स्वयं मेरे पिता राजा कौशलिक के द्वारा मुझे दिये जाने पर भी नहीं चाहा। ये ऋषि महान् यशस्वी, महानुभाग, घोरवती, घोर पराक्रमी हैं । ये अवहेलना के योग्य नहीं हैं । अतः अवहेलना मत करो । ऐसा न हो कि, अपने तेज से कहीं यह तुम सबको भस्म कर दें।' सूत्र - ३८३ उस के इन सुभाषित वचनों को सुनकर ऋषि की सेवा के लिए यक्ष कुमारों को रोकने लगे। सूत्र - ३८४-३८७ आकाश में स्थित भयंकर रूप वाले असुरभावापन्न क्रुद्ध यक्ष उनको प्रताड़ित करने लगे । कुमारों को क्षतविक्षत और खून की उल्टी करते देखकर भद्रा ने पुनः कहा जो भिक्षु का अपमान करते हैं, वे नखों से पर्वत खोदते हैं, दातों से लोहा चबाते हैं और पैरों से अग्नि को कुचलते हैं ।महर्षि आशीविष, घोर तपस्वी, घोर व्रती, घोर पराक्रमी हैं। जो लोग भिक्षाकाल में मुनि को व्यथित करते हैं, वे पतंगो की भाँति अग्नि में गिरते हैं । यदि तुम अपना जीवन और धन चाहते हो, तो सब मिलकर, नतमस्तक होकर, इनकी शरण लो। यह ऋषि कुपित होने पर समूचे विश्व को भी भस्म कर सकता है। सूत्र-३८८ मुनि को प्रताड़ित करनेवाले छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गये थे । भुजाएँ फैल गई थीं । निश्चेष्ट हो गये थे । आँखें खुली ही रह गई थीं । मुँह से रुधिर निकलने लगा था । मुँह उपर को हो गये थे । जीभे और आँखें बाहर निकल आयीं थीं। सूत्र - ३८९-३९० इस प्रकार छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देखकर वह उदास और भयभीत ब्राह्मण अपनी पत्नी को साथ लेकर मुनि को प्रसन्न करने लगा भन्ते ! हमने तथा मूढ़ अज्ञानी बालकों ने आपकी जो अवहेलना की है, आप उन्हें क्षमा करें। ऋषिजन महान् प्रसन्नचित्त होते हैं, अतः वे किसी पर क्रोध नहीं करते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-३९१ मुनि-''मेरे मन में न कोई द्वेष पहले था, न अब है, और न आगे होगा । यक्ष सेवा करते हैं, उन्होंने ही कुमारों को प्रताड़ित किया है।' सूत्र - ३९२-३९४ रुद्रदेव-धर्म और अर्थ को यथार्थ रूप से जाननेवाले भूतिप्रज्ञ आप क्रोध न करे । हम सब मिलकर आपके चरणों में आए हैं, शरण ले रहे हैं । महाभाग ! हम आपकी अर्चना करते हैं । अब आप दधि आदि नाना व्यंजनों से मिश्रित शालिचावलों से निष्पन्न भोजन खाइए ।यह हमारा प्रचुर अन्न है। हमारे अनुग्रहार्थ इसे स्वीकार करें। पुरोहित के इस आग्रह पर महान् आत्मा मुनि ने स्वीकृति दी और एक मास की तपश्चर्या के पारणे के लिए आहार-पानी ग्रहण किया। सूत्र-३९५-३९६ देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प एवं दिव्य धन की वर्षा को और दुन्दुभियाँ बजाईं, आकाश में अहो दानम् ' का घोष किया । प्रत्यक्ष में तप की ही विशेषता-महिमा देखी जा रही है, जाति की नहीं । जिसकी ऐसी महान् चमत्कारी ऋद्धि है, वह हरिकेश मुनि-चाण्डाल पुत्र है। सूत्र - ३९७-३९८ मुनि-ब्राह्मणो ! अग्नि का समारम्भ करते हुए क्या तुम बाहर से-जल से शुद्धि करना चाहते हो ? जो बाहर से शुद्धि को खोजते हैं उन्हें कुशल पुरुष सुदृष्ट-नहीं कहते । कुश, यूप, तृण, काष्ठ और अग्नि का प्रयोग तथा प्रातः और संध्या में जल का स्पर्श-इस प्रकार तुम मन्दबुद्धि लोग, प्राणियों और भूत जीवों का विनाश करते हुए पापकर्म कर रहे हो ।' सूत्र-३९९ 'हे भिक्षु ! हम कैसे प्रवृत्ति करें ? कैसे यज्ञ करें ? कैसे पाप कर्मों को दूर करें ? हे यक्षपूजित संयत ! हमें बताएँ कि तत्त्वज्ञ पुरुष श्रेष्ठ यज्ञ कौन-सा बताते हैं ?'' सूत्र - ४००-४०१ मुनि-मन और इन्द्रियों को संयमित रखने वाले मुनि पृथ्वी आदि छह जीवनिकाय की हिंसा नहीं करते हैं, असत्य नहीं बोलते हैं, चोरी नहीं करते हैं; परिग्रह, स्त्री, मान और माया को स्वरूपतः जानकर एवं छोड़कर विचरण करते हैं। जो पाँच संवरों से पूर्णतया संवृत होते हैं, जीवन की आकांक्षा नहीं करते, शरीर का परित्याग करते हैं, पवित्र हैं, विदेह हैं, वे वासनाओं पर विजय पाने वाला महाजयी श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं।' सूत्र - ४०२ हे भिक्षु ! तुम्हारी ज्योति कौन सी है ? ज्योति स्थान कौन सा है ? घृतादिप्रक्षेपक कड़छी क्या है ? अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले कण्डे कौन से हैं ? तुम्हारा ईंधन और शांतिपाठ कौन सा है ? किस होम से आप ज्योति को प्रज्वलित करते हैं ? सूत्र - ४०३ मुनि-तप ज्योति है । जीव-आत्मा ज्योति का स्थान है । मन, वचन और काया का योग कड़छी है । शरीर कण्डे हैं। कर्म ईंधन है । संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है । ऐसा मैं प्रशस्त यज्ञ करता हूँ ।'' सूत्र-४०४ है यक्षपूजित संयत ! हमें बताइए कि तुम्हारा द्रह कौन सा है? शांति-तीर्थ कौन से हैं? कहाँ स्नान कर रज दूर करते हो? हम आपसे जानना चाहते हैं।' मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र -४०५-४०६ मुनि-''आत्मभाव की प्रसन्नतारूप अकलुष लेश्यावाला धर्म मेरा ह्रद है, जहाँ स्नान कर मैं विमल, विशुद्ध एवं शान्त होकर कर्मरज को दूर करता हूँ। कुशल पुरुषों ने इसे ही स्नान कहा है । ऋषियों के लिए यह महान् स्नान ही प्रशस्त है । इस धर्मह्रद में स्नान करके महर्षि विमल और विशुद्ध होकर उत्तम स्थान को प्राप्त हुए हैं ।'' - ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१३-चित्रसम्भूतीय सूत्र-४०७ जाति से पराजित संभूत मुनि ने हस्तिनापुर में चक्रवर्ती होने का निदान किया था । वहाँ से मरकर वह पद्मगुल्म विमान में देव बना । फिर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में चुलनी की कुक्षि से जन्म लिया। सूत्र-४०८ सम्भूत काम्पिल्य नगर में और चित्र पुरिमताल नगर में, विशाल श्रेष्ठिकुल में, उत्पन्न हुआ । और वह धर्म सुनकर प्रव्रजित हो गया। सूत्र-४०९ काम्पिल्य नगर में चित्र और सम्भूत दोनों मिले । उन्होंने परस्पर सुख और दुःख रूप कर्मफल के विपाक के सम्बन्ध में बातचीत की। सूत्र - ४१० ___ महान् ऋद्धिसंपन्न एवं महान् यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने अतीव आदर के साथ अपने भाई को इस प्रकार कहासूत्र-४११-४१३ ''इसके पूर्व हम दोनों परस्पर वशवर्ती, अनुरक्त और हितैषी भाई-भाई थे ।- ''हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत-गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चाण्डाल थे । देवलोक में महान् ऋद्धि से सम्पन्न देव थे । यह हमारा छठवां भव है, जिसमें हम एक-दूसरे को छोड़कर पृथक्-पृथक् पैदा हुए हैं।'' सूत्र-४१४ "राजन् ! तूने निदानकृत कर्मों का विशेष रूप से चिन्तन किया । उसी कर्मफल के विपाक से हम अलगअलग पैदा हुए हैं।'' सूत्र-४१५ चित्र ! पूर्व जन्म में मेरे द्वारा किए गए सत्य और शुद्ध कर्मों के फल को आज मैं भोग रहा हूँ, क्या तुम भी वैसे ही भोग रहे हो?" सूत्र-४१६-४१८ मुनि-मनुष्यों के द्वारा समाचरित सब सत्कर्म सफल होते हैं । किए हए कर्मों के फल को भोगे बिना मुक्ति नहीं है। मेरी आत्मा भी उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्यफल से युक्त रही है। सम्भूत ! जैसे तुम अपने आपको भाग्यवान्, महान् ऋद्धि से संपन्न और पुण्यफल से युक्त समझते हो, वैसे चित्र को भी समझो । राजन् ! उसके पास भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति रही है।' स्थविरों ने जनसमुदाय में अल्पाक्षर, किन्तु महार्थ-गाथा कही थी, जिसे शील और गुणों से युक्त भिक्षु यत्न से अर्जित करते हैं । उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया ।'' सूत्र - ४१९-४२० चक्रवर्ती-उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्मा-ये मुख्य प्रासाद तथा और भी अनेक रमणीय प्रासाद हैं। पांचाल देश के अनेक विशिष्ट पदार्थों से युक्त तथा प्रचुर एवं विविध धन से परिपूर्ण इन ग्रहों को स्वीकार करो। तुम नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ स्त्रियों से घिरे हुए इन भोगों को भोगो । मुझे यही प्रिय है । प्रव्रज्या निश्चय से दुःखप्रद है।' मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 38 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-४२१ उस राजा के हितैषी धर्म में स्थित चित्र मुनि ने पूर्व भव के स्नेह से अनुरक्त एवं कामभोगों में आसक्त राजा को इस प्रकार कहासूत्र-४२२-४२३ सब गीत-गान विलाप हैं । समस्त नाट्य विडम्बना हैं । सब आभरण भार हैं । और समग्र काम-भोग दुःखप्रद हैं ।" - "अज्ञानियों को सुन्दर दिखनेवाले, किन्तु वस्तुतः दुःखकर कामभोगों में वह सुख नहीं है, जो सुख शीलगुणों में रत, कामनाओं से निवृत्त तपोधन भिक्षुओं को है।'' सूत्र - ४२४-४२६ 'हे नरेन्द्र ! मनुष्यों में जो चाण्डाल जाति अधम जाती मानी जाती है, उसमें हम दोनों उत्पन्न हो चुके हैं, चाण्डालों की बस्ती में हम दोनों रहते थे, जहाँ सभी लोग हमसे द्वेष करते थे। उस जाति में हमने जन्म लिया था और वहीं हम दोनों रहे थे । तब सभी हमसे धृणा करते थे। अतः यहाँ जो श्रेष्ठता प्राप्त है, वह पूर्व जन्म के शुभ कर्मों का फल है । पूर्व शुभ कर्मों के फलस्वरूप इस समय वह तू अब महानुभाग, महान् ऋद्धिवाला राजा बना है । अतः तू क्षणिक भोगों को छोड़कर चारित्र धर्म की आराधना के हेतु अभिनिष्क्रमण कर ।' सूत्र-४२७-४३१ ''राजन् ! इस अशाश्वत मानवजीवन में जो विपुल पुण्यकर्म नहीं करता है, वह मृत्यु के आने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म न करने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। __जैसे कि यहाँ सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाता है । मृत्यु के समय में उसके मात-पिता और भाई कोई भी मृत्युदुःख में हिस्सेदार नहीं होते हैं। उसके दुःख को न जाति के लोग बँटा सकते हैं और न मित्र, पुत्र तथा बन्धु ही । वह स्वयं अकेला ही प्राप्त दुःखों को भोगता है, क्योंकि कर्म कर्ता के ही पीछे चलता है। सेवक, पशु, खेत, घर, धन-धान्य आदि सब कुछ छोड़कर यह पराधीन जीव अपने कृत कर्मों को साथ लिए सुन्दर अथवा असुन्दर परभव को जाता है। जीवरहित उस एकाकी तुच्छ शरीर को चिता में अग्नि से जलाकर स्त्री, पुत्र और जाति-जन किसी अन्य आश्रयदाता का अनुसरण करते हैं।' सूत्र-४३२ 'राजन् ! कर्म किसी प्रकार का प्रमाद किए बिना जीवन को हर क्षण मृत्यु के समीप ले जा रहा है, और यह जरा मनुष्य की कान्ति का हरण कर रही है । पांचालराज ! मेरी बात सुनो । प्रचुर अपकर्म मत करो।' सूत्र - ४३३ हे साधो ! जैसे कि तुम मुझे बता रहे हो, मैं भी जानता हूँ कि ये कामभोग बन्धनरूप हैं, किन्तु आर्य ! हमारे जैसे लोगों के लिए तो ये बहुत दुर्जय हैं ।'' सूत्र-४३४-४३६ चित्र ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि वाले चक्रवर्ती राजा को देखकर भोगों में आसक्त होकर मैंने अशुभ निदान किया था।'' - "उस का प्रतिक्रमण नहीं किया । उसी कर्म का यह फल है कि धर्म को जानता हआ भी मैं कामभोगों में आसक्त हूँ, जैसे दलदल में धंसा हाथी स्थल को देखकर भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता है, वैसे ही हम कामभोगों में आसक्त जन जानते हुए भी भिक्षुमार्ग का अनुसरण नहीं कर पाते हैं।'' मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ४३७-४३९ _ ''राजन् ! समय व्यतीत हो रहा है, रातें दौड़ती जा रही हैं । मनुष्य के भोग नित्य नहीं हैं । काम-भोग क्षीण पुण्यवाले व्यक्ति को वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे कि क्षीण फलवाले वृक्ष को पक्षी। यदि तू काम-भोगों को छोड़ने में असमर्थ है, तो आर्य कर्म ही कर । धर्म में स्थित होकर सब जीवों के प्रति दया करनेवाला बन, जिससे कि तू भविष्य में वैक्रियशरीरधारी देव हो सके। भोगों को छोड़ने की तेरी बुद्धि नहीं है । तू आरम्भ और परिग्रह में आसक्त है । मैंने व्यर्थ ही तुझ से इतनी बातें की, तुझे सम्बोधित किया । राजन्, मैं जा रहा हूँ।'' सूत्र -४४० पांचाल देश का राजा ब्रह्मदत्त मुनि के वचनों का पालन न कर सका, अतः अनुत्तर भोगों को भोगकर अनुत्तर नरक में गया। सूत्र-४४१ कामभोगों से निवृत्त, उग्र चारित्री एवं तपस्वी महर्षि चित्र अनुत्तर संयम का पालन करके अनुत्तर सिद्धिगति को प्राप्त हुए।-ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१४-इषुकारीय सूत्र-४४२ देवलोक के समान सुरम्य, प्राचीन, प्रसिद्ध और समृद्धिशाली इषुकार नगर था । उसमें पूर्वजन्म में एक ही विमान के वासी कुछ जीव देवताका आयुष्य पूर्ण कर अवतरित हुए। सूत्र -४४३ पूर्वभव में कृत अपने अवशिष्ट कर्मों के कारण वे जीव उच्चकुलों में उत्पन्न हुए और संसारभय से उद्विग्न होकर कामभोगों का परित्याग कर जिनेन्द्रमार्ग की शरण ली। सूत्र -४४४ पुरुषत्व को प्राप्त दोनों पुरोहितकुमार, पुरोहित, उसकी पत्नी यशा, विशालकीर्ति वाला इषुकार राजा और उसकी रानी कमलावती-ये छह व्यक्ति थे। सूत्र-४४५ जन्म, जरा और मरण के भय से अभिभूत कुमारों का चित्त मुनिदर्शन से मोक्ष की ओर आकृष्ट हुआ, फलतः संसारचक्र से मुक्ति पाने के लिए वे कामगुणों से विरक्त हए । सूत्र-४४६ यज्ञ-यागादि कर्म में संलग्न ब्राह्मण के ये दोनों प्रिय पुत्र अपने पूर्वजन्म तथा तत्कालीन सुचीर्ण तप-संयम को स्मरण कर विरक्त हुए। सूत्र - ४४७-४४८ मनुष्य तथा देवता-सम्बन्धी काम भोगों में अनासक्त मोक्षाभिलाषी, श्रद्धासंपन्न उन दोनों पुत्रों ने पिता के समीप आकर कहा-''जीवन की क्षणिकता को हमने जाना है, वह विघ्न बाधाओं से पूर्ण है, अल्पायु हैं । इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं मिल रहा है। अतः आपकी अनुमति चाहते हैं कि हम मुनिधर्म का आचरण करें।' सूत्र-४४९-४५० यह सुनकर पिता ने कुमार-मुनियों की तपस्या में बाधा उत्पन्न करनेवाली यह बात कही की-पुत्रो ! वेदों के ज्ञाता कहते हैं जिनको पुत्र नहीं होता है, उनकी गति नहीं होती है। हे पुत्रो, पहले वेदों का अध्ययन करो, ब्राह्मणों को भोजन दो और विवाह कर स्त्रियों के साथ भोग भोगो। अनन्तर पत्रों को घर का भार सौंप कर अरण्यवासी प्रशस्त-श्रेष्ठ मनि बनना।" सूत्र-४५१-४५२ अपने रागादि-गुणरूप इन्धन से प्रदीप्त एवं मोहरूप पवन से प्रज्वलित शोकाग्नि के कारण जिसका अन्तःकरण संतप्त तथा परितप्त है, जो मोहग्रस्त होकर अनेक प्रकार के बहुत अधिक दीनहीन वचन बोल रहा है जो बार-बार अनुनय कर रहा है, धन का और क्रमप्राप्त कामभोगों का निमन्त्रण दे रहा है, उस अपने पिता पुरोहित को कुमारों ने अच्छी तरह विचार कर कहासूत्र-४५३-४५६ 'पढ़े हुए वेद भी त्राण नहीं होते हैं । यज्ञ-यागादि के रूप में पशुहिंसा के उपदेशक ब्राह्मण भी भोजन कराने पर तमस्तम स्थिति में ले जाते हैं। औरस पुत्र भी रक्षा करनेवाले नहीं हैं । अतः आपके उक्त कथन का कौन अनुमोदन करेगा? ये काम-भोग क्षण भर के लिए सुख, तो चिरकाल तक दुःख देते हैं, अधिक दुःख और थोड़ा सुख देते हैं। संसार से मुक्त होने में बाधक हैं, अनर्थों की खान हैं । जो कामनाओं से मुक्त नहीं है, वह अतृप्ति के ताप से जलता मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक हुआ पुरुष रात दिन भटकता है और दूसरों के लिए प्रमादाचरण करनेवाला वह धन की खोज में लगा हुआ एक दिन जरा और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह मेरे पास है, यह नहीं है । यह मुझे करना है, यह नहीं करना है-इस प्रकार व्यर्थ की बकवास करनेवाले व्यक्ति को अपहरण करनेवाली मृत्यु उठा लेती है । उक्त स्थिति होने पर भी प्रमाद कैसा? सूत्र - ४५७ पिता-जिसकी प्राप्ति के लिए लोग तप करते हैं, वह विपुल धन, स्त्रियाँ, स्वजन और इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयभोग- तुम्हें यहाँ पर ही स्वाधीन रूप से प्राप्त हैं । फिर परलोक के इन सुखों के लिए क्यों भिक्षु बनते हो? सूत्र-४५८ पुत्र-जिसे धर्म की धरा को वहन करने का अधिकार प्राप्त है, उसे धन, स्वजन तथा ऐन्द्रियिक विषयों का क्या प्रयोजन ? हम तो गुणसमूह के धारक, अप्रतिबद्धविहारी, शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनेवाले श्रमण बनेंगे।" सूत्र - ४५९ 'पुत्रो ! जैसे अरणि में अग्नि, दूध में घी, तिलों में तेल असत् होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होता है, शरीर का नाश होने पर जीव का कुछ भी अस्तित्व नहीं रहता।'' सूत्र-४६०-४६२ आत्मा अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है । जो अमूर्त भाव होता है, वह नित्य होता है । आत्मा के आन्तरिक रागादि हेतु ही निश्चित रूप से बन्ध के कारण हैं । बन्ध को ही संसार का हेतु कहा है। जब तक हम धर्म के अनभिज्ञ थे, तब तक मोहवश पाप कर्म करते रहे, आपके द्वारा हम रोके गए और हमारा संरक्षण होता रहा । किन्तु अब हम पुनः पाप कर्म का आचरण नहीं करेंगे। ___ लोक आहत है । चारों तरफ से घिरा है । अमोघा आ रही है । इस स्थिति में हम घर में सुख नहीं पा रहे हैं सूत्र-४६३ पुत्रो ! यह लोक किससे आहत है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहते हैं ? यह जानने के लिए मैं चिन्तित हूँ। सूत्र - ४६४-४६६ पिता ! आप अच्छी तरह जान ले कि यह लोक मृत्यु से आहत है, जरा से घिरा हुआ है । और रात्रि को अमोघा कहते हैं । जो जो रात्रि जा रही है, वह फिर लौट कर नहीं आती । अधर्म करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल जाती हैं । जो जो रात्रि जा रही है, वह फिर लौट कर नहीं आती । धर्म करनेवाले की रात्रियाँ सफल होती हैं। सूत्र-४६७ ''पुत्रो, पहले हम सब कुछ समय एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों से युक्त हों । पश्चात् ढलती आयु में दीक्षित होकर घर-घर से भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरेंगे।" सूत्र-४६८-४६९ "जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री है, जो मत्यु के आने पर दूर भाग सकता है, अथवा जो यह जानता है कि मैं कभी मरूंगा ही नहीं, वही आने वाले कल की आकांक्षा कर सकता है। हम आज ही राग को दूर करके श्रद्धा से युक्त मुनिधर्म को स्वीकार करेंगे, जिसे पाकर पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेना होता है । हमारे लिए कोई भी भोग अभुक्त नहीं है, क्योंकि वे अनन्त बार भोगे जा चुके हैं।'' सूत्र - ४७०-४७१ प्रबुद्ध पुरोहित-''वाशिष्ठि ! पुत्रों के बिना इस घर में मेरा निवास नहीं हो सकता । भिक्षाचर्या का काल आ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक गया है । वृक्ष शाखाओं से ही सुन्दर लगता है । शाखाओं के कट जाने पर वह केवल ठूठ है। पंखों से रहित पक्षी, सेना से रहित राजा, जलपोत पर धन-रहित व्यापारी जैसे असहाय होता है वैसे ही पुत्रों के बिना मैं भी असहाय हूँ।'' सूत्र-४७२ पुरोहित पत्नी-सुसंस्कृत एवं सुसंगृहीत कामभोग रूप प्रचुर विषयरस जो हमें प्राप्त हैं, उन्हें पहले इच्छानुरूप भोग लें। उसके बाद हम मुनिधर्म के प्रधान मार्ग पर चलेंगे। सूत्र-४७३ पुरोहित- भवति ! हम विषयरसों को भोग चुके हैं । युवावस्था हमें छोड़ रही है । मैं जीवन के प्रलोभन में भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ । लाभ-अलाभ, सुख-दुख को समदृष्टि से देखता हुआ मैं मुनिधर्म का पालन करूँगा। सूत्र - ४७४ पुरोहित-पत्नी-''प्रतिस्रोत में तैरने वाले बूढ़े हंस की तरह कहीं तुम्हें फिर अपने बन्धुओं को याद न करना पड़े ? अतः मेरे साथ भोगों को भोगो । यह भिक्षाचर्या और यह ग्रामानुग्राम विहार काफी दुःखरूप है। सूत्र-४७५-४७६ पुरोहित-भवति ! जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़कर मुक्तमन से चलता है, वैसे ही दोनों पुत्र भोगों को छोड़ कर जा रहे हैं। अतः मैं क्यों न उनका अनुगमन करूँ? रोहित मत्स्य जैसे कमजोर जाल को काटकर बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही धारण किए हुए गुरुतर संयमभार को वहन करनेवाले प्रधान तपस्वी धीर साधक कामगुणों को छोड़कर भिक्षाचर्या को स्वीकार करते हैं। सूत्र-४७७-४७८ ___पुरोहित-पत्नी-जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा प्रसारित जालों को काटकर आकाश में स्वतन्त्र उड जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति भी छोड़कर जा रहे हैं । मैं भी क्यों न उनका अनुगमन करूँ? पुत्र और पत्नी के साथ पुरोहितने भोगों को त्याग कर अभिनिष्क्रमण किया है ।यह सुनकर उस कुटुम्ब की प्रचुर और श्रेष्ठ धनसंपत्ति की चाह रखनेवाले राजा को रानी कमलावतीने कहा - सूत्र - ४७९-४८० रानी कमलावती-तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को ग्रहण करने की इच्छा रखते हो । राजन् ! वमन को खाने वाला पुरुष प्रशंसनीय नहीं होता है। सारा जगत् और जगत् का समस्त धन भी यदि तुम्हारा हो जाय, तो भी वह तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होगा। और वह धन तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकेगा।'' सूत्र-४८१-४८२ 'राजन् ! एक दिन इन मनोज्ञ काम गुणों को छोड़कर जब मरोगे, तब एक धर्म ही संरक्षक होगा । यहाँ धर्म के अतिरिक्त और कोई रक्षा करने वाला नहीं है। पक्षिणी जैसे पिंजरे में सुख का अनुभव नहीं करती है, वैसे ही मुझे भी यहाँ आनन्द नहीं है । मैं स्नेह के बंधनो को तोड़कर अकिंचन, सरल, निरासक्त, परिग्रह और हिंसा से निवृत्त होकर मुनि धर्म का आचरण करूँगी। सूत्र- ४८३-४८४ जैसे कि वन में लगे दावानल में जन्तुओं को जलते देख रागद्वेष के कारण अन्य जीव प्रमुदित होते हैं । उसी प्रकार कामभोगों में मूर्च्छित हम मूढ लोग भी राग द्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को नहीं समझ रहे हैं। सूत्र - ४८५ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक आत्मवान् साधक भोगों को भोगकर और यथावसर उन्हें त्यागकर वायु की तरह अप्रतिबद्ध होकर विचरण करते हैं । अपनी इच्छानुसार विचरण करनेवाले पक्षियों की तरह प्रसन्नतापूर्वक स्वतन्त्र विहार करते हैं। सूत्र-४८६ आर्य ! हमारे हस्तगत हए ये कामभोग, जिन्हें हमने नियन्त्रित समझ रखा है, वस्तुतः क्षणिक है । अभी हम कामनाओं में आसक्त हैं, किन्तु जैसे कि पुरोहित-परिवार बन्धनमुक्त हआ, वैसे ही हम भी होंगे। सूत्र-४८७-४८९ जिस गीध पक्षी के पास मांस होता है, उसी पर दूसरे मांसभक्षी पक्षी झपटते हैं। जिसके पास मांस नहीं होता, उस पर नहीं झपटते हैं । अतः मैं भी मांसोपम सब कामभोगों को छोड़कर निरामिष भाव से विचरण करूँगी संसार को बढ़ाने वाले कामभोगों को गीध के समान जानकर, उनसे वैसे ही शंकित होकर चलना चाहिए, जैसे कि गरुड़ के समीप सांप ।' - ''बन्धन को तोड़कर जैसे हाथी अपने निवास स्थान में चला जाता है, वैसे ही हमें भी अपने वास्तविक स्थान में चलना चाहिए । हे महाराज इषुकार ! यही एक मात्र श्रेयस्कर है, ऐसा मैंने ज्ञानियों से सुना है।" सूत्र-४९०-४९१ विशाल राज्य को छोड़कर, दुस्त्यज कामभोगों का परित्याग कर, वे राजा और रानी भी निर्विषय, निरामिष, निःस्नेहैर निष्परिग्रह हो गए । धर्म को सम्यक् रूप से जानकर, फलतः उपलब्ध श्रेष्ठ कामगुणों को छोड़कर, दोनों ही यथोपदिष्ट घोर तप को स्वीकार कर संयम में घोर पराक्रमी बने । सूत्र-४९२-४९४ इस प्रकार वे सब क्रमशः बुद्ध बने, धर्मपरायण बने, जन्म एवं मृत्यु के भय से उद्विग्न हुए, अत एव दुःख के अन्त की खोज में लग गये । जिन्होंने पूर्व जन्म में अनित्य एवं अशरण आदि भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित किया था, वे सब राजा, रानी, ब्राह्मण, पुरोहित, उसकी पत्नी और उनके दोनों पुत्र वीतराग अर्हत्-शासन में मोह को दूर कर थोड़े समय में ही दुःख का अन्त करके मुक्त हो गए । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१५-स-भिक्षुक सूत्र-४९५ धर्म को स्वीकार कर मुनिभाव का आचरण करूँगा । उक्त संकल्प से जो ज्ञान दर्शनादि गुणों से युक्त रहता है, जिसका आचरण सरल है, निदानों को छेद दिया है, पूर्व परिचय का त्याग करता है, कामनाओं से मुक्त है, अपनी जाति आदि का परिचय दिए बिना ही जो भिक्षा की गवेषणा करता है और जो अप्रतिबद्ध भाव से विहार करता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९६ जो राग से उपरत है, संयम में तत्पर है, आश्रव से विरत है, शास्त्रों का ज्ञाता है, आत्मरक्षक एवं प्राज्ञ है, रागद्वेष को पराजित कर सभी को अपने समान देखता है, किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९७ कठोर वचन एवं वध-को अपने पूर्व-कृत कर्मों का फल जानकर जो धीर मुनि शान्त रहता है, संयम से प्रशस्त है, आश्रव से अपनी आत्मा को गुप्त किया है, आकुलता और हर्षातिरेक से रहित है, समभाव से सब कुछ सहनता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९८ जो साधारण से साधारण आसन और शयन को समभाव से स्वीकार करता है, सर्दी-गर्मी तथा डांसमच्छर आदि के उपसर्गों में हर्षित और व्यथित नहीं होता है, जो सब कुछ सह लेता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९९ जो भिक्षु सत्कार, पूजा और वन्दना तक नहीं चाहता है, वह किसी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा ? जो संयत है, सुव्रती है, और तपस्वी है, निर्मल आचार से युक्त है, आत्मा की खोज में लगा है, वह भिक्षु है । सूत्र-५०० स्त्री हो या पुरुष, जिसकी संगति से संयमी जीवन छूट जाये और सब ओर से पूर्ण मोह में बंध जाए, तपस्वी उस संगति से दूर रहता है, जो कुतूहल नहीं करता, वह भिक्षु है । सूत्र - ५०१ जो छिन्न, स्वर-विद्या, भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दण्ड, वास्तु-विद्या, अंगविकार और स्वर-विज्ञान इन विद्याओं से जो नहीं जीता है, वह भिक्षु है । सूत्र - ५०२ जो रोगादि से पीड़ित होने पर भी मंत्र, मूल आदि विचारणा, वमन, विरेचन, धूम्रपान की नली, स्नान, स्वजनों की शरण और चिकित्सा का त्याग कर अप्रतिबद्ध भाव से विचरण करता है, वह भिक्षु है। सूत्र-५०३ क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक और सभी प्रकार के शिल्पियों की पूजा तथा प्रशंसा में जो कभी कुछ भी नहीं कहता है, किन्तु इसे हेय जानकर विचरता है, वह भिक्षु है। सूत्र -५०४ जो व्यक्ति प्रव्रजित होने के बाद अथवा जो प्रव्रजित होने से पहले के परिचित हों, उनके साथ इस लोक के फल की प्राप्ति हेतु जो संस्तव नहीं करता है, वह भिक्षु है। सूत्र-५०५ शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य एवं खाद्य कोई स्वयं न दे अथवा माँगने पर भी मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक इन्कार कर दे तो जो निर्ग्रन्थ उनके प्रति द्वेष नहीं रखता है, वह भिक्षु है । सूत्र - ५०६ गृहस्थों से विविध प्रकार के अशनपान एवं खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो मन-वचन-काया से अनुकंपा नहीं करता है, अपि तु मन, वचन और काया से पूर्ण संवृत रहता है, वह भिक्षु है। सूत्र-५०७ ओसामन, जौ से बना भोजन, ठंडा भोजन, कांजी का पानी, जौ का पानी-जैसे नीरस भिक्षा की जो निंदा नहीं करता है, अपि तु भिक्षा के लिए साधारण घरों में जाता है, वह भिक्षु है । सूत्र - ५०८ संसार में देवता, मनुष्य और तिर्यंचों के जो अनेकविध रौद्र, अति भयंकर और अदभुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो डरता नहीं है, वह भिक्षु है। सूत्र- ५०९ लोकप्रचलित विविध धर्मविषयक वादों को जानकर भी जो ज्ञान दर्शनादि स्वधर्म में स्थित रहता है, कर्मों को क्षीण करने में लगा है, शास्त्रों का परमार्थ प्राप्त है, प्राज्ञ है, परीषहों को जीतता है, सब जीवों के प्रति समदर्शी और उपशान्त है, किसी को अपमानित नहीं करता है, वह भिक्षु है। सूत्र- ५१० जो शिल्पजीवी नहीं है, जिसका अगृही है, अमित्र है, जितेन्द्रिय है, परिग्रह से मुक्त है, अणुकषायी है, नीरस और परिमित आहार लेता है, गृहवास छोड़कर एकाकी विचरण करता है, वह भिक्षु है । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 46 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१६-ब्रह्मचर्य समाधि स्थान सूत्र - ५११ आयुष्मन ! भगवान ने ऐसा कहा है। स्थविर भगवन्तों ने निर्ग्रन्थ प्रवचन में दस ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान बतलाए हैं- जिन्हें सुन कर, जिनके अर्थ का निर्णय कर भिक्षु संयम, संवर तथा समाधि से अधिकाधिक सम्पन्न होगुप्त हो, इन्द्रियों को वश में रखे-ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे । सूत्र - ५१२ स्थविर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य-समाधि के वे कौनसे स्थान बतलाए हैं ? स्थविर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य-समाधि के ये दस स्थान बतलाए हैं-जो विविक्त शयन और आसन का सेवन करता है, वह निर्ग्रन्थ है । जो स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का सेवन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों? आचार्य कहते हैं त्री, पश और नपंसक से आकीर्ण शयन और आसन सेवन करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय मे शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है या ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, या उन्माद पैदा होता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, या वह केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है । अतः स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का जो सेवन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है। सूत्र - ५१३ जो स्त्रियों की कथा नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? आचार्य कहते हैं-जो स्त्रियों की कथा करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। अतः निर्ग्रन्थ स्त्रियों की कथा न करे। सूत्र- ५१४ जो स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों? -जो स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठता है, उस ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका होती है, यावत् केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। अतः निर्ग्रन्थ स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। सूत्र-५१५ जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को नहीं देखता है और उनके विषय में चिन्तन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? -जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को देखता है और उनके विषय में चिन्तन करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका होती है, यावत् धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । इसलिए निर्ग्रन्थ यावत् विषय में चिन्तन करे । सूत्र-५१६ जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, स्तनित, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को नहीं सुनता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को न सुने । सूत्र-५१७ जो संयमग्रहण से पूर्व को रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ संयम ग्रहण से पूर्व की रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न करे । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ५१८ जो प्रणीत अर्थात् रसयुक्त पौष्टिक आहार नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ प्रणीत आहार न करे । सूत्र - ५१९ जो परिमाण से अधिक नहीं खाता-पीता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक न खाए, न पीए । सूत्र-५२० जो शरीर की विभूषा नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? वह शरीर को सजाता है, फलतः उसे स्त्रियाँ चाहती हैं । अतः स्त्रियों द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ विभूषानुपाती न बने । सूत्र - ५२१ जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न बने । यह ब्रह्मचर्य समाधि का दसवाँ स्थान है । यहाँ कुछ श्रलोक हे, जैसेसूत्र - ५२२ ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए संयमी एकान्त, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित स्थान में रहे । सूत्र - ५२३-५२४ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में आह्लाद पैदा करने वाली तथा कामराग को बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का त्याग करे । स्त्रियों के साथ परिचय तथा बार-बार वार्तालाप का सदा परित्याग करे। सूत्र-५२५-५२६ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु चक्षु-इन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, संस्थान, बोलने की सुन्दर मुद्रा तथा कटाक्ष को देखने का परित्याग करे । श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन न सुने। सूत्र- ५२७ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, दीक्षा से पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास का कभी भी अनुचिन्तन न करे । सूत्र-५२८-५२९ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत आहार का सदा-सदा परित्याग करे । चित्त की स्थिरता के लिए, जीवन-यात्रा के लिए उचित समय में धर्म-मर्यादानुसार प्राप्त परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक ग्रहण न करे । सूत्र - ५३०-५३१ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, विभूषा का त्याग करे । शृंगार के लिए शरीर का मण्डन न करे । शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकार के कामगुणों का सदा त्याग करे । सूत्र - ५३२-५३५ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" _ Page 48 Page 48 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक स्त्रियों से आकीर्ण स्थान, मनोरम स्त्री-कथा, स्त्रियों का परिचय, उनकी इन्द्रियों को देखना, उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्ययुक्त शब्दों का सुनना, भुक्त भोगों और सहावस्थान को स्मरण करना, प्रणीत भोजन-पान, मात्रा से अधिक भोजन पान, शरीर को सजाने की इच्छा, दुर्जय काम भोग-ये दस आत्मगवेषक मनुष्य के लिए तालपुट विष के समान है । एकाग्रचित्त वाला मुनि दुर्जय कामभोगों का सदैव त्याग करे और सब प्रकार के शंकास्थानों से दूर रहे। सूत्र - ५३६ जो धैर्यवान है, धर्मरथ का चालक सारथि है, धर्म के आराम में रत है, दान्त है, ब्रह्मचर्य में सुसमाहित है, वह भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करता है। सूत्र - ५३७ जो दुष्कर ब्रह्मचर्य पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर-सभी नमस्कार करते हैं । सूत्र-५३८ वह ब्रह्मचर्य-धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है । इस धर्म के द्वारा अनेक साधक सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं, और भविष्य में भी होंगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 49 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१७-पापश्रमणीय सूत्र - ५३९ जो कोई धर्म को सुनकर, अत्यन्त दुर्लभ बोधिलाभ को प्राप्त करके पहले तो विनय संपन्न हो जाता है, निर्ग्रन्थरूप में प्रव्रजित हो जाता है, किन्तु बाद में सुख-स्पृहा के कारण स्वच्छन्द-विहारी हो जाता है । सूत्र-५४०-५४१ रहने को अच्छा स्थान मिल रहा है। कपड़े मेरे पास हैं । खाने पीने को मिल जाता है। और जो हो रहा है, उसे मैं जानता हूँ। भन्ते ! शास्त्रों का अध्ययन करके मैं क्या करूँगा? जो कोई प्रव्रजित होकर निद्राशील रहता है, यथेच्छ खा-पीकर बस आराम से सो जाता है, वह पापश्रमण' कहलाता है। सूत्र-५४२-५४३ जिन आचार्य और उपाध्यायों से श्रुत और विनय ग्रहण किया है, उन्हीं की निन्दा करता है, उनकी निन्दा नहीं करता है, अपितु उनका अनादर करता है, जो ढीठ है, वह पाप श्रमण कहलाता है। सूत्र-५४४ जो प्राणी, बीज और वनस्पति का संमर्दन करता रहता है, जो असंयत होते हुए भी स्वयं को संयत मानता है, वह पापश्रमण कहलाता है। सूत्र - ५४५ जो संस्तारक, फलक-पाट, निषद्या-भूमि और पादकम्बल-का प्रमार्जन किए बिना ही उन पर बैठता है, वह पापश्रमण है। सूत्र-५४६ जो जल्दी-जल्दी चलता है, पुनः पुनः प्रमादाचरण करता रहता है, मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, क्रोधी है वह पापश्रमण है। सूत्र-५४७-५४८ जो प्रमत्त-होकर प्रतिलेखन करता है, पात्र और कम्बल जहाँ-तहाँ रख देता है, प्रतिलेखन में असावधान रहता है, जो इधर-उधर की बातों को सुनता हआ प्रमत्तभाव से प्रतिलेखन करता है, जो गुरु की अवहेलना करता है, वह पापश्रमण कहलाता है। सूत्र - ५४९ जो बहुत मायावी है, वाचाल है, धीठ है, लोभी है, अनिग्रह है-प्राप्त वस्तुओं का परस्पर संविभाग नहीं करता है, जिसे गुरु के प्रति प्रेम नहीं है, वह पापश्रमण है। सूत्र - ५५० जो शान्त हुए विवाद को पुनः उखाड़ता है, अधर्म में अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, कदाग्रह तथा कलह में व्यस्त है, वह पापश्रमण है। सूत्र - ५५१ जो स्थिरता से नहीं बैठता है, हाथ-पैर आदि की चंचल एवं विकृत चेष्टाएँ करता है, जहाँ-तहाँ बैठ जाता है, जिसे आसन पर बैठने का उचित विवेक नहीं है, वह पापश्रमण है। सूत्र- ५५२ जो रज से लिप्त पैरों से सो जाता है, शय्या का प्रमार्जन नहीं करता है, संस्तारक के विषय में असावधान है, वह पापश्रमण है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-५५३ जो दूध, दही आदि विकृतियाँ बार-बार खाता है, जो तप-क्रिया में रुचि नहीं रखता है, वह पापश्रमणकहलाता है। सूत्र -५५४ जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार-बार खाता रहता है, समझाने पर उलटा पड़ता है-वह पापश्रमण कहलाता है। सूत्र-५५५ जो अपने आचार्य का परित्याग कर अन्य पाषण्ड-को स्वीकार करता है, जो गाणंगणिक होता है-वह निन्दित पापश्रमण है। सूत्र - ५५६ जो अपने घर को छोड़कर परघर में व्याप्त होता है-शुभाशुभ बतलाकर द्रव्यादिक उपार्जन करता है, वह पापश्रमण है। सूत्र-५५७ जो अपने ज्ञातिजनों से आहार ग्रहण करता है, सभी घरों से सामुदायिक भिक्षा नहीं चाहता है, गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप-श्रमण है। सूत्र-५५८ जो इस प्रकार आचरण करता है, वह पार्श्वस्थादि पाँच कुशील भिक्षुओं के समान असंवृत है, केवल मुनिवेष का ही धारक है, श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है । वह इस लोक में विषकी तरह निन्दनीय होता है, अतः न वह इस लोक का रहता है, न परलोक का । सूत्र-५५९ जो साधु इन दोषों को सदा दूर करता है, वह मुनियों में सुव्रत होता है । इस लोक में अमृत की तरह पूजा जाता है। अतः वह इस लोक तथा परलोक दोनों की आराधना करता है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१८-संजयीय सूत्र-५६०-५६२ काम्पिल्य नगर में सेना और वाहन से सुसंपन्न ‘संजय' नाम का राजा था । एक दिन मृगया के लिए निकला । वह राजा सब ओर से विशाल अश्वसेना, गजसेना, रथसेना तथा पदाति सेना से परिवृत्त था । राजा अश्व पर आरूढ़ था । वह रस-मूर्च्छित होकर काम्पिल्य नगर के केशर उद्यान की ओर ढकेले गए भयभीत एवं श्रान्त हिरणों को मार रहा था । सूत्र - ५६३-५६५ उस केशर उद्यान में एक तपोधन अनगार स्वाध्याय एवं ध्यान में लीन थे, धर्मध्यान की एकाग्रता साध रहे थे। आश्रव क्षय करने वाले अनगार लतामण्डप में ध्यान कर रहे थे। उनके समीप आए हिरणों का राजा ने वध कर दिया । अश्वारूढ़ राजा शीघ्र वहाँ आया । मृत हिरणों को देखने के बाद उसने वहाँ एक ओर अनगार भी देखा सूत्र -५६६-५६८ राजा मुनि को देखकर सहसा भयभीत हो गया। उसने सोचा-''मैं कितना मन्दपुण्य, रसासक्त एवं हिंसक वृत्ति का हूँ कि मैंने व्यर्थ ही मुनि को आहत किया है ।'' घोड़े को छोड़कर उस राजा ने विनयपूर्वक अनगार के चरणों को वन्दन किया और कहा कि-भगवन् ! इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें । वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान में लीन थे । उन्होंने राजा को कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया, अतः राजा और अधिक भयाक्रान्त हुआ सूत्र - ५६९ ''भगवन् ! मैं संजय हूँ। आप मुझ से कुछ तो बोलें । मैं जानता हूँ-क्रुद्ध अनगार अपने तेज से करोड़ों मनुष्यों को जला डालते हैं।' सूत्र - ५७०-५७२ पार्थिव ! तुझे अभय है । पर, तू भी अभयदाता बन । इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में संलग्न है ? सब कुछ छोड़कर जब तुझे यहाँ से अवश्य लाचार होकर चले जाना है, तो इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ? राजन् ! तू जिसमें मोहमुग्ध है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल है। तू अपने परलोक के हित को नहीं समझ रहा है। सूत्र - ५७३-५७४ स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र तथा बन्धुजन जीवित व्यक्ति के साथ ही जीते हैं । कोई भी मृत व्यक्ति के पीछे नहीं जाता है- अत्यन्त दु:ख के साथ पुत्र अपने मृत पिता को घर से बाहर श्मशान में निकाल देते हैं । उसी प्रकार पुत्र को पिता और बन्धु को अन्य बन्धु भी बाहर निकालते हैं । अतः राजन् ! तू तप का आचरण कर । सूत्र-५७५-५७६ 'मृत्यु के बाद उस मृत व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन का तथा सुरक्षित स्त्रियों का हृष्ट, तुष्ट एवं अलंकृत होकर अन्य लोग उपभोग करते हैं । जो सुख अथवा दुःख के कर्म जिस व्यक्ति ने किए हैं, वह अपने उन कर्मों के साथ परभव में जाता है।'' सूत्र - ५७७-५७८ अनगार के पास से महान् धर्म को सुनकर, राजा मोक्ष का अभिलाषी और संसार से विमुख हो गया । राज्य को छोड़कर वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन में दीक्षित हो गया। सूत्र-५७९ राष्ट्र को छोड़कर प्रव्रजित हुए क्षत्रिय मुनि ने एक दिन संजय मुनि को कहा-तुम्हारा यह रूप जैसे प्रसन्न है, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक वैसे ही तुम्हारा अन्तर्मन भी प्रसन्न है ? सूत्र-५८० क्षत्रिय मुनि-तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारा गोत्र क्या है ? किस प्रयोजन से तुम महान् मुनि बने हो? किस प्रकार आचार्यों की सेवा करते हो? किस प्रकार विनीत कहलाते हो? सूत्र-५८१ संजय मुनि- 'मेरा नाम संजय है। मेरा गोत्र गौतम है । विद्या और चरण के पारगामी गर्दभालि' मेरे आचार्य हैं।'' सूत्र-५८२-५८३ क्षत्रिय मुनि-हे महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान-इन चार स्थानों के द्वारा कुछ एकान्तवादी तत्त्ववेत्ता असत्य तत्त्व की प्ररूपणा करते हैं । बुद्ध, उपशान्त, विद्या और चरण से संपन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने ऐसा प्रकट किया है। सूत्र - ५८४-५८६ जो मनुष्य पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं । और जो आर्यधर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं ।यह क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का सब कथन मायापूर्वक है, अतः मिथ्या वचन है, निरर्थक है। मैं इन मायापूर्ण वचनों से बचकर रहता हूँ, बचकर चलता हूँ । वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य है। मैं परलोक में रहे हुए अपने को अच्छी तरह से जानता हूँ ।' सूत्र - ५८७-५८८ ___ मैं पहले महाप्राण विमान में वर्ष शतोपम आयुवाला द्युतिमान् देव था । जैसे कि यहाँ सौ वर्ष की आयुपूर्ण मानी जाती है, वैसे ही वहाँ पल्योपम एवं सागरोपम की दिव्य आयु पूर्ण है । ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्य भव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की आयु को भी जानता हूँ ।' सूत्र-५८९ नाना प्रकार की रुचि और छन्दों का तथा सब प्रकार के अनर्थक व्यापारों का संयतात्मा मुनि को सर्वत्र परित्याग करना चाहिए । इस तत्त्वज्ञानरूप विद्या का लक्ष्य कर संयमपथ पर संचरण करे । सूत्र - ५९०-५९१ मैं शुभाशुभसूचक प्रश्नो से और गृहस्थों की मन्त्रणाओं से दूर रहता हूँ | अहो ! मैं दिन-रात धर्माचरण के लिए उद्यत रहता हूँ । यह जानकर तुम भी तप का आचरण करो ।जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे सर्वज्ञ ने प्रकट किया है । अतः वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है। सूत्र - ५९२ धीर पुरुष क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया का त्याग करे । सम्यक् दृष्टि से दृष्टिसंपन्न होकर तुम दुश्चर धर्म का आचरण करो। सूत्र- ५९३-६०२ अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हए थे । नराधिप सागर चक्रवर्ती सागरपर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड कर संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। महान् ऋद्धि-संपन्न, यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार की । महान् ऋद्धिसंपन्न, मनुष्येन्द्र सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तप का आचरण किया। महान ऋद्धि-संपन्न और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोडकर अनुत्तर मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक गति प्राप्त की । इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर, विख्यातकीर्ति, घृतिमान् कुन्थुनाथ ने अनुत्तर गति प्राप्त की। सागर पर्यन्त भारतवर्ष को छोड़कर, कर्म-रज को दूर करके नरेश्वरों में श्रेष्ठ 'अर' ने अनुत्तर गति प्राप्त की। भारतवर्ष को छोड़कर, उत्तम भोगों को त्यागकर 'महापद्म' चक्रवर्ती ने तप का आचरण किया ।शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एकछत्र शासन करके फिर अनुत्तर गति प्राप्त की। हजार राजाओं के साथ श्रेष्ठ त्यागी जय चक्रवर्ती ने राज्य का परित्याग कर जिन-भाषित संयम का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की।" सूत्र-६०३-६०४ साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित होकर दशार्णभद्र राजा ने अपने सब प्रकार से प्रमुदित दशार्ण राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि-धर्म का आचरण किया। विदेह के राजा नमि श्रामण्य धर्म में भली-भाँति स्थिर हए, अपने को अति विनम्र बनाया। सूत्र - ६०५-६०६ कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गन्धार में नग्गति- राजाओं में वृषभ के समान महान् थे। इन्होंने अपने-अपने पुत्र को राज्य में स्थापित कर श्रामण्य धर्म स्वीकार किया। सूत्र - ६०७-६१० सौवीर राजाओं में वृषभ के समान महान् उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की । इसी प्रकार श्रेय और सत्य में पराक्रमशील काशीराज ने काम-भोगों का परित्याग कर कर्मरूपी महावन का नाश किया। अमरकीर्ति, महान् यशस्वी विजय राजा ने गुण-समृद्ध राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली। अनाकुल चित्त से उग्र तपश्चर्या करके राजर्षि महाबल ने अहंकार का विसर्जन कर सिद्धिरूप उच्च पद प्राप्त किया। सूत्र-६११ इन भरत आदि शूर और दृढ पराक्रमी राजाओं ने जिनशासन में विशेषता देखकर ही उसे स्वीकार किया था । अतः अहेतुवादों से प्रेरित होकर अब कोई कैसे उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण करे? सूत्र - ६१२ मैंने यह अत्यन्त निदानक्षम-सत्य-वाणी कही है। इसे स्वीकार कर अनेक जीव अतीत में संसार-समुद्र से पार हुए हैं, वर्तमान में पार हो रहे हैं और भविष्य में पार होंगे। सूत्र-६१३ धीर साधक एकान्तवादी अहेतुवादों में अपने-आप को कैसे लगाए ? जो सभी संगों से मुक्त है, वही नीरज होकर सिद्ध होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 54 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१९-मृगापुत्रीय सूत्र- ६१४-६१६ कानन और उद्यानों से सुशोभित 'सुग्रीव' नामक सुरम्य नगर में बलभद्र राजा था । मृगा पट्टरानी थी। 'बलश्री' नाम का पुत्र था, जो कि 'मृगापुत्र' नाम से प्रसिद्ध था । माता-पिता को प्रिय था । युवराज था और दमीश्वर था । प्रसन्न-चित्त से सदा नन्दन प्रासाद में-दोगुन्दग देवों की तरह स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता था। सूत्र - ६१७-६२२ __एक दिन मृगापुत्र मणि और रत्नों से जडित कुट्टिमतल वाले प्रासाद के गवाक्ष में खड़ा था । नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था । उसने वहाँ राजपथ पर जाते हुए तप, नियम एवं संयम के धारक, शील से समृद्ध तथा गुणों के आकार एक संयत श्रमण को देखा । वह उस को अनिमेष-दृष्टि से देखता है और सोचता है- 'मैं मानता हूँ कि ऐसा रूप मैंने इसके पूर्व भी कहीं देखा है । साधु के दर्शन तथा तदनन्तर पवित्र अध्यवसाय के होने पर, मैंने ऐसा कहीं देखा है ___ इस प्रकार ऊहापोह को प्राप्त मृगापुत्र को जाति-स्मरण उत्पन्न हुआ । संज्ञिज्ञान होने पर वह पूर्व-जाति को स्मरण करता है-देवलोक से च्युत होकर मैं मनुष्यभव में आया हूँ । जाति-स्मरण उत्पन्न होने पर महर्द्धिक मृगापुत्र अपनी पूर्व-जाति और पूर्वाचरित श्रामण्य को स्मरण करता है । सूत्र - ६२३ विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त मृगापुत्र ने माता-पिता के समीप आकर इस प्रकार कहासूत्र - ६२४ __ मैंने पंच महाव्रतों को सुना है । सुना है नरक और तिर्यंच योनि में दुःख है । मैं संसाररूप महासागर से निर्विण्ण-हो गया हूँ। मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा । माता ! मुझे अनुमति दीजिए। सूत्र-६२५ ___मैं भोगों को भोग चुका हूँ, वे विषफल के समान अन्त में कटु विपाक वाले और निरन्तर दुःख देने वाले हैं। सूत्र-६२६-६२८ यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है, अशुचि से पैदा हुआ है, यहाँ का आवास अशाश्वत है, तथा दुःख और क्लेश का स्थान है । इसे पहले या बाद में, कभी छोड़ना ही है । यह पानी के बुलबुले के समान अनित्य है। अतः इस शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल पा रहा है । व्याधि और रोगों के घर तथा जरा और मरण से ग्रस्त इस असार मनुष्यशरीर में एक क्षण भी मुझे सुख नहीं मिल रहा है। सूत्र - ६२९ जन्म दुःख है । जरा दुःख है । रोग दुःख है । मरण दुःख है । अहो ! यह समग्र संसार ही दुःखरूप है, जहाँ जीव क्लेश पाते हैं। सूत्र - ६३० क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, पुत्र, स्त्री, बन्धुजन और इस शरीर छोड़कर एक दिन विवश होकर मुझे चले जाना है । सूत्र - ६३१ जिस प्रकार विष-रूप किम्पाक फलों का अन्तिम परिणाम सुन्दर नहीं होता है, उसी प्रकार भोगे हए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता। सूत्र - ६३२-६३३ जो व्यक्ति पाथेय लिए बिना लम्बे मार्ग पर चल देता है, वह चलते हुए भूख और प्यास से पीड़ित होता है मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म किए बिना परभव में जाता है, वह व्याधि और रोगों से पीड़ित होता है, दुःखी होता है। सूत्र - ६३४-६३५ जो व्यक्ति पाथेय साथ में लेकर लम्बे मार्ग पर चलता है, वह चलते हुए भूख और प्यास के दुःख से रहित सुखी होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म करके परभव में जाता है, वह अल्पकर्मा वेदना से रहित सुखी होता है। सूत्र-६३६-६३७ जिस प्रकार घर को आग लगने पर गृहस्वामी मूल्यवान् सार वस्तुओं को निकालता है और मूल्यहीन असार वस्तुओं को छोड़ देता है उसी प्रकार आपकी अनुमति पाकर जरा और मरण से जलते हुए इस लोक में सारभूत अपनी आत्मा को बाहर निकालूँगा ।'' सूत्र - ६३८ माता-पिता ने उसे कहा-पुत्र ! श्रामण्य-अत्यन्त दुष्कर है । भिक्षु को हजारों गुण धारण करने होते हैं । सूत्र-६३९ भिक्षु को जगत् में शत्रु और मित्र के प्रति, सभी जीवों के प्रति समभाव रखना होता है । जीवनपर्यन्त प्राणातिपात से निवत्त होना भी बहुत दुष्कर है । सूत्र- ६४० सदा अप्रमत्त भाव से मृषावाद का त्याग करना, हर क्षण सावधान रहते हुए हितकारी सत्य बोलना-बहुत कठिन होता है। सूत्र-६४१ दन्तशोधन आदि भी बिना दिए न लेना एवं प्रदत्त वस्तु भी अनवद्य और एषणीय ही लेना अत्यन्त दुष्कर है सूत्र- ६४२ काम-भोगों के रस से परिचित व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्ति और उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का धारण करना बहुत दुष्कर है। सूत्र-६४३ धन-धान्य, प्रेष्यवर्ग, आदि परिग्रह का त्याग तथा सब प्रकार के आरम्भ और ममत्व का त्याग करना बहुत दुष्कर होता है। सूत्र - ६४४ अशन-पानादि चतुर्विध आहार का रात्रि में त्याग करना और कालमर्यादा से बाहर घृतादि संनिधि का संचय न करना अत्यन्त दुष्कर है। सूत्र- ६४५, ६४६ भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों का कष्ट, आक्रोश वचन, दुःख शय्या-कष्टप्रद स्थान, तृणस्पर्श तथा मैल ताड़ना, तर्जना, वध और बन्धन, भिक्षाचर्या, याचना और अलाभ-इन परीषहों को सहन करना दुष्कर है। सूत्र- ६४७ यह कापोतीवृत्ति समान दोषों से सशंक एवं सतर्क रहने की वृत्ति, दारुण केश-लोच और यह घोर ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करना महान् आत्माओं के लिए भी दुष्कर है। सूत्र - ६४८ पुत्र ! तू सुख भोगने के योग्य है, सुकुमार है, सुमज्जित है-अतः श्रामण्य का पालन करने के लिए तू समर्थ नहीं है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ६४९ पुत्र - साधुचर्या में जीवनपर्यन्त कहीं विश्राम नहीं है । लोहे के भार की तरह साधु के गुणों का वह महान् गुरुतर भार है, जिसे जीवनपर्यन्त वहन करना अत्यन्त कठिन है। सूत्र- ६५० जैसे आकाश-गंगा का स्रोत एवं प्रतिस्रोत दुस्तर है । सागर को भुजाओं से तैरना दुष्कर है, वैसे ही संयम के सागर को तैरना दुष्कर है। सूत्र-६५१ संयम बालू-रेत के कवल की तरह स्वाद से रहित है, तप का आचरण तलवार की धार पर चलने जैसा दुष्कर है। सूत्र - ६५२ साँप की तरह एकाग्र दृष्टि से चारित्र धर्म में चलना कठिन है । लोहे के जौ चबाना जैसे दुष्कर है, वैसे ही चारित्र का पालन दुष्कर है। सूत्र-६५३ जैसे प्रज्वलित अग्निशिखा को पीना दुष्कर है, वैसे ही युवावस्था में श्रमणधर्म का पालन करना दुष्कर है। सूत्र - ६५४ जैसे वस्त्र के थैला हवा से भरना कठिन है, वैसे ही कायरों के द्वारा श्रमणधर्म का पालन भी कठिन होता सूत्र-६५५ जैसे मेरुपर्वत को तराजू से तोलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चल और निःशंक भाव से श्रमण धर्म का पालन करना दुष्कर है। सूत्र-६५६ जैसे भुजाओं से समुद्र को तैरना कठिन है, वैसे ही अनुपशान्त व्यक्ति के द्वारा संयम के सागर को पार करना दुष्कर है। सूत्र-६५७ पुत्र ! पहले तू मनुष्य-सम्बन्धी शब्द, रूप आदि पाँच प्रकार के भोगों का भोग कर । पश्चात् भुक्तभोगी होकर धर्म का आचरण करना । सूत्र-६५८ मृगापुत्र ने माता-पिता को कहा-आपने जो कहा है, वह ठीक है। किन्तु इस संसार में जिसकी प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। सूत्र - ६५९,६६० मैंने शारीरिक और मानसिक भयंकर वेदनाओं को अनन्त बार सहन किया है । और अनेक बार भयंकर दुःख और भय भी अनुभव किए हैं। मैंने नरक आदि चार गतिरूप अन्त वाले जरा-मरण रूपी भय के आकर कान्तार में भयंकर जन्म-मरणों को सहा है। सूत्र-६६१-६६२ जैसे यहाँ अग्नि उष्ण है, उससे अनन्तगुण अधिक दुःखरूप उष्ण वेदना और जैसे यहाँ शीत है, उससे मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अनन्तगुण अधिक दुःखरूप शीतवेदना मैंने नरक में अनुभव की है। सूत्र-६६३-६६५ मैं नरक की कंदु कुम्भियों में-ऊपर पैर और नीचा सिर करके प्रज्वलित अग्नि में आक्रन्द करता हुआ अनन्त बार पकाया गया हूँ । महाभयंकर दावाग्नि के तुल्य मरु प्रदेश में तथा वज्रवालुका में और कदम्ब वालुका में मैं अनन्त बार जलाया गया हूँ। बन्धु-बान्धवों से रहित असहाय रोता हुआ मैं कन्दुकुम्भी में ऊंचा बाँधा गया तथा करपत्र और क्रकच आदि शस्त्रों से अनन्त बार छेदा गया हूँ।'' सूत्र - ६६६-६६८ अत्यन्त तीखे काँटों से व्याप्त ऊंचे शाल्मलि वृक्ष पर पाश से बाँधकर, इधर-उधर खींचकर मुझे असह्य कष्ट दिया गया । अति भयानक आक्रन्दन करता हआ, मैं पापकर्मा अपने कर्मों के कारण, गन्ने की तरह बड़े-बड़े यन्त्रों में अनन्त बार पीला गया हूँ मैं इधर-उधर भागता और आक्रन्दन करता हआ, काले तथा चितकबरे सूअर और कुत्तों से अनेक बार गिराया गया, फाड़ा गया और छेदा गया । सूत्र- ६६९-६७० पाप कर्मों के कारण मैं नरक में जन्म लेकर अलसीफूलों के समान नीले रंग की तलवारों से, भालों से और लोहदण्डों से छेदा गया, भेदा गया, खण्ड-खण्ड कर दिया गया । समिला से युक्त जूएवाले जलते लौह के रथ में पराधीन मैं जोता गया हूँ, चाबुक और रस्सी से हाँका गया हूँ तथा रोझ की भाँति पीट कर भूमि पर गिराया गया हूँ सूत्र - ६७१-६७२ पापकर्मों से घिरा हुआ पराधीन मैं अग्नि की चिताओं में भैंसे की भाँति जलाया और पकाया गया हूँ । लोहे समान कठोर संडासी जैसी चोंचवाले ढंक एवं गीध पक्षियों द्वारा, मैं रोता-बिलखता हठात् अनन्त बार नोचा गया हूँ सूत्र - ६७३-६७४ प्यास से व्याकुल होकर, दौड़ता हुआ मैं वैतरणी नदी पर पहुँचा । 'जल पीऊंगा'-यह सोच ही रहा था कि छुरे की धार जैसी तीक्ष्ण जलधारा से मैं चीरा गया । गर्मी से संतप्त होकर मैं छाया के लिए असि-पत्र महावन में गया । किन्तु वहाँ ऊपर से गिरते हुए असि-पत्रों से-तलवार के समान तीक्ष्ण पत्तों से अनेक बार छेदा गया । सूत्र-६७५ सब ओर से निराश हुए मेरे शरीर को मुद्गरों, मुसुण्डियों, शूलों और मुसलों से चूर-चूर किया गया । इस प्रकार मैंने अनन्त बार दुःख पाया है। सूत्र - ६७६ पाशों और कूट जालों से विवश बने मृग की भाँति मैं भी अनेक बार छलपूर्वक पकड़ा गया हूँ, बाँधा गया हूँ, रोका गया हूँ और विनष्ट किया गया हूँ। सूत्र - ६७७-६७९ गलों से तथा मगरों को पकड़ने के जालों से मत्स्य की तरह विवश मैं अनन्त बार खींचा गया, फाड़ा गया, पकड़ा गया और मारा गया । बाज पक्षियों, जालों तथा वज्रलेपों के द्वारा पक्षी की भाँति मैं अनन्त बार पकड़ा गया, चिपकाया गया, बाँधा गया और मारा गया । सूत्र - ६८०-६८१ बढ़ई के द्वारा वृक्ष की तरह कुल्हाडी और फरसा आदि से मैं अनन्त बार कूटा गया हूँ, फाड़ा गया हूँ, छेदा मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 58 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक गया हूँ, और छीला गया हूँ । लुहारों के द्वारा लोहे की भाँति मैं परमाधर्मी असुर कुमारों के द्वारा चपत और मुक्का आदि से अनन्त बार पीटा गया, कूटा गया, खण्ड-खण्ड किया गया और चूर्ण बना दिया गया। सूत्र-६८२ भयंकर आक्रन्द करते हुए भी मुझे कलकलाता गर्म ताँबा, लोहा, रांगा और सीसा पिलाया गया । सूत्र- ६८३-६८४ तुझे टुकड़े-टुकड़े किया हुआ और शूल में पिरो कर पकाया गया मांस प्रिय था-यह याद दिलाकर मुझे मेरे ही शरीर का मांस काटकर और उसे तपा कर अनेक बार खिलाया गया । तुझे सुरा, सीधू, मैरेय और मधु आदि मदिराएँ प्रिय थी- यह याद दिलाकर मुझे जलती हुई चर्बी और खून पिलाया गया। सूत्र-६८५-६८६ ____ मैंने नित्य ही भयभीत, संत्रस्त, दुःखित और व्यथित रहते हुए अत्यन्त दुःखपूर्ण वेदना का अनुभव किया । तीव्र, प्रचण्ड, प्रगाढ, घोर, अत्यन्त दुःसह, महाभयंकर और भीष्म वेदनाओं का मैंने नरक में अनुभव किया है। सूत्र-६८७ हे पिता ! मनुष्य-लोक में जैसी वेदनाएँ देखी जाती हैं, उनसे अनन्त गुण अधिक दुःख-वेदनाएँ नरक में हैं सूत्र-६८८ मैंने सभी जन्मों में दुःखरूप वेदना का अनुभव किया है । एक क्षण के अन्तर जितनी भी सुखरूप वेदना (अनुभूति) वहाँ नहीं है। सूत्र-६८९ माता-पिता ने उससे कहा-पुत्र ! अपनी इच्छानुसार तुम भले ही संयम स्वीकार करो । किन्तु विशेष बात यह है कि-श्रामण्य-जीवन में निष्प्रतिकर्मता कष्ट है। सूत्र- ६९० माता-पिता ! आपने जो कहा वह सत्य है। किन्तु जंगलों में रहनेवाले निरीह पशु-पक्षियों की चिकित्सा कौन करता है? सूत्र - ६९१-६९३ जैसे जंगल में मृग अकेला विचरता है, वैसे ही मैं भी संयम और तप के साथ एकाकी होकर धर्म का आचरण करूँगा। जब महावन में मृग के शरीर में आतंक उत्पन्न हो जाता है, तब वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस मृग की कौन चिकित्सा करता है ? कौन उसे औषधि देता है ? कौन उसे सुख की बात पूछता है ? कौन उसे भक्तपान लाकर देता है ? सूत्र- ६९४-६९५ जब वह स्वस्थ हो जाता है, तब स्वयं गोचरभूमि में जाता है । और खाने-पीने के लिए बल्लरों-व गहन तथा जलाशयों को खोजता है । उसमें खाकर-पानी पीकर मृगचर्या करता हुआ वह मृग अपनी मृगचर्या चला जाता सूत्र - ६९६ रूपादि में अप्रतिबद्ध, संयम के लिए उद्यत भिक्षु स्वतंत्र विहा करता हुआ, मृगचर्या की तरह आचरण कर मोक्ष को गमन करता है। सूत्र-६९७ जैसे मग अकेला अनेक स्थानों में विचरता है, रहता है, सदैव गोचर-चर्या से ही जीवनयापन करता है, वैसे मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" - Page 59 Page 59 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक ही गौचरी के लिए गया हुआ मुनि भी किसी की निन्दा और अवज्ञा नहीं करता है। सूत्र - ६९८ मैं मृगचर्या का आचरण करूँगा । पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो- इस प्रकार माता-पिता की अनुमति पाकर वह उपधि को छोड़ता है। सूत्र - ६९९ हे माता ! मैं तुम्हारी अनुमति प्राप्त कर सभी दुःखों का क्षय करनेवाली मृगचर्या का आचरण करूँगा। पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे चलो। सूत्र-७००-७०१ इस प्रकार वह अनेक तरह से माता-पिता को अनुमति के लिए समझा कर ममत्त्व का त्याग करता है, जैसे कि महानाग कैंचुल को छोड़ता है । कपड़े पर लगी हुई धूल की तरह ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, कलत्र और ज्ञातिजनों को झटककर वह संयमयात्रा के लिए निकल पड़ा। सूत्र - ७०२-७०७ पंच महाव्रतों से युक्त, पाँच समितियों से समित तीन गुप्तियों से गुप्त, आभ्यन्तर और बाह्य तप में उद्यतममत्त्वरहित, अहंकाररहित, संगरहित, गौरव का त्यागी, त्रस तथा स्थावर सभी जीवों में समदृष्टि-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन, मरण, निन्दा, प्रशंसा और मान-अपमान में समत्त्व का साधक-गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बन्धन से मुक्त-इस लोक और परलोक में अनासक्त, बसूले से काटने अथवा चन्दन लगाए जाने पर भी तथा आहार मिलने और न मिलने पर भी सम-अप्रशस्त द्वारों से आने वाले कर्मपुद्गलों का सर्वतोभावेन निरोधक महर्षि मृगापुत्र अध्यात्म-सम्बन्धी ध्यानयोगों से प्रशस्त संयम-शासन में लीन हुआ। सूत्र - ७०८-७०९ इस प्रकार ज्ञान, चारित्र, दर्शन, तप और शुद्ध-भावनाओं के द्वारा आत्मा को सम्यक्तया भावित कर-बहुत वर्षों तक श्रामण्य धर्म का पालन कर अन्त में एक मास के अनशन से वह अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त हुआ । सूत्र - ७१० संबुद्ध, पण्डित और अतिविचक्षण व्यक्ति ऐसा ही करते हैं । वे काम-भोगों से वैसे ही निवृत्त होते हैं, जैसे कि महर्षि मृगापुत्र निवृत्त हुआ। सूत्र-७११-७१२ महान् प्रभावशाली, यशस्वी मृगापुत्र के तपःप्रधान, त्रिलोक-विश्रुत एवं मोक्षरूपगति से प्रधान-उत्तम चारित्र को सुनकर-धन को दुःखवर्धक तथा ममत्वबन्धन को महाभयंकर जानकर निर्वाण के गुणों को प्राप्त करने वाली, सुखावह, अनुत्तर धर्म-धुरा को धारण करो। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२०-महानिर्ग्रन्थीय सूत्र - ७१३ सिद्धों एवं संयतों को भावपूर्वक नमस्कार करके मैं मोक्ष और धर्म के स्वरूप का बोध कराने वाली तथ्यपूर्ण अनुशिष्टि-का कथन करता हूँ, उसे सुनो। सूत्र - ७१४-७१५ गज-अश्व तथा मणि-माणिक्य आदि प्रचुर रत्नों से समृद्ध मगध का अधिपति राजा श्रेणिक मण्डिकुक्षि चैत्य-में विहार-यात्रा के लिए नगर से निकला । वह उद्यान विविध प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से आकीर्ण था, नाना प्रकार के पक्षियों से परिसेवित था और विविध प्रकार के पुष्पों से भली-भाँति आच्छादित था । विशेष क्या कहे ? वह नन्दनवन के समान था। सूत्र-७१६-७१८ राजा ने उद्यान में वृक्ष के नीचे बैठे हुए एक संयत, समाधि-संपन्न, सुकुमार एवं सुखोचित-साधु को देखा। साधु के अनुपम रूप देखकर राजा को उसके प्रति बहुत ही अधिक अतुलनीय विस्मय हुआ । अहो, क्या वर्ण है ! क्या रूप है ! आर्य की कैसी सौम्यता है ! क्या क्षान्ति है, क्या मुक्ति है ! भोगों के प्रति कैसी असंगता है ! सूत्र - ७१९-७२० मुनि के चरणों में वन्दना और प्रदक्षिणा करने के पश्चात् राजा न अतिदूर, न अति निकट खड़ा रहा और हाथ जोड़कर पूछने लगा-हे आर्य ! तुम अभी युवा हो । फिर भी तुम भोगकाल में दीक्षित हुए हो, श्रामण्य में उपस्थित हुए हो । इसका क्या कारण है, मैं सुनना चाहता हूँ। सूत्र - ७२१ महाराज ! मैं अनाथ हूँ । मेरा कोई नाथ नहीं है । मुझ पर अनुकम्पा रखनेवाला कोई सुहृद् नहीं पा रहा हूँ। सूत्र - ७२२-७२३ यह सुनकर मगधाधिप राजा श्रेणिक जोर से हँसा और बोला-इस प्रकार तुम देखने में ऋद्धि संपन्न-लगते हो, फिर भी तुम्हारा कोई नाथ नहीं है ? भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ । हे संयत ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ । हे संयत ! मित्र और ज्ञातिजनों के साथ भोगों को भोगो । यह मनुष्य-जीवन बहुत दुर्लभ है । सूत्र - ७२४ श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो । मगधाधिप ! जब तुम स्वयं अनाथ हो तो किसी के नाथ कैसे हो सकोगे? सूत्र-७२५-७२७ राजा पहले ही विस्मित हो रहा था, अब तो मुनि से अश्रुतपूर्व वचन सुन कर तो और भी अधिक संभ्रान्त एवं विस्मित हुआ । उसने कहा-मेरे पास अश्व, हाथी, नगर और अन्तःपुर है । मैं मनुष्यजीवन के सभी सुख-भोगों को भोग रहा हूँ | मेरे पास शासन और ऐश्वर्य भी हैं । इस प्रकार प्रधान-श्रेष्ठ सम्पदा, जिसके द्वारा सभी कामभोग मुझे समर्पित होते हैं, मुझे प्राप्त हैं । इस स्थिति में भला मैं कैसे अनाथ हूँ ? आप झूठ न बोलें । सूत्र-७२८-७२९ पृथ्वीपति-नरेश ! तुम 'अनाथ' के अर्थ और परमार्थ को नहीं जानते हो । महाराज ! अव्याक्षिप्त चित्त से मुझे सुनिए की यथार्थ में अनाथ कैसे होता है ? सूत्र - ७३० प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर कौशाम्बी नगरी है। वहाँ मेरे पिता थे । उन के पास प्रचुर धन का संग्रह था। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ७३१-७३३ ___ महाराज ! युवावस्था में मेरी आँखों में अतुल वेदना उत्पन्न हुई । पार्थिव ! उससे मेरे सारे शरीर में अत्यन्त जलन होती थी । क्रुद्ध शत्रु जैसे शरीर के मर्मस्थानों में तीक्ष्ण शस्त्र घोंप दे और उससे जैसे वेदना हो, वैसे ही मेरी आँखों में भयंकर वेदना हो रही थी । जैसे इन्द्र के वज्रप्रहार से भयंकर वेदना होती है, वैसे ही मेरे त्रिक में, हृदय में और मस्तक में अति दारुण वेदना हो रही थी। सूत्र - ७३४-७३५ विद्या और मंत्र से चिकित्सा करनेवाले, मंत्र तथा औषधियों के विशारद, अद्वितीय शास्त्रकुशल, आयुर्वेद आचार्य मेरी चिकित्सा के लिए उपस्थित थे । उन्होंने मेरे हितार्थ वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक-रूप चतुष्पाद चिकित्सा की, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके । यह मेरी अनाथता है। सूत्र - ७३६-७३७ 'मेरे पिता ने मेरे लिए चिकित्सकों को सर्वोत्तम वस्तुएँ दीं, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके ।' - ''महाराज! मेरी माता पुत्रशोक के दुःख से बहुत पीड़ित रहती थी, किन्तु वह भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी, यह मेरी अनाथता है।" सूत्र - ७३८-७३९ महाराज ! मेरे बड़े और छोटे सभी सगे भाई तथा मेरी बड़ी और छोटी सगी बहनें भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी, यह मेरी अनाथता है। सूत्र - ७४०-७४२ महाराज ! मुझ में अनुरक्त और अनुव्रत मेरी पत्नी अश्रुपूर्ण नयनों से मेर उरःस्थल को भिगोती रहती थी। वह बाला मेरे प्रत्यक्ष में या परोक्ष में कभी भी अन्न, पान, स्नान, गन्ध, माल्य और विलेपन का उपभोग नहीं करती थी । वह एक क्षण के लिए भी मुझसे दूर नहीं होती थी । फिर भी वह मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी । महाराज! यही मेरी अनाथता है। सूत्र - ७४३-७४५ तब मैंने विचार किया- प्राणी को इस अनन्त संसार में बार-बार असह्य वेदना का अनुभव करना होता है । इस विपुल वेदना से यदि एक बार भी मुक्त हो जाऊं, तो मैं क्षान्त, दान्त और निराम्भ अनगारवृत्ति में प्रव्रजित हो जाऊंगा । इस प्रकार विचार करके मैं सो गया । परिवर्तमान रात के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई। सूत्र - ७४६ तदनन्तर प्रातःकाल में नीरोग होते ही मैं बन्धुजनों को पूछकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगार वृत्ति में प्रव्रजित हो गया। सूत्र - ७४७ तब मैं अपना और दूसरों का, त्रस और स्थावर सभी जीवों का नाथ हो गया। सूत्र-७४८-७४९ मेरी अपनी आत्मा ही वैतरणी नदी है, कूट-शाल्मली वृक्ष है, काम-दुधाधेनु है और नन्दन वन है ।आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता-भोक्ता है । सत् प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है । और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। सूत्र - ७५० राजन् ! यह एक और भी अनाथता है । शान्त एवं एकाग्रचित्त होकर उसे सुनो ! बहुत से ऐसे कायर व्यक्ति होते हैं, जो निर्ग्रन्थ धर्म को पाकर भी खिन्न हो जाते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 62 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र- ७५१ जो महाव्रतों को स्वीकार कर प्रमाद के कारण उनका सम्यक् पालन नहीं करता है, आत्मा का निग्रह नहीं करता है, रसों में आसक्त है, वह मूल से राग-द्वेष-रूप बन्धनों का उच्छेद नहीं कर सकता है। सूत्र - ७५२ जिसकी ईर्या, भाषा, एषणा और आदान-निक्षेप में और उच्चार-प्रस्रवण के परिष्ठापन में आयुक्तता नहीं है, वह उस मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता, जो वीरयात हैसूत्र - ७५३ जो अहिंसादि व्रतों में अस्थिर है, तप और नियमों से भ्रष्ट है-वह चिर काल तक मुण्डरुचि रहकर और आत्मा को कष्ट देकर भी वह संसार से पार नहीं हो सकता। सूत्र - ७५४ जो पोली मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे-सिक्के की तरह अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकने वाली तुच्छ काचमणि है, वह जानने वाले परीक्षकों की दृष्टि में मूल्यहीन है। सूत्र - ७५५ जो कुशील का वेष और रजोहरणादि मुनिचिन्ह धारण कर जीविका चलाता है, असंयत होते हुए भी अपने-आप को संयत कहता है, वह चिरकाल तक विनाश को प्राप्त होता है। सूत्र-७५६ पिया हुआ कालकूट-विष, उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र, अनियन्त्रित वेताल-जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही विषय-विकारों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है। सूत्र - ७५७ जो लक्षण और स्वप्न-विद्या का प्रयोग करता है, निमित्त शास्त्रो और कौतुक-कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या आश्चर्य को उत्पन्न करने वाली कुहेट विद्याओं से-जीविका चलाता है, वह कर्मफल-भोग के समय किसी की शरण नहीं पा सकता। सूत्र-७५८ वह शीलरहित साधु अपने तीव्र अज्ञान के कारण विपरीत-दृष्टि को प्राप्त होता है, फलतः असाधु प्रकृतिवाला वह साधु मुनि-धर्म की विराधना कर सतत दुःख भोगता हुआ नरक और तिर्यंच गति में आवागमन करता रहता है। सूत्र - ७५९ जो औद्देशिक, क्रीत, नियाग आदि के रूप में थोड़ासा-भी अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता है, वह अग्नि की भाँति सर्वभक्षी भिक्षु पाप-कर्म करके यहाँ से मरने के बाद दुर्गति में जाता है।'' सूत्र-७६० स्वयं की अपनी दुष्प्रवृत्ति जो अनर्थ करती है, वह गला काटने वाला शत्रु भी नहीं कर पाता है । उक्त तथ्य को संयमहीन मनुष्य मृत्यु के क्षणों में पश्चात्ताप करते हुए जान पाएगा। सूत्र - ७६१ जो उत्तमार्थमें विपरीत दृष्टि रखता है, उसकी श्रामण्य में अभिरुचि व्यर्थ है। उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है। दोनों लोक के प्रयोजन से शून्य होने के कारण वह उभय-भ्रष्ट भिक्षु निरन्तर चिन्ता में धुलता जाता है सूत्र - ७६२ पशापOu3 मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 63 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक इसी प्रकार स्वच्छन्द और कुशील साधु भी जिनोत्तम मार्ग की विराधना कर वैसे ही परिताप को प्राप्त होता है, जैसे कि भोगरसोंमें आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है।' सूत्र - ७६३-७६४ मेधावी साधक इस सुभाषित को एवं ज्ञान-गुण से युक्त अनुशासन को सुनकर कुशील व्यक्तियों के सब मार्गों को छोड़कर, महान् निर्ग्रन्थों के पथ पर चले । चारित्राचार और ज्ञानादि गणों से संपन्न निर्ग्रन्थ निराश्रव होता है। अनुत्तर शुद्ध संयम का पालन कर वह निराश्रव साधक कर्मों का क्षय कर विपुल, उत्तम एवं शाश्वत मोक्ष को प्राप्त करता है। सूत्र - ७६५ इस प्रकार उग्र-दान्त, महान् तपोधन, महा-प्रतिज्ञ, महान्-यशस्वी उस महामुनि ने इस महा-निर्ग्रन्थीय महाश्रुत को महान् विस्तार से कहा। सूत्र - ७६६-७६७ राजा श्रेणिक संतुष्ट हुआ और हाथ जोड़कर बोला-भगवन् ! अनाथ का यथार्थ स्वरूप आपने मुझे ठीक तरह समझाया है। हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्य-जन्म सफल है, उपलब्धियाँ सफल हैं, तुम सच्चे सनाथ और सबान्धव हो, क्योंकि तुम जिनेश्वर के मार्ग में स्थित हो । सूत्र-७६८-७६९ हे संयत ! तुम अनाथों के नाथ हो, सब जीवों के नाथ हो । मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ। मैं तुम से अनुशासित होने की इच्छा रखता हूँ। मैंने तुमसे प्रश्न कर जो ध्यान में विघ्न किया और भोगों के लिए निमन्त्रण दिया, उन सब के लिए मुझे क्षमा करें। सूत्र-७७० इस प्रकार राजसिंह श्रेणिक राजा अनगार-सिंह मुनि की परम भक्ति से स्तुति कर अन्तःपुर तथा अन्य परिजनों के साथ धर्म में अनुरक्त हो गया। सूत्र-७७१ राजा के रोमकूप आनन्द से उच्छ्वसित-उल्लसित हो रहे थे। वह मुनि की प्रदक्षिणा और सिर से वन्दना करके लौट गया। सूत्र- ७७२ और वह गुणों से समृद्ध, तीन गुप्तियों से गुप्त, तीन दण्डों से विरत, मोहमुक्त मुनि पक्षी की भाँति विप्रमुक्त होकर भूतल पर विहार करने लगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 64 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२१-समुद्रपालीय सूत्र- ७७३-७७६ चम्पा नगरी में पालित' नामक एक वणिक् श्रावक था । वह विराट पुरुष भगवान् महावीर का शिष्य था। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन का विद्वान था । एक बार पोत से व्यापार करता हआ वह पिहण्ड नगर आया । वहाँ व्यापार करते समय उसे एक व्यापारी ने विवाह के रूप में अपनी पुत्री दी। कुछ समय के बाद गर्भवती पत्नी को लेकर उसने स्वदेश की ओर प्रस्थान किया । पालित की पत्नी ने समुद्र में ही पुत्र को जन्म दिया । इसी कारण उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा। सूत्र-७७७-७७९ वह वणिक् श्रावक सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर आया । वह सुकुमार बालक उसके घर में आनन्द के साथ बढ़ने लगा । उसने बहत्तर कलाएँ सीखीं, वह नीति-निपुण हो गया । वह युवावस्था से सम्पन्न हुआ तो सभी को सुन्दर और प्रिय लगने लगा। पिता ने उसके लिए 'रूपिणी' नाम की सुन्दर भार्या ला दी । वह अपनी पत्नी के साथ दोगुन्दक देव की भाँति सुरम्य प्रासाद में क्रीड़ा करने लगा। सूत्र - ७८०-७८२ एक समय वह प्रासाद के आलोकन में बैठा था । वध्य चिन्हों से युक्त वध्य को बाहर वध-स्थान की ओर ले जाते हुए उसने देखा । उसे संवेग-प्राप्त समुद्रपाल ने मन में कहा-खेद है ! यह अशुभ कर्मों का दुःखद परिणाम है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए वह महान् आत्मा संवेग को प्राप्त हुआ और सम्बुद्ध हो गया । माता-पिता को पूछ कर उसने अनगारिता दीक्षा ग्रहण की। सूत्र-७८३ दीक्षित होने पर मुनि महा क्लेशकारी, महामोह और पूर्ण भयकारी संग का परित्याग करके पर्यायधर्म में, व्रत में, शील में और परीषहों में अभिरुचि रखे । सूत्र-७८४ विद्वान् मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे । सूत्र - ७८५ इन्द्रियों का सम्यक संवरण करने वाला भिक्षु सब जीवों के प्रति करुणाशील रहे, क्षमा से दुर्वचनादि को सहे, संयत हो, ब्रह्मचारी हो । सदैव सावधयोग का परित्याग करता हआ विचरे। सूत्र - ७८६ साधु समयानुसार अपने बलाबल को जानकर राष्ट्रों में विचरण करे । सिंह की भाँति भयोत्पादक शब्द सुनकर भी संत्रस्त न हो । असभ्य वचन सुनकर भी बदले में असभ्य वचन न कहे। सूत्र-७८७ संयमी प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे । प्रिय-अप्रिय परीषहों को सहन करे । सर्वत्र सबकी अभिलाषा न करे, पूजा और गर्दा भी न चाहे । सूत्र-७८८ यहाँ संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय होते हैं । भिक्षु उन्हें अपने में भी भाव से जानता है। अतः वह देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यंचकृत भयोत्पादक भीषण उपसर्गों को सहन करे | मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ७८९-७९१ __ अनेक असह्य परीषह प्राप्त होने पर बहुत से कायर लोग खेद का अनुभव करते हैं । किन्तु भिक्षु परीषह होने पर संग्राम में आगे रहने वाले हाथी की तरह व्यथित न हो। शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर, तृण-स्पर्श तथा अन्य विविध प्रकार के आतंक जब भिक्षु को स्पर्श करें, तब वह कुत्सित शब्द न करते हुए उन्हें समभाव से सहे । पूर्वकृत कर्मों को क्षीण करे । विचक्षण भिक्षु सतत राग-द्वेष और मोह को छोड़कर, वायु से अकम्पित मेरु की भाँति आत्म-गुप्त बनकर परीषहों को सहे। सूत्र - ७९२ पूजा-प्रतिष्ठा में उन्नत और गर्दा में अवनत न होने वाला महर्षि पूजा और गर्दा में लिप्त न हो । वह समभावी विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाण-मार्ग को प्राप्त होता है। सूत्र - ७९३ जो अरति और रति को सहता है, संसारी जनों के परिचय से दूर रहता है, विरक्त है, आत्म-हित का साधक है, संयमशील है, शोक रहित है, ममत्त्व रहित है, अकिंचन है, वह परमार्थ पदों में स्थित होता है। सूत्र - ७९४ त्रायी, महान् यशस्वी ऋषियों द्वारा स्वीकृत, लेपादि कर्म से रहित, असंसृत से एकान्त स्थानों का सेवन करे और परीषहों को सहन करे । सूत्र - ७९५ _ अनुत्तर धर्म-संचय का आचरण करके सद्ज्ञान से ज्ञान को प्राप्त करनेवाला, अनुत्तर ज्ञानधारी, यशस्वी महर्षि, अन्तरिक्ष में सूर्य की भाँति धर्म-संघ में प्रकाशमान होता है। सूत्र - ७९६ समुद्रपाल मुनि पुण्य-पाप दोनों ही कर्मों का क्षय करके संयम से निश्चल और सब प्रकार से मुक्त होकर समुद्र की भाँति विशाल संसार-प्रवाह को तैर कर मोक्ष में गए। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 66 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२२-रथनेमीय सूत्र- ७९७-७९८ सोरियपुर नगर में राज-लक्षणों से युक्त, महान् ऋद्धि से संपन्न वसुदेव' राजा था। उसकी रोहिणी और देवकी दो पत्नियाँ थीं । उन दोनों के राम (बलदेव) और केशव (कृष्ण)-दो प्रिय पुत्र थे । सूत्र - ७९९-८०० सोरियपुर नगर में राज-लक्षणों से युक्त, महान् ऋद्धि से संपन्न समुद्रविजय' राजा भी था । उसकी शिवा पत्नी थी, जिसका पुत्र महान् यशस्वी, जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ, लोकनाथ, भगवान् अरिष्टनेमि था। सूत्र-८०१-८०४ वह अरिष्टनेमि सुस्वरत्व एवं लक्षणों से युक्त था । १००८ शुभ लक्षणों का धारक भी था । उसका गोत्र गौतम था और वह वर्ण से श्याम था । वह वज्रऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थानवाला था । उसका उदर मछली के उदर जैसा कोमल था। राजमती कन्या उसकी भार्या बने, यह याचना केशव ने की । यह महान राजा की कन्या सुशील, सुन्दर, सर्वलक्षण संपन्न थी । उस के शरीर की कान्ति विद्युत् की प्रभा समान थी । उस के पिता ने महान् ऋद्धिशाली वासुदेव को कहा-कुमार यहाँ आए । मैं अपनी कन्या उसके लिए दे सकता हूँ। सूत्र-८०५-८०८ अरिष्टनेमि को सर्व औषधियों के जल से स्नान कराया गया । यथाविधि कौतुक एवं मंगल किए गए । दिव्य वस्त्र-युगल पहनाया गया और उसे आभरणों से विभूषित किया गया । वासुदेव के सबसे बड़े मत्त गन्धहस्ती पर अरिष्टनेमि आरूढ हुए तो सिर पर चूडामणि की भाँति बहुत अधिक सुशोभित हुए। अरिष्टनेमि ऊंचे छत्र से तथा चामरों से सुशोभित था । दशार्ह-चक्र से वह सर्वतः परिवृत था । चतुरंगिणी सेना यथाक्रम सजाई हुई थी। और वाद्यों का गगन-स्पर्शी दिव्य नाद हो रहा था। सूत्र-८०९-८१३ ऐसी उत्तम ऋद्धि और द्युति के साथ वह वृष्णि-पुंगव अपने भवन से निकला । तदनन्तर उसने बाड़ों और पिंजरों में बन्द किए गए भयत्रस्त एवं अति दुःखित प्राणियों को देखा । वे जीवन की अन्तिम स्थिति के सम्मुख थे | मांस के लिए खाये जाने वाले थे । उन्हें देखकर महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि ने सारथि को कहा ये सब सुखार्थी प्राणी किस लिए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हए हैं ? सारथि ने कहा-ये भद्र प्राणी आपके विवाह-कार्य में बहुत से लोगों को मांस खिलाने के लिए हैं। सूत्र - ८१४-८१६ अनेक प्राणियों के विनाश से सम्बन्धित वचन को सुनकर जीवों के प्रति करुणाशील, महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि चिन्तन करते हैं - ''यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से प्राणियों का वध होता है, तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा।" उस महान् यशस्वी ने कुण्डल-युगल, सूत्रक और अन्य सब आभूषण उतार कर सारथि को दे दिए। सूत्र- ८१७-८२० मन में ये परिणाम होते ही उनके यथोचित अभिनिष्क्रमण के लिए देवता अपनी ऋद्धि और परिषद् के साथ आए । देव और मनुष्यों से परिवृत्त भगवान् अरिष्टनेमि शिबिकारत्न में आरूढ़ हुए । द्वारका से चलकर रैवतक पर्वत पर स्थित हुए । उद्यान में पहुँचकर, उत्तम शिबिका से उतरकर, एक हजार व्यक्तियों के साथ, भगवान ने चित्रा नक्षत्र में निष्क्रमण किया । तदनन्तर समाहित-अरिष्टनेमि ने तुरन्त अपने सुगन्ध से सुवासित कोमल और घुघराले बालों का स्वयं अपने हाथों से पंचमुष्टि लोच किया। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 67 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ८२१-८२३ वासुदेव कृष्ण ने लुप्तकेश एवं जितेन्द्रिय भगवान् को कहा-हे दमीश्वर ! आप अपने अभीष्ट मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करो। आप ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षान्ति और मुक्ति के द्वारा आगे बढ़ो ।इस प्रकार बलराम, केशव, दशाह यादव और अन्य बहुत से लोग अरिष्टनेमि को वन्दना कर द्वारकापुरी को लौट आए। सूत्र - ८२४-८२६ भगवान् अरिष्टनेमि की प्रव्रज्या सुनकर राजकन्या राजीमती के हास्य और आनन्द सब समाप्त हो गए। और वह शोकसे मूर्छित हो गई । राजीमती ने सोचा-धिक्कार है मेरे जीवन को । चूँकि मैं अरिष्टनेमि के द्वारा परित्यक्ता हूँ, अतः मेरा प्रव्रजित होना ही श्रेय है । धीर तथा कृतसंकल्प राजीमती ने कूर्च और कंधी से सँवारे हुए भौंरे जैसे काले केशों का अपने हाथों से लुंचन किया । सूत्र - ८२७ वासुदेव ने लुप्त-केशा एवं जितेन्द्रिय राजीमती को कहा-कन्ये ! तू इस घोर संसार-सागर को अति शीघ्र पार कर। सूत्र-८२८ शीलवती एवं बहुश्रुत राजीमती ने प्रव्रजित होकर अपने साथ बहुत से स्वजनों तथा परिजनों को भी प्रव्रजित कराया। सूत्र - ८२९-८३१ वह रैवतक पर्वत पर जा रही थी कि बीच में ही वर्षा से भीग गई। जोर की वर्षा हो रही थी, अन्धकार छाया हुआ था । इस स्थिति में वह गुफा के अन्दर पहुँची । सुखाने के लिए अपने वस्त्रों को फैलाती हुई राजीमती को यथाजात रूप में रथनेमि ने देखा । उसका मन विचलित हो गया । पश्चात् राजीमती ने भी उसको देखा । वहाँ एकान्त में उस संयत को देख कर वह डर गई। भय से काँपती हुई वह अपनी दोनों भुजाओं से शरीर को आवृत कर बैठ गई। सूत्र-८३२-८३४ तब समुद्रविजय के अंगजात उस राजपुत्र ने राजीमती को भयभीत और काँपती हुई देखकर वचन कहाभद्रे ! मैं रथनेमि हूँ । हे सुन्दरी ! हे चारुभाषिणी ! तू मुझे स्वीकार कर । हे सुतनु ! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। निश्चित ही मनुष्य -जन्म अत्यन्त दुर्लभ है । आओ, हम भोगों को भोगे । बाद में भुक्तभोगी हम जिनमार्ग में दीक्षत होंगे। सूत्र- ८३५-८३६ संयम के प्रति भग्नोद्योग तथा भोग-वासना से पराजित रथनेमि को देखकर वह सम्भ्रान्त न हुई । उसने वस्त्रों से अपने शरीर को पुनः बँक लिया । नियमों और व्रतों में सुस्थित श्रेष्ठ राजकन्या राजीमती ने जाति, कुल और शील की रक्षा करते हए रथनेमि से कहासूत्र-८३७-८३९ यदि तू रूप से वैश्रमण के समान है, ललित कलाओं से नलकुबर के समान है, तू साक्षात् इन्द्र भी है, तो भी मैं तुझे नहीं चाहती हूँ। (अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प धूम की ध्वजा वाली, प्रज्वलित, भयंकर, दुष्प्रवेश अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु वमन किए हुए अपने विष को पुनः पीने की इच्छा नहीं करते हैं ।) हे अयशःकामिन् ! धिक्कार है तुझे कि तू भोगी जीवन के लिए त्यक्त भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करता है । इससे तो तेरा मरना श्रेयस्कर है । मैं भोजराजा की पौत्री हूँ और तू अन्धक-वृष्णि का पौत्र है । हम कुल में गन्धन सर्प की तरह बनें । तू निभृत होकर संयम का पालन कर। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 68 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-८४०-८४२ यदि तू जिस किसी स्त्री को देखकर ऐसे ही राग-भाव करेगा, तो वायु से कम्पित हड की तरह तू अस्थितात्मा होगा। जैसे गोपाल और भाण्डपाल उस द्रव्य के स्वामी नहीं होते हैं, उसी प्रकार तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। तू क्रोध, मान, माया और लोभ को पूर्णतया निग्रह करके, इन्द्रियों को वश में करके अपने-आप को उपसंहार करसूत्र-८४३-८४५ उस संयता के सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में सम्यक् प्रकार से वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश से हाथी हो जाता है। वह मन, वचन और काया से गुप्त, जितेन्द्रिय और व्रतों में दृढ़ हो गया । जीवन-पर्यन्त निश्चल भाव से श्रामण्य का पालन करता रहा । उग्र तप का आचरण करके दोनों ही केवली हुए । सब कर्मों का क्षय करके उन्होंने अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त किया। सूत्र-८४६ सम्बुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं । पुरुषोत्तम रथनेमि की तरह वे भोगों से निवृत्त हो जाते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 69 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन- २३- केशिगौतमीय अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - ८४७-८५० पार्श्व नामक जिन, अर्हन्, लोकपूजित सम्बुद्धात्मा, सर्वज्ञ, धर्म-तीर्थ के प्रवर्त्तक और वीतराग थे। लोकप्रदीप भगवान् पार्श्व के ज्ञान और चरण के पारगामी, महान् यशस्वी केशीकुमार श्रमण शिष्य थे। वे अवधि ज्ञान और श्रुत ज्ञान से प्रबुद्ध थे । शिष्य संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए। नगर के । निकट तिन्दुक उद्यान में जहाँ प्रासुक निर्दोष शय्या और संस्तारक सुलभ थे, ठहर गए। - - सूत्र - ८५१-८५४ उसी समय धर्म-तीर्थ के प्रवर्त्तक, जिन, भगवान् वर्द्धमान थे, जो समग्र लोक में प्रख्यात थे । उन लोकप्रदीप भगवान् वर्द्धमान के विद्या और चारित्र के पारगामी, महान् यशस्वी भगवान् गौतम शिष्य थे । बारह अंगों के वेत्ता, प्रबुद्ध गौतम भी शिष्य संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए नगर के निकट कोष्ठक - उद्यान में, जहाँ प्रासुक शय्या, एवं संस्तारक सुलभ थे, ठहर गए । सूत्र - ८५५ कुमारश्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम-दोनों वहाँ विचरते थे। दोनों ही आलीन और सुसमाहित थे । सूत्र - ८५६-८५९ संयत, तपस्वी, गुणवान् और षट्काय के संरक्षक दोनों शिष्य संघों में यह चिन्तन उत्पन्न हुआ यह कैसा धर्म है ? और यह कैसा धर्म है? आचार धर्म की प्रणिधि यह कैसी है और यह कैसी है ? यह चातुर्याम धर्म है, इसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्वनाथ ने किया है और यह पंच शिक्षात्मक धर्म है, इसका महामुनि वर्द्धमान ने प्रतिपादन किया है । यह अचेलक धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर धर्म पार्श्वनाथ ने प्ररूपित किया है। एक ही लक्ष्य से प्रवृत्त दोनों में इस विशेष भेद का क्या कारण है ?" - सूत्र - ८६० केशी और गौतम दोनों ने ही शिष्यों के प्रवितर्कित को जानकर परस्पर मिलने का विचार किया । सूत्र - ८६१-८६३ केशी श्रमण के कुल को जेष्ठ कुल जानकर प्रतिरूपज्ञ गौतम शिष्यसंघ के साथ तिन्दुक वन में आए । गौतम को आते हुए देखकर केशी कुमार श्रमण ने उनकी सम्यक् प्रकार से प्रतिरूप प्रतिपत्ति की। गौतम को बैठने के लिए शीघ्र ही उन्होंने प्रासुक पयाल और पाँचवाँ कुश-तृण समर्पित किया । सूत्र - ८६४ श्रमण केशीकुमार और महान् यशस्वी गौतम-दोनों बैठे हुए चन्द्र और सूर्य की तरह सुशोभित हो रहे थे । सूत्र - ८६५-८६६ कौतूहल की अबोध दृष्टि से वहाँ दूसरे सम्प्रदायों के बहुत से परिव्राजक आए और अनेक सहस्र गृहस्थ भी। देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहाँ एक तरह से समागम सा हो गया था । सूत्र - ८६७-८७१ केशी ने गौतम से कहा- महाभाग ! में तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। केशी के यह कहने पर गौतम ने कहा- भन्ते ! जैसी भी इच्छा हो पूछिए। तदनन्तर अनुज्ञा पाकर केशी ने गौतम को कहा- यह चतुर्याम धर्म है। इसका महामुनि पार्श्वनाथ ने प्रतिपादन किया है। यह जो पंच शिक्षात्मक धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है। मेधाविन्! एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं, तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? इन दो प्रकार के धर्मों में तुम्हें विप्रत्यय कैसे नहीं होता? तब गोतम ने कहा-तत्त्व का निर्णय जिसमें होता है, ऐसे मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक धर्मतत्त्व की समीक्षा प्रज्ञा करती है। सूत्र-८७२-८७३ प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं । बीच के तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं । अतः धर्म दो प्रकार से कहा है । प्रथम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है । अन्तिम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका पालन करना कठिन है । मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका पालन करना सरल है। सूत्र - ८७४-८७६ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर कर दिया । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें। यह अचेलक धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर धर्म महायशस्वी पार्श्व ने प्रतिपादन किया है। एक ही कार्य से प्रवृत्त दोनों में भेद का कारण क्या है ? मेधावी ! लिंग के इन दो प्रकारों में तुम्हें कैसे संशय नहीं होता है ? सूत्र-८७७-८७९ तब गौतम ने कहा-विशिष्ट ज्ञान से अच्छी तरह धर्म के साधनों को जानकर ही उन की अनुमति दी गई है | नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना लोगों की प्रतीति के लिए है । संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और मैं साधु हूँ,-यथाप्रसंग इसका बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग का प्रयोजन है । वास्तव में दोनों तीर्थंकरों का एक ही सिद्धान्त है कि मोक्ष के वास्तविक साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्रही हैं। सूत्र - ८८०-८८१ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह तो दूर कर दिया । मेरा एक और भी सन्देह है। गौतम ! उस विषय में भी मुझे कहें । गौतम! अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच में तुम खड़े हो । वे तुम्हें जीतना चाहते हैं । तुमने उन्हें कैसे जीता ? सूत्र-८८२ गणधर गौतम- एक को जीतने से पाँच जीत लिए गए और पाँच को जीत लेने से दस जीत लिए गए। दसों को जीतकर मैंने सब शत्रओं को जीत लिया। सूत्र-८८३-८८४ गौतम ! वे शत्रु कौन होते हैं ? केशी ने गौतम को कहा । गौतमने कहा- मुने ! न जीता हुआ अपना आत्मा ही शत्रु है । कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रु हैं । उन्हें जीतकर नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। सूत्र-८८५-८८६ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उस विषय में भी मुझे कहें । इस संसार में बहुत से जीव पाश से बद्ध हैं । मुने ! तुम बन्धन से मुक्त और लघुभूत होकर कैसे विचरण करते हो ?' सूत्र-८८७ गणधर गौतम-''मुने ! उन बन्धनों को सब प्रकार से काट कर, उपायों से विनष्ट कर मैं बन्धनमुक्त और हलका होकर विचरण करता हूँ।'' सूत्र-८८८ गौतम ! वे बन्धन कौन से हैं ? केशी ने गौतम को पूछा । गौतम ने कहासूत्र-८८९ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह भयंकर बन्धन हैं । उन्हें काटकर धर्मनीति एवं आचार के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। सूत्र-८९०-८९१ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और भी सन्देह है, गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न एक लता है । उसको विष-तुल्य फल लगते हैं । उसे तुमने कैसे उखाड़ा? सूत्र-८९२ गणधर गौतम-उस लता को सर्वथा काटकर एवं जड़ से उखाड़ कर नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। अतः मैं विष-फल खाने से मुक्त हूँ। सूत्र - ८९३-८९४ वह लता कौनसी है ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-भवतृष्णा ही भयंकर लता है । उसके भयंकर परिपाक वाले फल लगते हैं । हे महामुने ! उसे जड़ से उखाड़कर मैं नीति के अनुसार विचरण करता हूँ। सूत्र-८९५-८९६ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । घोर प्रचण्ड अग्नियाँ प्रज्वलित हैं। वे जीवों को जलाती हैं। उन्हें तुमने कैसे बुझाया ? सूत्र-८९७ गणधर गौतम- महामेघ से प्रसूत पवित्र-जल को लेकर मैं उन अग्नियों का निरन्तर सिंचन करता हूँ । अतः सिंचन की गई अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती हैं।'' सूत्र-८९८-८९९ वे कौन-सी अग्नियाँ है ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-कषाय अग्नियाँ हैं । श्रुत, शील और तप जल है । श्रुत, शील, तप रूप जल-धारा से बुझी हुई और नष्ट हुई अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती हैं। सूत्र- ९००-९०१ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा सन्देह दूर किया है । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । यह साहसिक, भयंकर, दुष्ट अश्व दौड़ रहा है । गौतम ! तुम उस पर चढ़े हुए हो । वह तुम्हें उन्मार्ग पर कैसे नहीं ले जाता है? सूत्र - ९०२ गणधर गौतम-दौड़ते हुए अश्व को मैं श्रुतरश्मि से-वश में करता हूँ। मेरे अधीन हुआ अश्व उन्मार्ग पर नहीं जाता है, अपितु सन्मार्ग पर ही चलता है।'' सूत्र - ९०३-९०४ अश्व किसे कहा गया है ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-मन ही साहसिक, भयंकर, दुष्ट अश्व है, जो चारों तरफ दौड़ता है । उसे मैं अच्छी तरह वश में करता हूँ । धर्मशिक्षा से वह कन्थक अश्व हो गया है।'' सूत्र - ९०५-९०६ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । गौतम ! लोक में कुमार्ग बहुत हैं, जिससे लोग भटक जाते हैं । मार्ग पर चलते हुए तुम क्यों नहीं भटकते हो? सूत्र - ९०७ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन अध्ययन / सूत्रांक गणधर गौतम- जो सन्मार्ग में चलते हैं और जो उन्मार्ग से चलते हैं, उन सबको मैं जानता हूँ । अतः हे मुने! मैं नही भटकता हूँ ।" सूत्र ९०८ ९०९ मार्ग किसे कहते हैं ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा- मिथ्या प्रवचन को मानने वाले सभी पाखण्डी लोग उन्मार्ग पर चलते हैं । सन्मार्ग तो जिनोपदिष्ट है, और वही उत्तम मार्ग है । सूत्र - ९९०-९११ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया। मेरा एक और भी सन्देह है। गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें। मुने महान् जलप्रवाह के वेग से बहते डूबते हुए प्राणियों के लिए शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप तुम किसे मानते हो ?" सूत्र - ९१२ गणधर गौतम-जल के बीच एक विशाल महाद्वीप है। वहाँ महान् जलप्रवाह के वेग की गति नहीं है। सूत्र - ९१३ - ९१४ वह महाद्वीप कौन सा है ? केशी ने गौतम को कहा। गौतम ने कहा-जरा-मरण के वेग से बहते डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। सूत्र - ९१५-९१६ गीतम! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया, मेरा एक और भी सन्देह है। गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । महाप्रवाह वाले समुद्र में नौका डगमगा रही है । तुम उस पर चढ़कर कैसे पार जा सकोगे ? सूत्र- ९१७ गणधर गौतम- जो नौका छिद्रयुक्त है, वह पार नहीं जा सकती। जो छिद्ररहित है वही नौका पार जाती है सूत्र - ९१८- ९१९ वह नौका कौन सी है ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा- शरीर नौका है, जीव नाविक है और संसार समुद्र है, जिसे महर्षि तैर जाते हैं । सूत्र - ९२०-९२१ गीतम! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया। मेरा एक और भी सन्देह है। गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । भयंकर गाढ अन्धकार में बहुत से प्राणी रह रहे हैं । सम्पूर्ण लोक में प्राणियों के लिए कौन प्रकाश करेगा? सूत्र - ९२२ गणधर गौतम- सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश करने वाला निर्मल सूर्य उदित हो चुका है। वह सब प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा। सूत्र - ९२३-९२४ वह सूर्य कौन है ? केशी ने गौतम को कहा। गौतम ने कहा जिसका संसार क्षीण हो गया है, जो सर्वज्ञ है, ऐसा जिन-भास्कर उदित हो चुका है । वह सब प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा । सूत्र - ९२५ ९२६ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें। मुने! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए तुम क्षेम, शिव मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद Page 73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक और अनाबाध-कौन-सा स्थान मानते हो ? सूत्र- ९२७ गणधर गौतम- लोक के अग्र-भाग में एक ऐसा स्थान है, जहाँ जरा नहीं है, मृत्यु नहीं है, व्याधि और वेदना नहीं है । परन्तु वहाँ पहुँचना बहुत कठिन है । सूत्र- ९२८-९३० वह स्थान कौन सा है। केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-जिस स्थान को महर्षि प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है । क्षेम, शिव और अनाबाध है। भव-प्रवाह का अन्त करनेवाले मुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, वह स्थान लोक के अग्रभाग में शाश्वत रूप से अवस्थित है, जहाँ पहुँच पाना कठिन है। सूत्र - ९३१ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह भी दूर किया । हे संशयातीत ! सर्व श्रुत के महोदधि ! तुम्हें मेरा नमस्कार है। सूत्र-९३२-९३३ इस प्रकार संशय के दूर होने पर घोर पराक्रमी केशीकुमार, महान् यशस्वी गौतम को वन्दना कर-प्रथम और अन्तिम जिनों के द्वारा उपदिष्ट एवं सुखावह पंचमहाव्रतरूप धर्म के मार्ग में भाव से प्रविष्ट हए । सूत्र - ९३४-९३५ ___ वहाँ तिन्दुक उद्यान में केशी और गौतम दोनों का जो यह सतत समागम हुआ, उसमें श्रुत तथा शील का उत्कर्ष और महान् तत्त्वों के अर्थों का विनिश्चय हुआ । समग्र सभा धर्मचर्या से संतुष्ट हुई। अतः सन्मार्ग में समुपस्थित उसने भगवान् केशी और गौतम की स्तुति की कि वे दोनों प्रसन्न रहें। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२४-प्रवचनमाता सूत्र - ९३६-९३८ समिति और गुप्ति-रूप आठ प्रवचनमाताएँ हैं । समितियाँ पाँच हैं । गुप्तियाँ तीन हैं। ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान समिति और उच्चार समिति । मनो-गुप्ति, वचन गुप्ति और आठवीं प्रवचन माता काय-गुप्ति है । ये आठ समितियाँ संक्षेप में कही गई हैं इनमें जिनेन्द्र-कथित द्वादशांग-रूप समग्र प्रवचन अन्तर्भूत हैं। सूत्र - ९३९-९४३ संयती साधक आलम्बन, काल, मार्ग और यतना-इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या समिति से विचरण करे ईर्या समिति का आलम्बन-ज्ञान, दर्शन और चारित्र है । काल दिवस है । और मार्ग उत्पथ का वर्जन है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से यतना चार प्रकार की है । उसको मैं कहता हूँ । सुनो द्रव्य से-आँखों से देखे । क्षेत्र से-युगमात्र भूमि को देखे । काल से-जब तक चलता रहे तब तक देखे । भाव से-उपयोगपूर्वक गमन करे । इन्द्रियों के विषय और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर मात्र गमन-क्रिया में ही तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्त्व देकर उपयोगपूर्वक चले। सूत्र - ९४४-९४५ क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा के प्रति सतत उपयोगयुक्त रहे । प्रज्ञावान् संयती इन आठ स्थानों को छोड़कर यथासमय निरवद्य और परिमिति भाषा बोले । सूत्र- ९४६-९४७ गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा से आहार, उपधि और शय्या का परिशोधन करे । यतनापूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला यति प्रथम एषणा में उदगम और उत्पादन दोषों का शोधन करे। दूसरी एषणा में आहारादि ग्रहण करने से सम्बन्धित दोषों का शोधन करे । परिभोगैषणा में दोष-चतुष्क का शोधन करे। सूत्र- ९४८-९४९ ___मुनि ओध-उपधि और औपग्रहिक उपधि दोनों प्रकार के उपकरणों को लेने और रखने में इस विधि का प्रयोग करे । यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला यति दोनों प्रकार के उपकरणों को आँखों से प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके ले और रखे। सूत्र-९५०-९५३ उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, सिंघानक, जल्ल, आहार, उपधि-उपकरण, शरीर तथा अन्य कोई विसर्जनयोग्य वस्तु को विवेकपूर्वक स्थण्डिल भूमि में उत्सर्ग करे । 1.अनापात असंलोक-जहाँ लोगों का आवागमन न हो, और वे दूर से भी न दीखते हों। 2. अनापात संलोक-लोगों का आवागमन न हो, किन्तु लोग दूर से दीखते हों । 3. आपात असंलोक-लोगों का आवागमन हो, किन्तु वे दीखते न हों। 4.आपात संलोक-लोगों का आवागमन हो और वे दिखाई भी देते हों। इस प्रकार स्थण्डिल भूमि चार प्रकार से होती है। जो भूमि अनापात-असंलोक हो, परोपघात से रहित हो, सम हो, अशुषिर हो तथा कुछ समय पहले निर्जीव हुई हो-विस्तृत हो, गाँव से दूर हो, बहुत नीचे तक अचित्त हो, बिल से रहित हो, तथा त्रस प्राणी और बीजों मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक से रहित हो, ऐसी भूमि में उच्चार आदि का उत्सर्ग करना चाहिए। सूत्र - ९५४ ये पाँच समितियाँ संक्षेप से कही गई हैं। अब यहाँ से क्रमशः तीन गुप्तियाँ सूत्र - ९५५-९५६ मनोगुप्ति के चार प्रकार हैं-सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यमृषा है, जो केवल लोकव्यवहार है । यतना-संपन्न यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त मन का निवर्तन करे । सूत्र-९५७-९५८ वचन गुप्ति के चार प्रकार हैं-सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा । यतना-संपन्न यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन का निवर्तन करे । सूत्र-९५९-९६० खड़े होने में, बैठने में, त्वगवर्तन में, उल्लंघन में, प्रलंघन में, शब्दादि विषयों में, इन्द्रियों के प्रयोग में-संरम्भ में, समारम्भ में और आरम्भ में प्रवृत्त काया का निवर्तन करे । सूत्र- ९६१ ये पाँच समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं । और तीन गुप्तियाँ सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए हैं। सूत्र- ९६२ जो पण्डित मुनि इन प्रवचनमाताओं का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से मुक्त हो जाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२५-यज्ञीय सूत्र - ९६३-९६५ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न, महान् यशस्वी जयघोष ब्राह्मण था, जो हिंसक यमरूप यज्ञ में अनुरक्त यायाजी था। वह इन्द्रिय -समह का निग्रह करने वाला, मार्गगामी महामनि हो गए थे। एक दिन ग्रामानग्राम विहार करते हुए वाराणसी पहुँच गए । वाराणसी के बाहर मनोरम उद्यान में प्रासुक शय्या और संस्तारक लेकर ठहर गए । सूत्र - ९६६-९६७ उसी समय पुरी में वेदों का ज्ञाता, विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था । एक मास की तपश्चर्या के पारणा के समय भिक्षा के लिए वह जयघोष मुनि विजयघोष के यज्ञ में उपस्थित हुआ। सूत्र - ९६८-९७० यज्ञकर्ता ब्राह्मण भिक्षा के लिए उपस्थित हुए मुनि को इन्कार करता है- मैं तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा । भिक्षु ! अन्यत्र याचना करो । जो वेदों के ज्ञाता विप्र-ब्राह्मण हैं, यज्ञ करने वाले द्विज हैं और ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हैं एवं धर्मशास्त्रों के पारगामी हैं- अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, भिक्षु ! यह सर्वकामिक एवं सब को अभीष्ट अन्न उन्हीं को देना है। सूत्र - ९७१-९७२ वहाँ इस प्रकार याजक के द्वारा इन्कार किए जाने पर उत्तम अर्थ की खोज करनेवाला वह महामुनि न क्रुद्ध हुए, न प्रसन्न हुए । न अन्न के लिए, न जल के लिए, न जीवन-निर्वाह के लिए, किन्तु उन के विमोक्षण के लिए मुनि ने कहासूत्र - ९७३-९७४ तू वेद के मुख को नहीं जानता है और न यज्ञों को, नक्षत्रों और धर्मों का जो मुख है, उसे ही जानता है । जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हें भी तू नहीं जानता है। यदि जानता है, तो बता । सूत्र- ९७५-९७७ उसके आक्षेपों का अर्थात उत्तर देने में असमर्थ ब्राह्मण ने अपनी समग्र परिषद के साथ हाथ जोडकर उस महामुनि से पूछा-तुम कहो-वेदों का मुख क्या है ? यज्ञों का, नक्षत्रों का और धर्मों का जो मुख है, उसे भी कहिए । और अपना तथा दूसरों का उद्धार करने में जो समर्थ हैं, वे भी बतलाओ। ____ मुझे यह सब संशय है । हे साधु ! मैं पूछता हूँ, आप बताइए । सूत्र - ९७८-९७९ जयघोष मुनि- वेदों का मुख अग्नि-होत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र है और धर्मों का मुख काश्यप (ऋषभदेव) है ।जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चन्द्र की वन्दना तथा नमस्कार करते हए स्थित है, वैसे ही भगवान ऋषभदेव हैं। सूत्र- ९८० विद्या ब्राह्मण की सम्पदा है, यज्ञवादी इस से अनभिज्ञ हैं, वे बाहरमें स्वाध्याय और तप से वैसे ही आच्छादित हैं, जैसे कि अग्नि राख से ढंकी हई होती है। सूत्र - ९८१ जिसे लोकमें कुशलपुरुषोने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं सूत्र- ९८२ जो प्रिय स्वजनादि के आने पर आसक्त नहीं होता और जाने पर शोक नहीं करता है । जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 77 Page 77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - ९८३ कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए जातरूप-सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग से, द्वेष से और भय से मुक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८४ जो तपस्वी है, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित हो गया है। जो सुव्रत है, शांत है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८५ जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९८६ जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८७ जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या अधिक अदत्त नहीं लेता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८८- ९८९ जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९९० जो रसादि में लोलुप नहीं है, निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, गृह त्यागी है, अकिंचन है, गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९९१ उस दुःशील को पशुबंध के हेतु सर्व वेद और पाप कर्मों से किए गए यज्ञ बचा नहीं सकते, क्योंकि कर्म बलवान् है। सूत्र - ९९२-९९४ केवल सिर मुँडाने से कोई श्रमण नहीं होता है, ओम् का जप करने से ब्राह्मण नहीं होता है, अरण्य में रहने मुनि नहीं होता है, कुश का बना जीवर पहनने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता है । समभाव से श्रमण होता है । ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है। ज्ञान से मुनि होता है । तप से तपस्वी होता है । कर्म से ब्राह्मण होता है। कर्म से क्षत्रिय होता है। कर्म से वैश्य होता है। कर्म से ही शूद्र होता है।" सूत्र - ९९५ अर्हत् ने इन तत्त्वों का प्ररूपण किया है। इनके द्वारा जो साधक स्नातक होता है, सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९९६ इस प्रकार जो गुण-सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं । सूत्र - ९९७ इस प्रकार संशय मिट जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने महामुनि जयघोष की वाणी को सम्यक्रूप से स्वीकार किया । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 78 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - ९९८ - १००० संतुष्ट हुए विजयघोष ने हाथ जोड़कर कहा- तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा उपदेश दिया है। तुम यज्ञों के यष्टा हो, वेदों को जाननेवाले विद्वान् हो, ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हो, धर्मों के पारगामी हो । अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हो। अतः भिक्षुश्रेष्ठ! भिक्षा स्वीकार कर हम पर अनुग्रह करो। सूत्र - १००१ मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है । हे द्विज ! शीघ्र ही अभिनिष्क्रमण कर । ताकि भय के आवर्तों वाले संसार सागर में तुझे भ्रमण न करना पड़े । सूत्र - २००२ भोगों में कर्म का उपलेप होता है। अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता है। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी उससे विप्रमुक्त हो जाता है। सूत्र - १००३-२००४ एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके गये । वे दोनों दिवार पर गिरे । जो गीला था, वह वहीं चिपक गया । इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और काम भोगों में आसक्त है, वे विषयों में चिपक जाते हैं। विरक्त साधु सूखे गोले की भाँति नहीं चिपकते हैं ।" - सूत्र - २००५ इस प्रकार विजयघोष, जयघोष अनगार के समीप, अनुत्तर धर्म को सुनकर दीक्षित हो गया । सूत्र १००६ जयघोष और विजयघोषने संयम और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की। - ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन- २५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण - मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२६-सामाचारी सूत्र-१००७ सामाचारी सब दुःखों से मुक्त कराने वाली है, जिसका आचरण करके निर्ग्रन्थ संसार सागर को तैर गए हैं। उस सामाचारी का मैं प्रतिपादन करता हूँसूत्र - १००८-१०१० पहली आवश्यकी, दूसरी नैषेधिकी, तीसरी आपृच्छना, चौथी प्रतिपृच्छना, पाँचवी छन्दना, छट्ठी इच्छाकार, सातवीं मिथ्याकार, आठवीं तथाकार नौवीं अभ्युत्थान और दसवीं उपसंपदा है। इस प्रकार ये दस अंगो वाली साधुओं की सामाचारी प्रतिपादन की गई है। सूत्र-१०११-१०१३ (१) बाहर निकलते समय "आवस्सई' कहना, 'आवश्यकी' सामाचारी है । (२) प्रवेश करते समय 'निस्सिहियं'' कहना 'नैषेधिकी' सामाचारी है । (३) अपने कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना, 'आपृच्छना' सामाचारी है । (४) दूसरों के कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना प्रतिपृच्छना' सामाचारी है। (५) पूर्वगृहीत द्रव्यों के लिए आमन्त्रित करना, 'छन्दना' सामाचारी है । (६) कार्य करने के लिए दूसरों को उनकी इच्छानुकूल विनम्र निवेदन करना, 'इच्छाकार' सामाचारी है । (७) दोष निवृत्ति के लिए आत्मनिन्दा 'मिथ्याकार' सामाचारी है। (८) गुरुजनों के उपदेश को स्वीकार करना, 'तथाकार' सामाचारी है। (९) गुरुजनों की पूजा के लिए आसन से उठकर खड़ा होना, 'अभ्युत्थान' सामाचारी है । (१०) प्रयोजन से दूसरे आचार्य के पास रहना, 'उपसम्पदा' सामाचारी है। इस प्रकार दशांग-सामाचारी का निरूपण किया गया सूत्र-१०१४-२०१६ सूर्योदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में उपकरणों का प्रतिलेखन कर गुरु को वन्दना कर हाथ जोड़कर पूछे कि-अब मुझे क्या करना चाहिए ? भन्ते ! मैं चाहता हूँ, मुझे आप आज स्वाध्याय में नियुक्त करते हैं, अथवा वैयावृत्य मैं । वैयावृत्य में नियुक्त किए जाने पर ग्लानि से रहित होकर सेवा करे । अथवा सभी दुःखों से मुक्त करने वाले स्वाध्याय में नियुक्त किए जाने पर ग्लानि से रहित होकर स्वाध्याय करे । सूत्र - १०१७-१०१८ विचक्षण भिक्ष दिन के चार भाग करे । उन चारों भागों में स्वाध्याय आदि गुणों की आराधना करे । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे । सूत्र - १०१९-१०२१ आषाढ़ महीने में द्विपदा पौरुषी होती है । पौष महीने में चतुष्पदा और चैत्र एवं आश्वीन महीने में त्रिपदा पौरुषी होती है । सात रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक मास में चार अंगुल की वृद्धि और हानि होती है। आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख के कृष्ण पक्ष में एक-एक अहोरात्रि का क्षय होता है । सूत्र-१०२२ जेष्ठ, आषाढ़ और श्रावण में छह अंगुल, भाद्रपद, आश्वीन और कार्तिक में आठ अंगुल तथा मृगशिर, पौष और माघ-में दस अंगुल और फाल्गुन, चैत्र, वैसाख में आठ अंगुल की वृद्धि करने से प्रतिलेखन का पौरुषी समय होता है। सूत्र-१०२३-१०२४ विचक्षण भिक्षु रात्रि के भी चार भाग करे । उन चारों भागों में उत्तर-गुणों की आराधना करे । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १०२५-१०२६ जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह जब आकाश के प्रथम चतुर्थ भाग में आ जाता है, तब वह 'प्रदोषकाल' होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जाना चाहिए । वही नक्षत्र जब आकाश के अन्तिम चतुर्थ भाग में आता है, तब उसे वैरात्रिक काल' समझकर मुनि स्वाध्याय में प्रवृत्त हो। सूत्र - १०२७-१०२८ दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में पात्रादि उपकरणों का प्रतिलेखन कर, गुरु को वन्दना कर, दुःख से मुक्त करने वाला स्वाध्याय करे । पौन पौरुषी बीत जाने पर गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण किए बिना ही भाजन का प्रतिलेखन करे । सूत्र - १०२९-१०३० मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर गोच्छग का प्रतिलेखन करे । अंगुलियों से गोच्छग को पकड़कर वस्त्र का प्रतिलेखन करे । सर्वप्रथम ऊकडू आसन से बैठे, फिर वस्त्र को ऊंचा रखे, स्थिर रखे और शीघ्रता किए बिना उसका प्रतिलेखन करे । दूसरे में वस्त्र को धीरे से झटकाए और तीसरे में वस्त्र का प्रमार्जन करे। सूत्र-१०३१ प्रतिलेखन के समय वस्त्र या शरीर को न नचाए, न मोड़े, वस्त्र को दृष्टि से अलक्षित न करे, वस्त्र का दिवार आदि से स्पर्श न होने दे। वस्त्र के छह पूर्व और नौ खोटक करे। जो कोई प्राणी हो, उसका विशोधन करे। सूत्र - १०३२-१०३३ प्रतिलेखन के दोष-(१) आरभटा-निर्दिष्ट विधि से विपरीत प्रतिलेखन करना । (२) सम्मा -प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस तरह पकड़ना कि उसके कोने हवा में हिलते रहें । (३) मोसली-प्रतिलेखन करते हुए वस्त्र को ऊपर-नीचे, इधर-उधर किसी अन्य वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करते रहना । (४) प्रस्फोटना-धूलिधूसरित वस्त्र को जोर से झटकना । (५) विक्षिप्ता-प्रतिलेखित वस्त्र को अप्रतिलेखित वस्त्रों में रख देना । (६) वेदिकाप्रतिलेखना करते हुए घुटनों के ऊपर-नीचे या दोनों भुजाओं के बीच में घुटनों को रखना । (७) प्रशिथिल-वस्त्र को ढीला पकड़ना । (८) प्रलम्ब-वस्त्र को इस तरह पकड़ना कि उसके कोने नीचे लटकते रहें। (९) लोल-प्रतिलेख्यमान वस्त्र का भूमि से या हाथ से संघर्षण करना । (१०) एकामर्शा-वस्त्र को बीच में से पकड़ कर एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख जाना । (११) अनेकरूपधूनना-वस्त्र को अनेक बार झटकना । (१२) प्रमाणप्रमाद-प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण है, उसमें प्रमाद करना । (१३) गणनोपगणना -प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शंका के कारण हाथ की अंगुलियों की पर्व रेखाओं से गिनती करना। सूत्र- १०३४ प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून, अनतिरिक्त तथा अविपरीत प्रतिलेखना ही शुद्ध होती है । उक्त तीन विकल्पों के आठ विकल्प होते हैं, उनमें प्रथम विकल्प ही शुद्ध है सूत्र - १०३५-१०३६ प्रतिलेखन करते समय जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद कथा करता है, प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है-वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-छहों कायों का विराधक होता है । प्रतिलेखन में अप्रमत्त मुनि छहों कायों का आराधक होता है । सूत्र-१०३७-१०३८ छह कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर तीसरे प्रहर में भक्तपान की गवेषणा करे । क्षुधावेदना की शान्ति, वैयावृत्य, ईर्यासमिति के पालन, संयम, प्राणों की रक्षा और धर्मचिंतन के लिए भक्तपान की गवेषणा करे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १०३९-१०४० घृति-सम्पन्न साधु और साध्वी इन छह कारणों से भक्त-पान की गवेषणा न करे, जिससे संयम का अतिक्रमण न हो । रोग होने पर, उपसर्ग आने पर, ब्रह्मचर्य गुप्ति की सुरक्षा, प्राणियों की दया, तप और शरीरविच्छेद के लिए मुनि भक्त-पान की गवेषणा न करे। सूत्र-१०४१ सब उपकरणों का आँखों से प्रतिलेखन करे और उन्हें लेकर आवश्यक हो, तो दूसरे गाँव में मुनि आधे योजन की दूरी तक भिक्षा के लिए जाए । सूत्र- १०४२-१०४३ चतुर्थ प्रहर में प्रतिलेखना कर सभी पात्रों को बाँध कर रख दे । उसके बाद जीवादि सब भावों का प्रकाशक स्वाध्याय करे । पौरुषी के चौथे भाग में गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर शय्या का प्रतिलेखन करे। सूत्र-१०४४-१०४८ दैवसिक-प्रतिक्रमण-यतना में प्रयत्नशील मुनि फिर प्रस्रवण और उच्चार-भूमिका प्रतिलेखन करे । उसके बाद सर्व दःखों से मक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्बन्धित दिवस-सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे । कायोत्सर्ग को पूर्ण करके गुरु को वन्दना करे । तदनन्तर अनुक्रम में दिवससम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करे। प्रतिक्रमण कर, निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे । उसके बाद सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग पूरा करके गुरु को वन्दना करे । फिर स्तुतिमंगल करके काल का प्रतिलेखन करे । सूत्र - १०४९-१०५० रात्रिक कृत्य एवं प्रतिक्रमण-प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे । चौथे प्रहर में कालका प्रतिलेखन कर, असंयत व्यक्तियों को न जगाता हआ स्वाध्याय करे। सूत्र - १०५१-१०५४ चतुर्थ प्रहर के चौथे भाग में गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर, काल का प्रतिलेखन करे । सबः दुःखों से मुक्त करने वाले कायोत्सर्ग का समय होने पर सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सम्बन्धित रात्रि-सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे । कायोत्सर्ग को पूरा कर, गुरु को वन्दना करे । फिर अनुक्रम से रात्रिसम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करे । सूत्र - १०५५-१०५७ प्रतिक्रमण कर, निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे । तदनन्तर सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चिन्तन करे कि ''मैं आज किस तप को स्वीकार करूँ ।' कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे । कायोत्सर्ग पूरा होने पर गुरु को वन्दना करे । उसके बाद यथोचित तप को स्वीकार कर सिद्धों की स्तुति करे। सूत्र-१०५८ संक्षेप में यह सामाचारी कही है। इसका आचरण कर बहुत से जीव संसारसागर को तैर गये हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२७-खलुंकीय सूत्र-१०५९ गर्ग कुल में उत्पन्न 'गार्ग्य' मुनि स्थविर, गणधर और विशारद थे, गुणों से युक्त थे । गणि-भाव में स्थित और समाधि में अपने को जोड़े हुए थे । सूत्र - १०६० शकटादि वाहन को ठीक तरह वहन करने वाला बैल जैसे कान्तार को सुखपूर्वक पार करता है, उसी तरह योग में संलग्न मुनि संसार को पार कर जाता है। सूत्र-१०६१-१०६५ जो खलुंक बैलों को जीतता है, वह उन्हें मारता हुआ क्लेश पाता है, असमाधि का अनुभव करता है और अन्ततः उसका चाबुक भी टूट जाता है । वह क्षुब्ध हुआ वाहक किसी की पूँछ काट देता है, तो किसी को बार-बार बींधता है। उन बैलों में से कोई एक समिला तोड़ देता है, तो दूसरा उन्मार्ग पर चल पड़ता है । कोई मार्ग के एक पार्श्व में गिर पड़ता है, कोई बैठ जाता है, कोई लेट जाता है । कोई कूदता है, कोई उछलता है, तो कोई शठ तरुण गाय के पीछे भागता है। कोई धूर्त बैल शिर को निढाल बनाकर भूमि पर गिरता है। कोई क्रोधित होकर प्रतिपथ में चला जाता है । कोई मृतक-सा पड़ा रहता है, तो कोई वेग से दौड़ने लगता है । कोई दुष्ट बैल रास को छिन्न-भिन्न कर देता है । दुर्दान्त होकर जुए को तोड़ देता है । और सूं-सं आवाज करके वाहन को छोडकर भाग जाता है। सूत्र-१०६६-१०६९ अयोग्य बैल जैसे वाहन को तोड़ देता है, वैसे ही धैर्य में कमजोर शिष्यों को धर्म-यान में जोतने पर वे भी उसे तोड़ देते हैं । कोई ऋद्धि-का गौरव करता है, कोई रस का गौरव करता है, कोई सुख का गौरव करता है, तो कोई चिरकाल तक क्रोध करता है । कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है, कोई अपमान से डरता है, तो कोई स्तब्ध है । हेतु और कारणों से गुरु कभी किसी को अनुशासित करता है तो-वह बीच में ही बोलने लगता है, आचार्य के वचन में दोष निकालता है । तथा बार-बार उनके वचनों के प्रतिकूल आचरण करता है। सूत्र - १०७०-१०७१ भिक्षा लाने के समय कोई शिष्य गृहस्वामिनी के सम्बन्ध में कहता है-वह मुझे नहीं जानती है, वह मुझे नहीं देगी । मैं मानता हूँ-वह घर से बाहर गई होगी, अतः इसके लिए कोई दूसरा साधु चला जाए । किसी प्रयोजनविशेष से भेजने पर वे बिना कार्य किए लौट आते हैं और अपलाप करते हैं । इधर-उधर घूमते हैं । गुरु की आज्ञा को राजा के द्वारा ली जाने वाली वेष्टि की तरह मानकर मुख पर भृकुटि तान लेते हैं। सूत्र-१०७२-१०७४ जैसे पंख आने पर हंस विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं, वैसे ही शिक्षित एवं दीक्षित किए गए, भक्त-पान से पोषित किए गए कुशिष्य भी अन्यत्र चले जाते हैं । इन से खिन्न होकर धर्मयान के सारथी आचार्य सोचते हैं मुझे इन दुष्ट शिष्यों से क्या लाभ ? इनसे तो मेरी आत्मा अवसन्न ही होती है । जैसे गलिगर्दभ होते हैं, वैसे ही ये मेरे शिष्य हैं।' यह विचार कर गर्गाचार्य गलिगर्दभरूप शिष्यों को छोडकर दढता से तपसाधना में लग गए। सूत्र-१०७५ वह मृदु और मार्दव से सम्पन्न, गम्भीर, सुसमाहित और शील-सम्पन्न महान् आत्मा गर्ग पृथ्वी पर विचरने लगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 83 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२८-मोक्षमार्गगति सूत्र - १०७६ ज्ञानादि चार कारणों से युक्त, ज्ञानदर्शन लक्षण स्वरूप, जिनभाषित, सम्यक् मोक्ष-मार्ग की गति को सुनो सूत्र - १०७७-१०७८ वरदर्शी जिनवरों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बतलाया है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के मार्ग पर आरूढ हए जीव सदगति को प्राप्त करते हैं। सूत्र-१०७९-१०८० उन में ज्ञान पाँच प्रकार का है-श्रृत ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनो ज्ञान और केवल ज्ञान । यह पाँच प्रकार का ज्ञान सब द्रव्य, गुण और पर्यायों का ज्ञान है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। सूत्र-१०८१ द्रव्य गुणों का आश्रय है, जो प्रत्येक द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण होते हैं । पर्यायों का लक्षण द्रव्य और गुणों के आश्रित रहना है। सूत्र - १०८२ वरदर्शी जिनवरों ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-यह छह द्रव्यात्मक लोक कहा है। सूत्र - १०८३ धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं । काल, पुद्गल और जीव-ये तीनों द्रव्य अनन्त-अनन्त हैं। सूत्र - १०८४-१०८५ गति धर्म का लक्षण है, स्थिति अधर्म का लक्षण है, सभी द्रव्यों का भाजन अवगाहलक्षण आकाश है। वर्तना काल का लक्षण है । उपयोग जीव का लक्षण है, जो ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से पहचाना जाता है। सूत्र - १०८६-१०८८ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग-ये जीव के लक्षण हैं । शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श-ये पुद्गल के लक्षण हैं । एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभागये पर्यायों के लक्षण हैं। सूत्र - १०८९-१०९० जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ तत्त्व हैं । इन तथ्यस्वरूप भावों के सद्भाव के निरूपण में जो भावपूर्वक श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं। सूत्र-१०९१ सम्यक्त्व के दस प्रकार हैं- निसर्ग-रुचि, उपदेश-रुचि, आज्ञा-रुचि, सूत्र-रुचि, बीज-रुचि, अभिगम-रुचि, विस्तार-रुचि, क्रिया-रुचि, संक्षेप-रुचि और धर्म-रुचि । सूत्र - १०९२-१०९३ परोपदेश के बिना स्वयं के ही यथार्थ बोध से अवगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और संवर आदि तत्त्वों की जो रुचि है, वह निसर्ग रुचि' है । जिन दृष्ट भावों में, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशिष्ट पदार्थों के विषय में- यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है'-ऐसी जो स्वतः स्फूर्त श्रद्धा है, वह निसर्गरुचि' है। सूत्र - १०९४ जो अन्य छद्मस्थ अथवा अर्हत् के उपदेश से जीवादि भावों में श्रद्धान् करता है, वह 'उपदेशरुचि' जानना मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 84 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-१०९५ राग, द्वेष, मोह और अज्ञान जिसके दूर हो गये हैं, उसकी आज्ञा में रुचि रखना, 'आज्ञा रुचि है। सूत्र - १०९६ जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करता हुआ श्रुत से सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है, वह 'सूत्ररुचि' जानना। सूत्र- १०९७ जैसे जल में तेल की बूंद फैल जाती है, वैसे ही जो सम्यक्त्व एक पद से अनेक पदों में फैलता है, वह 'बीजरुचि है। सूत्र-१०९८ जिसने ग्यारह अंग, प्रकीर्णक, दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान अर्थ-सहित प्राप्त किया है, वह अभिगमरुचि' है। सूत्र-१०९९ समग्र प्रमाणों और नयों से जो द्रव्यों के सभी भावों को जानता है, वह विस्ताररुचि' है। सूत्र-११०० दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्ति आदि क्रियाओं में जो भाव से रुचि है, वह 'क्रियारुचि' है। सूत्र-११०१ जो निर्ग्रन्थ-प्रवचन में अकुशल है, साथ ही मिथ्या प्रवचनों से भी अनभिज्ञ है, किन्तु कुदृष्टि का आग्रह न होने के कारण अल्प-बोध से ही जो तत्त्व श्रद्धा वाला है, वह संक्षेपरुचि है। सूत्र-११०२ जिन-कथित अस्तिकाय धर्म में, श्रुत-धर्म में और चारित्र-धर्म में श्रद्धा करता है, वह धर्मरुचि' वाला है। सूत्र - ११०३ परमार्थ को जानना, परमार्थ के तत्वद्रष्टाओं की सेवा करना, व्यापन्नदर्शन और कुदर्शन से दूर रहना, सम्यक्त्व का श्रद्धान् है। सूत्र - ११०४-११०५ चारित्र सम्यक्त्व के बिना नहीं होता है, किन्तु सम्यक्त्व चारित्र के बिना हो सकता है। सम्यक्त्व और चारित्र युगपद्-एक साथ ही होते हैं । चारित्र से पूर्व सम्यक्त्व का होना आवश्यक है। सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता है, ज्ञान के बिना चारित्र-गुण नहीं होता है । चारित्र-गुण के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता है। सूत्र - ११०६ निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ-दृष्टि उपबंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना-ये आठ सम्यक्त्व के अंग हैं। सूत्र-११०७-११०८ चारित्र के पाँच प्रकार हैं सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और-पाँचवाँ यथाख्यात चारित्र है, जो सर्वथा कषायरहित होता है । वह छद्मस्थ और केवली-दोनों को होता है। ये चारित्र कर्म के चय को रिक्त करते हैं, अतः इन्हें चारित्र कहते हैं । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 35 Page 85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-११०९ ___ तप के दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकार का है, इसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है। सूत्र-१११० आत्मा ज्ञान से जीवादि भावों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्म-आश्रव का निरोध करता है, और तप से विशुद्ध होता है। सूत्र - ११११ सर्व दुःखों से मुक्त होने के लिए महर्षि संयम और तप द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२९-सम्यक्त्वपराक्रम सूत्र - १११२ आयुष्यमन् ! भगवान ने जो कहा है, वह मैंने सुना है । इस 'सम्यक्त्व पराक्रम' अध्ययन में काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने जो प्ररूपणा की है, उसकी सम्यक् श्रद्धा से, प्रतीति से, रुचि से, स्पर्श से, पालन करने से, गहराई पूर्वक जानने से, कीर्तन से, शुद्ध करने से, आराधना करने से, आज्ञानुसार अनुपालन करने से बहुत से जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, सब दुःखों का अन्त करते हैं । सूत्र - १११३ उसका यह अर्थ है, जो इस प्रकार कहा जाता है । जैसे कि-संवेग, निर्वेद, धर्म श्रद्धा, गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा, आलोचना, निन्दा, गर्दा, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, स्तव-स्तुति-मंगल, कालप्रतिलेखना, प्रायश्चित्त, क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना, प्रतिप्रच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, श्रुत आराधना, मन की एकाग्रता, संयम, तप, व्यवदान, सुखशात, अप्रतिबद्धता, विविक्त शयनासन सेवन, विनिवर्तना, संभोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, आहार-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, योगप्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, सहाय-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, सद्भाव-प्रत्याख्यान, प्रतिरूपता, वैयावृत्य, सर्वगुण-संपन्नता, शान्ति, निर्लोभता, आर्जव-ऋजुता, मार्दव-मृदुता, भाव-सत्य, करण-सत्य, योग-सत्य, मनोगुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति, मनःसमाधारणा, वाक्-समाधारणा, काय-समाधारणा, ज्ञानसंपन्नता, दर्शनसंपन्नता, चारित्र-संपन्नता, श्रोत्र-इन्द्रियनिग्रह, चक्षुष-इन्द्रियनिग्रह, घ्राण-इन्द्रियनिग्रह, जिह्वा -इन्द्रियनिग्रह, स्पर्शन-इन्द्रिय निग्रह, क्रोधविजय, मानविजय, मायाविजय, लोभविजय, प्रेम-द्वेष-मिथ्यादर्शन विजय, शैलेशी और अकर्मता। सूत्र-१११४ भन्ते ! संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है ? संवेग से जीव अनुत्तर-परम धर्म-श्रद्धा को प्राप्त होता है । परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग आता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है । नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है । मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन का आराधक होता है । दर्शनविशोधि के द्वारा कईं जीव उसी जन्म से सिद्ध होते हैं । और कुछ तीसरे भवका अतिक्रमण नहीं करते हैं। सूत्र-१११५ भन्ते ! निर्वेद से जीव को क्या प्राप्त होता है ? निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यंच-सम्बन्धी काम-भोगों में शीघ्र निर्वेद को प्राप्त होता है । सभी विषयों में विरक्त होता है । आरम्भ का परित्याग करता है । आरम्भ का परित्याग कर संसार-मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि मार्ग को प्राप्त होता है। सूत्र-१११६ भन्ते ! धर्म-श्रद्धा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? धर्मश्रद्धा से जीव सात-सुख कर्मजन्य वैषयिक सुखों की आसक्ति से विरक्त होता है । अगार-धर्म को छोड़ता है । अनगार होकर छेदन, भेदन आदि शारीरिक तथा संयोगादि मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है, अव्याबाध सुख को प्राप्त होता है। सूत्र-१११७ भन्ते ! गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय-प्रतिपत्ति को प्राप्त होता है । विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवादादिरूप आशातना नहीं करता । उससे वह नैरयिक, तिर्यग, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है । वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान से मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति का बन्ध करता है । और श्रेष्ठगतिस्वरूप सिद्धि को विशुद्ध करता है। विनयमूलक सभी प्रशस्त कार्यों को साधता है। बहुत से अन्य जीवों को भी विनयी बनाने वाला होता है। सूत्र - १११८ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक भन्ते ! आलोचना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? आलोचना से मोक्षमार्ग में विघ्न डालनेवाले और अनन्त संसार को बढ़ानेवाले माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप शल्यों को निकाल फेंकता है । ऋजुभाव को प्राप्त होता है । जीव माया-रहित होता है । अतः वह स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध की निर्जरा करता है सूत्र - १११९ भन्ते ! निन्दा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? निन्दा से पश्चात्ताप प्राप्त होता है । पश्चात्ताप से होने वाली विरक्ति से करण-गुण-श्रेणि प्राप्त होती है । अनगार मोहनीय कर्म को नष्ट करता है। सूत्र-११२० भन्ते ! गर्दा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? गर्दा से जीव को अपुरस्कार प्राप्त होता है । अपुरस्कृत होने से वह अप्रशस्त कार्यों से निवृत्त होता है। प्रशस्त कार्यों से युक्त होता है। ऐसा अनगार ज्ञान-दर्शनादि अनन्त गुणों का घात करनेवाले ज्ञानावरणादि कर्मों के पर्यायों का क्षय करता है। सूत्र- ११२१ भन्ते! सामायिक से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सामायिक से जीव सावध योगों से-विरति पाता है। सूत्र-११२२ भन्ते! चतुर्विंशति स्तव से जीव को क्या प्राप्त होता है ? चतुर्विंशति स्तव से जीव दर्शन-विशोधि पाता है । सूत्र - ११२३ भन्ते ! वन्दना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वन्दना से जीव नीचगोत्र कर्म का क्षय करता है । उच्च गोत्र का बन्ध करता है । वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त कर सर्वजनप्रिय होता है। उसकी आज्ञा सर्वत्र मानी जाती है। वह जनता से दाक्षिण्य को प्राप्त होता है। सूत्र - ११२४ भन्ते ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रतिक्रमण से जीव स्वीकृत व्रतों के छिद्रों को बंद करता है । आश्रवों का निरोध करता है, शुद्ध चारित्र का पालन करता है, समिति-गुप्ति रूप आठ प्रवचनमाताओं के आराधन में सतत उपयुक्त रहता है, संयम-योग में अपृथक्त्व होता है और सन्मार्ग में सम्यक् समाधिस्थ होकर विचरण करता है। सूत्र- ११२५ भन्ते ! कायोत्सर्ग से जीव को क्या प्राप्त होता है ? कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्तयोग्य अतिचारों का विशोधन करता है। अपने भार को हटा देनेवाले भार-वाहक की तरह निर्वतहृदय हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है। सूत्र- ११२६ भन्ते! प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है? प्रत्याख्यान से जीव आश्रवद्वारों का निरोध करता है। सूत्र-११२७ भन्ते ! स्तवस्ततिमंगल से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्तव-स्तति मंगल से जीव को ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप बोधि का लाभ होता है । ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप बोधि से संपन्न जीव अन्तक्रिया के योग्य अथवा वैमानिक देवों में उत्पन्न होने के योग्य आराधना करता है। सूत्र-११२८ भन्ते ! काल की प्रतिलेखना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? काल की प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 88 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन / सूत्रांक सूत्र- ११२९ भन्ते ! प्रायश्चित्त से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रायश्चित्त से जीव पापकर्मों को दूर करता है और धर्मसाधना को निरतिचार बनता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने वाला साधक मार्ग और मार्ग फल को निर्मल करता है । आचार और आचारफल की आराधना करता है । सूत्र - ११३० भन्ते ! क्षामणा करने से जीव को क्या प्राप्त होता है ? क्षमापना करने से जीव प्रह्लाद भाव को प्राप्त होता है । प्रह्लाद भाव सम्पन्न साधक सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के साथ मैत्रीभाव को प्राप्त होता है । मैत्रीभाव को प्राप्त जीव भाव विशुद्धि कर निर्भय होता है। सूत्र - ११३१ भन्ते ! स्वाध्याय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है । सूत्र - ११३२ भन्ते ! वाचना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुत ज्ञान की आशातना के दोष से दूर रहता है । तीर्थ धर्म का अवलम्बन करता है - तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है। सूत्र - ११३३ भन्ते ! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रतिपृच्छना से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय-दोनों से सम्बन्धित काक्षामोहनीय का निराकरण करता है । सूत्र - ११३४ भन्ते ! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? परावर्तना से व्यंजन स्थिर होता है और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजन-लब्धि को प्राप्त होता है। सूत्र - ११३५ भन्ते! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है? अनुप्रेक्षा से जीव आयुष् कर्म छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्म प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल करता है । उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है । उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है। बहुकर्म प्रदेशों को अल्प प्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष् कर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं असातवेदनीय कर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता है। जो संसार अटवी अनादि एवं अनवदग्र है, दीर्घमार्ग युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त हैं, उसे शीघ्र पार करता है। सूत्र- १९३६ I भन्ते ! धर्मकथा से जीव को क्या प्राप्त होता है? धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन की प्रभावना करता है । प्रवचन की प्रभावना करनेवाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले कर्मों का बन्ध करता है सूत्र - ११३७ भन्ते ! श्रुत की आराधना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? श्रुत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है और क्लेश को प्राप्त नहीं होता है। सूत्र- ११३८ भन्ते ! मन को एकाग्रता में संनिवेशन करने से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मन को एकाग्रता में स्थापित करने से चित्त का निरोध होता है । सूत्र- ११३९ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 89 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन अध्ययन / सूत्रांक भन्ते ! संयम से जीव को क्या प्राप्त होता है ? संयम से आश्रव के निरोध को प्राप्त होता है । सूत्र - ११४० भन्ते! तप से जीव को क्या प्राप्त होता है ? तप से जीव पूर्व संचित कर्मों का क्षय करके व्यवदान को प्राप्त होता है। सूत्र - ११४१ भन्ते ! व्यवदान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? व्यवदान से जीव को अक्रिया प्राप्त होती है । अक्रिय होने से वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है, सब दुःखों का अन्त करता है । सूत्र - ११४२ भन्ते ! वैषयिक सुखों की स्पृहा के निवारण से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सुख-शात से विषयों के प्रति अनुत्सुकता होती है । अनुत्सुकता से जीव अनुकम्पा करने वाला, अनुद्भट, शोकरहित होकर चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करता है । सूत्र- १९४३ भन्ते ! अप्रतिबद्धता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? अप्रतिबद्धता से जीव निस्संग होता है । निस्संग होने से जीव एकाकी होता है, एकाग्रचित्त होता है । दिन-रात सदा सर्वत्र विरक्त और अप्रतिबद्ध होकर विचरण करता है सूत्र १२४४ भन्ते ! विविक्त शयनासन से जीव को क्या प्राप्त होता है ? विविक्त शयनासन से जीव चारित्र की रक्षा करता है । चारित्र की रक्षा करने वाला विविक्ताहारी दृढ चारित्री, एकान्तप्रिय, मोक्ष भाव से संपन्न जीव आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थि का निर्जरण करता है । - सूत्र १९४५ भन्ते ! विनिवर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? विनिवर्तना से मन और इन्द्रियों को विषयों से अलग रखने की साधना से जीव पाप कर्म न करने के लिए उद्यत रहता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा से कर्मों को निवृत्त करता है । चार अन्तवाले संसार कान्तार को शीघ्र ही पार कर जाता है । सूत्र - ११४६ भन्ते ! सम्भोग के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सम्भोग (एक-दूसरे के साथ सहभोजन आदि के संपर्क) के प्रत्याख्यान से परावलम्बन से निरालम्ब होता है । निरालम्ब होने से उसके सारे प्रयत्न आयतार्थ हो जाते हैं । स्वयं के उपार्जित लाभ से सन्तुष्ट होता है । दूसरों के लाभ का आस्वादन नहीं करता है । उसकी कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना, अभिलाषा नहीं करता है । इस प्रकार दूसरी सुख-शय्या को प्राप्त होकर विहार करता है । सूत्र - ११४७ भन्ते ! उपधि के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? उपधि प्रत्याख्यान से जीव निर्विघ्न स्वाध्याय प्राप्त होता है । उपधिरहित जीव आकांक्षा से मुक्त होकर उपधि के अभाव में क्लेश को प्राप्त नहीं होता है । सूत्र - ११४८ भन्ते ! आहार के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? आहार के प्रत्याख्यान से जीव जीवन की आशंसा के प्रयत्नों को विच्छिन्न कर देता है । जीवन की कामना के प्रयत्नों को छोड़कर वह आहार के अभाव में भी क्लेश को प्राप्त नहीं होता है। सूत्र- १९४९ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 90 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक भन्ते ! कषाय के प्रत्याख्यान-से जीव को क्या प्राप्त होता है ? कषाय के प्रत्याख्यान से वीतरागभाव को प्राप्त होता है। वीतरागभाव को प्राप्त जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है। सूत्र - ११५० भन्ते ! योग-प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मन, वचन, काय से सम्बन्धित योग-प्रत्याख्यान से अयोगत्व को प्राप्त होता है । अयोगी जीव नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र-११५१ भन्ते ! शरीर प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? शरीर के प्रत्याख्यान से जीव सिद्धों के विशिष्ट गुणों को प्राप्त होता है । सिद्धों के विशिष्ट गुणों से सम्पन्न जीव लोकाग्र में पहुँचकर परम सुख को प्राप्त होता है। सूत्र - ११५२ भन्ते! सहाय-प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सहाय-प्रत्याख्यान से जीव एकीभाव को प्राप्त होता है। एकीभाव प्राप्त साधक एकाग्रता भावना करता हुआ विग्रहकारी शब्द, वाक्कलह झगड़ा-टंटा, क्रोधादि कषाय तथा तू, तू, मैं, मैं आदि से मुक्त रहता है । संयम और संवर में व्यापकता प्राप्त कर समाधिसम्पन्न होता है। सूत्र-११५३ भन्ते ! भक्त प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? भक्त-प्रत्याख्यान से जीव अनेक प्रकार के सैकडों भवों का, जन्म-मरणों का निरोध करता है। सूत्र - ११५४ भन्ते ! सद्भाव प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सद्भाव प्रत्याख्यान से जीव अनिवृत्ति को प्राप्त होता है । अनिवृत्ति को प्राप्त अनगार केवली के शेष रहे हुए वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-इन चार भवोपनाही कर्मों का क्षय करता है।। वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है, सर्व दुःखों का अन्त करता है सूत्र-११५५ भन्ते ! प्रतिरूपता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रतिरूपता से-जिनकल्प जैसे आचार के पालन से जीव उपकरणों की लघुता को प्राप्त होता है । लघुभूत होकर जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंगवाला, प्रशस्त लिंगवाला, विशुद्ध सम्यक्त्व से सम्पन्न, सत्त्व और समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय, अल्प प्रतिलेखनवाला, जितेन्द्रिय, विपुलतप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करनेवाला होता है। सूत्र-११५६ भन्ते ! वैयावृत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है? वैयावत्य से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्र को उपार्जता है। सूत्र - ११५७ भन्ते ! सर्वगुणसंपन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? सर्वगुणसंपन्नता से जीव अपुनरावृत्ति को प्राप्त होता है । वह जीव शारीरिक और मानसिक दुःखों का भागी नहीं होता है। सूत्र-११५८ भन्ते ! वीतरागता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वीतरागता से जीव स्नेह और तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद करता है। मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से विरक्त होता है। सूत्र - ११५९ भन्ते ! क्षान्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है? क्षान्ति से जीव परीषहों पर विजय प्राप्त करता है। सूत्र - ११६० मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक भन्ते ! मुक्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मुक्ति से जीव अकिंचनता को प्राप्त होता है । अकिंचन जीव अर्थ के लोभी जनों से अप्रार्थनीय हो जाता है। सूत्र - ११६१ भन्ते ! ऋजुता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? ऋजुता से जीव काय, भाव, भाषा की सरलता और अविसंवाद को प्राप्त होता है । अविसंवाद-सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है। सूत्र - ११६२ भन्ते ! मृदुता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मृदुता से जीव अनुद्धत भाव को प्राप्त होता है । अनुद्धत जीव मृदु-मार्दवभाव से सम्पन्न होता है । आठ मद-स्थानों को विनष्ट करता है। सूत्र - ११६३ भन्ते ! भाव-सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? भाव-सत्य से जीव भाव-विशुद्धि को प्राप्त होता है । भाव-विशुद्धि में वर्तमान जीव अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उद्यत होता है । अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की आराधना में उद्यत होकर परलोक में भी धर्म का आराधक होता है। सूत्र-११६४ भन्ते ! करण सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? करण सत्य से जीव करणशक्ति को प्राप्त होता है। करणसत्य में वर्तमान जीव यथावादी तथाकारी' होता है। सूत्र- ११६५ भन्ते ! योग-सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है ? योग सत्य से जीव योग को विशुद्ध करता है। सूत्र-११६६ भन्ते ! मनोगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है । एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ विकल्पों से मन की रक्षा करता है, और संयम का आराधक होता है। सूत्र - ११६७ भन्ते ! वचनगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वचनगुप्ति से जीव निर्विकार भाव को प्राप्त होता है। निर्विकार जीव सर्वथा वागगुप्त तथा अध्यात्मयोग के साधनभूत ध्यान से युक्त होता है। सूत्र - ११६८ भन्ते ! कायगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त होता है । संवर से काय गुप्त होकर फिर से होनेवाले पापाश्रव का निरोध करता है। सूत्र - ११६९ भन्ते ! मन की समाधारणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मन की समाधारणा से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है । एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञानपर्यवों को-ज्ञान के विविध तत्त्वबोधरूप प्रकारों को प्राप्त होता है। ज्ञानपर्यवों को प्राप्त होकर सम्यग-दर्शन को विशुद्ध करता है और मिथ्या दर्शन की निर्जरा करता है। सूत्र - ११७० भन्ते ! वाक् समाधारणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? वाक् समाधारणा से जीव वाणी के विषयभूत दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करता है । वाणी के विषयभूत दर्शन के पर्यवों को विशुद्ध करके सुलभता से बोधि को प्राप्त करता है । बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता है । सूत्र-११७१ भन्ते ! काय समाधारणा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? काय समाधारणा से जीव चारित्र के पर्यवों को मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन विशुद्ध करता है | चारित्र के पर्यवों को विशुद्ध करके यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करता है । यथाख्यात चारित्र को विशुद्ध करके केवलिसत्क वेदनीय आदि चार कर्मों का क्षय करता है । उसके बाद सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है । परिनिर्वाण को प्राप्त होता है, सब दुःखों का अन्त करता है । सूत्र - ११७२-११७३ भन्ते ! ज्ञान-सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? ज्ञानसम्पन्नता से जीव सब भावों को जानता है । ज्ञान-सम्पन्न जीव चार गतिरूप अन्तों वाले संसार वन में नष्ट नहीं होता है । अध्ययन / सूत्रांक जिस प्रकार ससूत्र सुई कहीं गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र जीव भी संसार में विनष्ट नहीं होता । ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त होता है । तथा स्वसमय और परसमय में, प्रामाणिक माना जाता है । सूत्र - ११७४ भन्ते ! दर्शन सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? दर्शन सम्पन्नता से संसार के हेतु मिध्यात्व का छेदन करता है, उसके बाद सम्यक्त्व का प्रकाश बुझता नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन से आत्मा को संयोजित कर उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विचरण करता है। सूत्र - ११७५ भन्ते ! चारित्र-सम्पन्नता से जीव को क्या प्राप्त होता है ? चारित्र - सम्पन्नता से जीव शैलेशीभाव को प्राप्त होता है । शैलेशी भाव को प्राप्त अनगार चार केवलि-सत्क कर्मों का क्षय करता है । तत्पश्चात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है । - सूत्र ११७६ भन्ते ! श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । फिर शब्दनिमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र - ११७७ भन्ते ! चक्षुष्-इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? चक्षुष्-इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । फिर रूपनिमित्तक कर्म का बंध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है । सूत्र · ११७८ भन्ते ! घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । फिर गन्धनिमित्तक कर्म का बंध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र- ११७९ भन्ते ! जिह्वा-इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? जिह्वा - इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । फिर रसनिमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता है । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है । सूत्र - ११८० भन्ते ! स्पर्शन-इन्द्रिय के निग्रह से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्पर्शन-इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शो में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह करता है । फिर स्पर्श-निमित्तक कर्म का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 93 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-११८१ भन्ते ! क्रोध-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? क्रोध-विजय से जीव क्षान्ति को प्राप्त होता है । क्रोध-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्व-बद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र - ११८२ भन्ते ! मान-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मान-विजय से जीव मृदुता को प्राप्त होता है । मानवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र- ११८३ भन्ते ! माया-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मायाविजय से ऋजुता को प्राप्त होता है । मायावेदनीय कर्म का बंध नहीं करता है । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र - ११८४ भन्ते ! लोभ-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? लोभ-विजय से जीव सन्तोष-भाव को प्राप्त होता है। लोभ-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र - ११८५ भन्ते ! राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन के विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? राग, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है । आठ प्रकार की कर्म-ग्रन्थि को खोलने के लिए सर्व प्रथम मोहनीय कर्म की अट्राईस प्रकतियों का क्रमशः क्षय करता है। अनन्तर ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच, दर्शनावरणीय कर्म की नौ और अन्तराय कर्म की पाँच-इन तीनों कर्मों की प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है । तदनन्तर वह अनुत्तर, अनन्त, सर्ववस्तुविषयक, प्रतिपूर्ण, निरावरण, अज्ञानतिमिर से रहित, विशुद्ध और लोकालोक के प्रकाशक केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन को प्राप्त होता है। जब तक वह सयोगी रहता है, तब तक ऐर्या-पथिक कर्म का बन्ध होता है । वह बन्ध भी सुख-स्पर्शी है, उसकी स्थिति दो समय की है । प्रथम समय में बन्ध होता है, द्वितीय समय में उदय होता है, तृतीय समय में निर्जरा होती है। वह कर्म क्रमशः बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है, नष्ट होता है, फलतः अन्त में वह कर्म अकर्म हो जाता है। सूत्र - ११८६ केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् शेष आयु को भोगता हुआ, जब अन्तर्मुहूर्तपरिणाम आयु शेष रहती है, तब वह योग निरोध में प्रवृत्त होता है। तब 'सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति' नामक शुक्ल-ध्यान को ध्याता हुआ प्रथम मनोयोग का निरोध करता है, अनन्तर वचनयोग का निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान का निरोध करता है। श्वासोच्छ्वास का निरोध करके पाँच ह्रस्व अक्षर उच्चारण काल तक ‘समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्ति' नामक शुक्लध्यान में लीन हुआ अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करता है सूत्र-११८७ ___ उसके बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए पूर्णरूप से छोड़ता है । फिर ऋजु श्रेणि को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से बिना मोड़ लिए सीधे लोकाग्र में जाकर साकारोपयुक्त-ज्ञानोपयोगी सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है । सभी दुःखों का अन्त करता है। सूत्र - ११८८ श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ आख्यात है, प्रज्ञापित है, प्ररूपित है, दर्शित है और उपदर्शित है। -ऐसा मैं कहता हूँ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन अध्ययन / सूत्रांक अध्ययन- ३० तपोमार्गगति सूत्र - ११८९ भिक्षु राग और द्वेष से अर्जित पाप कर्म का तप के द्वारा जिस पद्धति से क्षय करता है, उस पद्धति को तुम एकाग्र मन से सुनो। सूत्र- १९९०-१९९१ प्राण वध मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन की विरति से एवं पाँच समिति और तीन गुप्ति से-सहित, कषाय से रहित, जितेन्द्रिय, निरभिमानी, निःशल्य जीव अनाश्रव होता है । सूत्र - ११९२ उक्त धर्म साधना से विपरीत आचरण करने पर राग-द्वेष से अर्जित कर्मों को भिक्षु किस प्रकार क्षीण करता है, उसे एकाग्र मन से सुनो। सूत्र - ११९३ - ११९४ किसी बड़े तालाब का जल, जल आने के मार्ग को रोकने से पहले के जल को उलीचने से और सूर्य के ताप से क्रमशः जैसे सूख जाता है उसी प्रकार संयमी के करोड़ों भवों के संचित कर्म, पाप कर्म के आने के मार्ग को रोकने पर तप से नष्ट होते हैं। सूत्र- १९९५-१९९६ वह तप दो प्रकार का है- बाह्य और आभ्यन्तर बाह्य तप छह प्रकार का है आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा है। अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, काय- क्लेश और संलीनता-यह बाह्य तप है । सूत्र - ११९७ - ११९९ अनशन तप के दो प्रकार हैं- इत्वरिक और मरणकाल । इत्वरिक सावकांक्ष होता है। मरणकाल निरवकांक्ष होता है । संक्षेप से इत्वरिक-तप छह प्रकार का है-श्रेणि, तप, धन-तप, वर्ग-तप-वर्ग-वर्ग तप और छठा प्रकीर्ण तप । इस प्रकार मनोवांछित नाना प्रकार के फल को देने वाला इत्वरिक अनशन तप जानना । सूत्र - १२०० - १२०१ कायचेष्टा के आधार पर मरणकालसम्बन्धी अनशन के दो भेद हैं-सविचार और अविचार अथवा मरणकाल अनशन के सपरिकर्म और अपरिकर्म ये दो भेद हैं । अविचार अनशन के निर्हांही और अनिर्हारी ये दो भेद भी होते हैं । दोनों में आहार का त्याग होता है । सूत्र - १२०२ संक्षेप में अवमौदर्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की अपेक्षा से पाँच प्रकार का हैं। सूत्र - १२०३ जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम-से-कम एक सिक्थ तथा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना, द्रव्य से 'ऊणोदरी' तप है । सूत्र - १२०४ - १२०७ ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, संबाध आश्रम पद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिबिर, सार्थ, संवर्त, कोट-पाडा, गली और घर-इन क्षेत्रों में तथा इसी प्रकार के दूसरे क्षेत्रों में निर्धारित क्षेत्र - प्रमाण के अनुसार भिक्षा के लिए जाना, क्षेत्र से 'ऊणोदरी' तप है । अथवा पेटा, अर्ध-पेटा, गोमूत्रिका, पतंग-वीथिका, शम्बूकावर्ता और आयतगत्वा प्रत्यागता यह छह प्रकार का क्षेत्र से 'ऊणोदरी' तप है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद Page 96 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-१२०८-१२०९ दिवस के चार प्रहर होते हैं । उन चार प्रहरों में भिक्षा का जो नियत समय है, तदनुसार भिक्षा के लिए जाना, यह काल से 'ऊणोदरी' तप है । अथवा कुछ भागन्यून तृतीय प्रहर में भिक्षा की एषणा करना, काल की अपेक्षा से 'ऊणोदरी' तप है। सूत्र- १२१०-१२११ स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत, विशिष्ट आयु और अमुक वर्ण के वस्त्र-अथवा अमुक विशिष्ट वर्ण एवं भाव से युक्त दाता से ही भिक्षा ग्रहण करना, अन्यथा नहीं-इस प्रकार की चर्या वाले मुनि को भाव से ऊणोदरी' तप है। सूत्र-१२१२ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो-जो पर्याय कथन किये हैं, उन सबसे ऊणोदरी तप करने वाला 'पर्यवचरक' होता है। सूत्र-१२१३ आठ प्रकार के गोचराग्र, सप्तविध एषणाएँ और अन्य अनेक प्रकार के अभिग्रह-भिक्षाचर्या' तप है। सूत्र-१२१४ दूध, दही, घी आदि प्रणीत (पौष्टिक) पान, भोजन तथा रसों का त्याग, ‘रसपरित्याग' तप है। सूत्र- १२१५ आत्मा को सुखावह अर्थात् सुखकर वीरासनादि उग्र आसनों का अभ्यास, 'कायक्लेश' तप है। सूत्र-१२१६ एकान्त, अनापात तथा स्त्री-पशु आदि रहित शयन एवं आसन ग्रहण करना, विविक्तशयनासन' तप है। सूत्र-१२१७-१२१८ संक्षेप में यह बाह्य तप का व्याख्यान है । अब क्रमशः आभ्यन्तर तप का निरूपण करूँगा । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-यह आभ्यन्तर तप हैं। सूत्र-१२१९ आलोचनार्ह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, 'प्रायश्चित्त' तप है। सूत्र-१२२० खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति तथा भाव-पूर्वक शुश्रूषा करना, 'विनय' तप है । सूत्र-१२२१ आचार्य आदि से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयावृत्य का यथाशक्ति आसेवन करना, 'वैयावृत्य' तप है। सूत्र - १२२२ वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा-यह पंचविध स्वाध्याय' तप है। सूत्र-१२२३ आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर सुसमाहित मुनि जो धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याता है, ज्ञानीजन उसे ही 'ध्यान' तप कहते हैं। सूत्र-१२२४ सोने, बैठने तथा खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से व्यर्थ की चेष्टा नहीं करता है, यह शरीर का व्युत्सर्ग मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' 'व्युत्सर्ग' नामक छठा तप है । अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - १२२५ जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तप का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से विमुक्त हो जाता है । - ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन ३० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 98 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३१-चरणविधि सूत्र-१२२६ जीव को सुख प्रदान करने वाली उस चरण-विधि का कथन करूँगा, जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार-सागर को तैर गए हैं। सूत्र - १२२७ साधक को एक ओर से निवृत्ति और एक ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए । असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति। सूत्र - १२२८ पाप कर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष हैं । इन दो पापकर्मों का जो भिक्षु सदा निरोध करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२२९ तीन दण्ड, तीन गौरव और तीन शल्यों का जो भिक्ष सदैव त्याग करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३० देव, तिर्यंच और मनुष्य-सम्बन्धी उपसर्गों को जो भिक्षु सदा सहन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३१ जो भिक्षु विकथाओं का, कषायों का, संज्ञाओं का और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान का सदा वर्जन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३२ जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में तथा इन्द्रिय-विषयों और क्रियाओं के परिहार में सदा यत्नशील रहता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र-१२३३ जो भिक्षु छह लेश्याओं, पृथ्वी कायं आदि छह कायों और आहार के छह कारणों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र-१२३४ पिण्डावग्रहों में, आहार ग्रहण की सात प्रतिमाओं में और सात भय-स्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र-१२३५ मद-स्थानों में, ब्रह्मचर्य की गुप्तियों में और दस प्रकार के भिक्षु-धर्मों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३६ उपासकों की प्रतिमाओं में, भिक्षुओं की प्रतिमाओं में जो भिक्ष सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३७ क्रियाओं में, जीव-समुदायों में और परमाधार्मिक देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३८ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 99 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक गाथा-षोडशक में और असंयम में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३९ ब्रह्मचर्य में, ज्ञातअध्ययनों में, असमाधि-स्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र- १२४० इक्कीस शबल दोषों में और बाईस परीषहों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता सूत्र- १२४१ सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों में, रूपाधिक अर्थात् चौबीस देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२४२ पच्चीस भावनाओं में, दशा आदि (दशाश्रुत स्कन्ध, व्यवहार और बृहत्कल्प) के २६ उद्देश्यों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२४३ २७ अनगार-गुणों में और तथैव प्रकल्प (आचारांग) के २८ अध्ययनों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२४४ २९ पापश्रुत-प्रसंगों में और ३० मोह-स्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता सूत्र - १२४५ सिद्धों के ३१ अतिशायी गुणों में, ३२ योग-संग्रहों में, तैंतीस आशातनाओं में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र-१२४६ - इस प्रकार जो पण्डित भिक्षु इन स्थानों में सतत उपयोग रखता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से मुक्त हो जाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३२-प्रमादस्थान सूत्र-१२४७ अनन्त अनादि काल से सभी दुःखों और उनके मूल कारणों से मुक्ति का उपाय मैं कह रहा हूँ। उसे पूरे मन से सुनो । वह एकान्त हितरूप है, कल्याण के लिए है। सूत्र - १२४८ सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह की परिहार से, राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से-जीव एकान्त सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । सूत्र- १२४९ गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्त में निवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना, धैर्य रखना, यह दुःखों से मुक्ति का उपाय है। सूत्र-१२५० अगर श्रमण तपस्वी समाधि की आकांक्षा रखता है तो वह परिमित और एषणीय आहार की इच्छा करे, तत्त्वार्थों को जानने में निपुण बुद्धिवाला साथी खोजे तथा स्त्री आदि से विवेक के योग्य-एकान्त घर में निवास करे सूत्र-१२५१ यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे । सूत्र-१२५२ जिस प्रकार अण्डे से बलाका पैदा होती है और बलाका से अण्डा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मोह का जन्म-स्थान तृष्णा है, और तृष्णा का जन्म-स्थान मोह है। सूत्र-१२५३ कर्म के बीज राग और द्वेष हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है । वह कर्म जन्म और मरण का मूल है और जन्म एवं मरण ही दुःख है। सूत्र - १२५४ उसने दुःख समाप्त कर दिया है, जिसे मोह नहीं है, उसने मोह मिटा दिया है, जिसे तृष्णा नहीं है । उसने तृष्णा नाश कर दिया है, जिसे लोभ नहीं है । उसने लोभ समाप्त कर दिया है, जिसके पास कुछ भी परिग्रह नहीं है सूत्र-१२५५ जो राग, द्वेष और मोह का मूल से उन्मूलन चाहता है, उसे जिन-जिन उपायों को उपयोग में लाना चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूँगा। सूत्र-१२५६ रसों का उपयोग प्रकाम नहीं करना । रस प्रायः मनुष्य के लिए दृप्तिकर होते हैं । विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही उत्पीड़ित करते हैं, जैसे स्वादुफल वाले वृक्ष को पक्षी । सूत्र- १२५७ जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईन्धन वाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता है, उसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि शान्त नहीं होती । ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है। सूत्र - १२५८ जो विविक्त शय्यासन से यंत्रित हैं, अल्पभोजी हैं, जितेन्द्रिय हैं, उनके चित्त को रागद्वेष पराजित नहीं कर मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सकते हैं, जैसे औषधि से पराजित व्याधि पुनः शरीर को आक्रान्त नहीं करती है । सूत्र - १२५९ जिस प्रकार बिडालों के निवास स्थान के पास चूहों का रहना प्रशस्त नहीं है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास-स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना भी प्रशस्त नहीं है। सूत्र - १२६०-१२६१ श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, आलाप, इंगित और कटाक्ष को मन में निविष्ट कर देखने का प्रयत्न न करे । जो सदा ब्रह्मचर्य में लीन हैं, उनके लिए स्त्रियों का अवलोकन, उनकी इच्छा, चिन्तन और वर्णन न करना हितकर है, तथा सम्यक ध्यान साधना के लिए उपयुक्त है। सूत्र - १२६२ यद्यपि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनि को अलंकृत देवियाँ भी विचलित नहीं कर सकती, तथापि एकान्त हित की दृष्टि से मुनि के लिए विविक्तवास ही प्रशस्त है । सूत्र-१२६३ मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में ऐसा कुछ भी दुस्तर नहीं है, जैसे कि अज्ञानियों के मन को हरण करनेवाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं । सूत्र - १२६४ स्त्री-विषयक इन उपर्युक्त संसर्गों का सम्यक् अतिक्रमण करने पर शेष सम्बन्धों का अतिक्रमण वैसे ही सुखोत्तर हो जाता है, जैसे कि महासागर को तैरने के बाद गंगा जैसी नदियों को तैर जाना आसान है। सूत्र - १२६५-१२६६ समस्त लोक के, यहाँ तक कि देवताओं के भी, जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामासक्ति से पैदा होते हैं । वीतराग आत्मा ही उन दुःखों का अन्त कर पाते हैं । जैसे किंपाक फल रस और रूपरंग की दृष्टि से देखने और खाने में मनोरम होते हैं, किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं, काम-गुण भी अन्तिम परिणाम में ऐसे ही होते हैं। सूत्र - १२६७ समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के शब्द-रूपादि मनोज्ञ विषयों में रागभाव न करे और इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे । सूत्र- १२६८-१२६९ चक्षु का ग्रहण रूप है । जो रूप राग का कारण होता है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो रूप द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । इन दोनों में जो सम रहता है, वह वीतराग है । चक्षु रूप का ग्रहण है । रूप चक्षु का ग्राह्य विषय ह । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र - १२७०-१२७१ जो मनोज्ञरूपों में तीव्र रूप से गृद्धि, आसक्ति रखता है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे प्रकाश-लोलुप पतंगा प्रकाश के रूप में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है । जो अमनोज्ञ रूप के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त (दुर्दभ) द्वेष से दुःख को प्राप्त होता है । इसमें रूप का कोई अपराध नहीं है। सूत्र - १२७२ जो सुन्दर रूप में एकान्त आसक्त होता है और अतादृश में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, उत्तराध्ययन अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - १२७३ मनोज्ञ रूप की आशा का अनुगमन करनेवाला व्यक्ति अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही अधिक महत्त्व देने वाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। सूत्र - १२७४ रूप में अनुपात और परिग्रह के कारण रूप के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती । सूत्र - १२७५ रूप में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। वह असंतोष के दोष से दुःखी एवं लोभ से आविल व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है । सूत्र - १२७६ रूप और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । परन्तु कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। सूत्र - १२७७ झूठ बोलने के पहले उसके पश्चात् और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है उसका अन्त भी । दुःखरूप होता है। इस प्रकार रूप से अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र - १२७८ इस प्रकार रूप में अनुरक्त मनुष्य को कहाँ, कब और कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए मनुष्य दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है । सूत्र - १२७९ इस प्रकार रूप के प्रति द्वेष करने वाला भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं । सूत्र - १२८० रूप में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से । सूत्र - १२८१-१२८२ श्रोत्र का ग्रहण शब्द है । जो शब्द राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं । जो शब्द द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । श्रोत्र शब्द का ग्राहक है, शब्द श्रोत्र का ग्राह्य है । जो राग का कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं । सूत्र - १२८३-१२८४ जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे शब्द में अतृप्त मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है, जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें शब्द का कोई अपराध नहीं है। सूत्र - १२८५ जो प्रिय शब्द में एकान्त आसक्त होता है और अप्रिय शब्द में द्वेष करता है, वह अज्ञानी को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद दुःख की पीड़ा Page 103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १२८६ शब्द की आशा का अनुगामी अनेकरूप चराचर जीवों की हिंसा करता है । अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहँचाता है। सूत्र - १२८७ शब्द में अनुराग और ममत्व के कारण शब्द के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में, उसको सुख कहाँ है ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। सूत्र- १२८८ शब्द में अतप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता । वह असंतोष के दोष से दुःखी व लोभग्रस्त व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है । सूत्र - १२८९ शब्द और परिग्रह में अतृप्त, तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। सूत्र-१२९० झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखमय है। इस प्रकार शब्द में अतृप्त व्यक्ति चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र- १२९१ इस प्रकार शब्द में अनुरक्त व्यक्ति को कहाँ, कब और कितना सुख होगा? जिस उपभोग के लिए व्यक्ति दुःख उठाता है, उस उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। सूत्र- १२९२ इसी प्रकार जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष-युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। सूत्र - १२९३ शब्द में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है । वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे-जलाशय में कमल का पत्ता जल से। सूत्र - १२९४-१२९५ घ्राण का विषय गन्ध है । जो गन्ध राग में कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो गन्ध द्वेष में कारण होती है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । घ्राण गन्ध का ग्राहक है । गन्ध घ्राण का ग्राह्य है । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं । और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र - १२९६-१२९७ जो मनोज्ञ गन्ध में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है । जैसे औषधि की गन्ध में आसक्त रागानुरक्त सर्प बिल से निकलकर विनाश को प्राप्त होता है । जो अमनोज्ञ गन्ध के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें गन्ध का कोई अपराध नहीं है। सूत्र-१२९८ जो सुरभि गन्ध में एकान्त आसक्त होता है, और दुर्गन्ध में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है । विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है । सूत्र-१२९९ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक गन्ध की आशा का अनुगामी अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परीताप देता है, पीड़ा पहुंचाता है। सूत्र-१३०० गन्ध में अनुराग और परिग्रह में ममत्त्व के कारण गन्ध के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। सूत्र-१३०१-१३०२ गन्ध में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त तथा उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता है । वह असंतोष के दोष से दुःखी, लोभग्रस्त व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है । दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है। सूत्र - १३०३ झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखमय है। इस प्रकार गन्ध से अतृप्त होकर वह चोरी करनेवाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र-१३०४ __इस प्रकार गन्ध में अनुरक्त व्यक्ति को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? जिसके उपभोग के लिए दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी दुःख और क्लेश ही होता है। सूत्र-१३०५ इसी प्रकार जो गन्ध के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। सूत्र-१३०६ गन्ध में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है । वह संसार में रहता हआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे-जलाशय में कमल का पत्ता जल से । सूत्र-१३०७-१३०८ जिह्वा का विषय रस है । जो रस राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं । और जो रस द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । जिह्वा रस की ग्राहक है । रस जिह्वा का ग्राह्य है । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र - १३०९-१३१० जो मनोज्ञ रसों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य काँटे से बींधा जाता है । जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है । इस में रस का कोई अपराध नहीं है । सूत्र-१३११ जो मनोज्ञ रस में एकान्त आसक्त होता है और अमनोज्ञ रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है । विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। सूत्र- १३१२ रस की आशा का अनुगामी अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। सूत्र - १३१३-१३१५ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक रस में अनुरक्ति और ममत्त्व के कारण रस के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग-काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है । वह संतोष को प्राप्त नहीं होता । असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल दूसरों की वस्तुएँ चुराता है । रस और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। सूत्र - १३१६ झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार रस में अतृप्त होकर चोरी करने वाला वह दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र-१३१७ इस प्रकार रस में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए व्यक्ति दुःख उठाता है, उस के उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। सूत्र-१३१८ इसी प्रकार जो रस के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय दुःख के कारण बनते हैं। सूत्र-१३१९ रस में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है । वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे-जलाशय में कमल का पत्ता जल से । सूत्र-१३२०-१३२१ काय का विषय स्पर्श है। जो स्पर्श राग में कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं । जो स्पर्श द्वेष का कारण होता है उसे अमनोज्ञ कहते हैं । काय स्पर्श का ग्राहक है, स्पर्श काय का ग्राह्य है । जो राग का कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र - १३२२-१३२३ जो मनोज्ञ स्पर्श में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है । जैसे-वन में जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त रागातुर भैसा मगर के द्वारा पकड़ा जाता है । जो अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है । इसमें स्पर्श का कोई अपराध नहीं है सूत्र - १३२४ जो मनोहर स्पर्श में अत्यधिक आसक्त होता है और अमनोहर स्पर्श में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है । विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। सूत्र - १३२५-१३२६ स्पर्श की आशा का अनुगामी अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीडा पहँचाता है । स्पर्श में अनरक्ति और ममत्व के कारण स्पर्श के उत्पादन में, संरक्षण में, संनियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ? उसे उपभोग-काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। सूत्र-१३२७-१३२८ स्पर्श में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता है । वह असंतोष के दोष से दुःखी और लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तुएँ चुराता है । दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 106 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-१३२९ झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःख रूप है । इस प्रकार रूप में अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र - १३३० इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा? जिसे पाने के लिए दुःख उठाये जाता है, उसके उपभोग में भी क्लेश और दःख ही होता है। सूत्र- १३३१ इसी प्रकार जो स्पर्श के प्रति द्वेष करता है, वह भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। सूत्र-१३३२ स्पर्श में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है । वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है । जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से । सूत्र-१३३३-१३३४ मन का विषय भाव है । जो भाव राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो भाव द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । मन भाव का ग्राहक है । भाव मन का ग्राह्य है । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र - १३३५-१३३६ जो मनोज्ञ भावों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। जैसे हथिनी के प्रति आकृष्ट, काम गुणों में आसक्त रागातुर हाथी विनाश को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ भाव के प्रति तीव्ररूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। सूत्र-१३३७ जो मनोज्ञ भाव में एकान्त आसक्त होता है, और अमनोज्ञ में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता । सूत्र - १३३८-१३३९ भाव की आशा का अनुगामी व्यक्ति अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी जीव विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुंचाता है। भाव में अनुरक्त और ममत्व के कारण भाव के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ? उसे उपभोगकाल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। सूत्र - १३४०-१३४१ भाव में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता । वह असंतोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तु चुराता है । दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ाता है । कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है। सूत्र - १३४२ झूठ बोलने के पहले, उसके बाद, और बोलने के समय वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र-१३४३ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 107 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन / सूत्रांक इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब और कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए दुःख उठा है । उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है । सूत्र - १३४४ इसी प्रकार जो भाव के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष-युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं । सूत्र - १३४५ भाव में विरक्त मनुष्य शोक-रहित होता है वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से । सूत्र- १३४६ इस प्रकार रागी मनुष्य के लिए इन्द्रिय और मन के जो विषय दुःख के हेतु हैं, वे ही वीतराग के लिए कभी भी किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते हैं। सूत्र - १३४७ I काम-भोग न समता-समभाव लाते हैं, और न विकृति लाते हैं । जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है । सूत्र - १३४८- १३४९ क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद तथा हर्ष विषाद आदि विविध भावों को अनेक प्रकार के विकारों को, उनसे उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह प्राप्त होता है, जो कामगुणों में आसक्त है । और वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय भी होता है । सूत्र - १३५० शरीर की सेवारूप सहायता आदि की लिप्सा से कल्पयोग्य शिष्य की भी इच्छा न करे । दीक्षित होने के बाद अनुतप्त होकर तप के प्रभाव की इच्छा न करे इन्द्रियरूपी चोरों के वशीभूत जीव अनेक प्रकार के अपरिमित विकारों को प्राप्त करता है। I सूत्र - १३५१ विकारों के होने के बाद मोहरूपी महासागर में डुबाने के लिए विषयासेवन एवं हिंसादि अनेक प्रयोजन उपस्थित होते हैं तब वह सुखाभिलाषी रागी व्यक्ति दुःख से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करता है। सूत्र - १३५२ इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषय हैं, वे सभी विरक्त व्यक्ति के मन में मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते हैं । सूत्र - १३५३ " अपने ही संकल्प-विकल्प सब दोषों के कारण हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं। ऐसा जो संकल्प करता है, उसके मन में समता जागृत होती है और उससे उसकी काम-गुणों की तुष्णा क्षीण होती है । सूत्र १३५४ वह कृतकृत्य वीतराग आत्मा क्षणभर में ज्ञानावरण का क्षय करता है । दर्शन के आवरणों को हटाता है और अन्तराय कर्म को दूर करता है । सूत्र - १३५५ उसके बाद वह सब जानता है और देखता है, तथा मोह और अन्तराय से रहित होता है । निराश्रव और मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 108 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक शुद्ध होता है। ध्यान-समाधि से सम्पन्न होता है । आयुष्य के क्षय होने पर मोक्ष को प्राप्त होता है। सूत्र-१३५६ जो जीव को सदैव बाधा देते रहते हैं, उन समस्त दुःखों से तथा दीर्घकालीन कर्मों से मुक्त होता है । तब वह प्रशस्त, अत्यन्त सुखी तथा कृतार्थ होता है। सूत्र-१३५७ अनादि काल से उत्पन्न होते आए सर्व दुःखों से मुक्ति का यह मार्ग बताया है । उसे सम्यक् प्रकार से स्वीकार कर जीव क्रमशः अत्यन्त सुखी होते हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 109 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३३-कर्मप्रकृति सूत्र-१३५८ मैं अनुपूर्वी के क्रमानुसार आठ कर्मों का वर्णन करूँगा, जिनसे बँधा हआ यह जीव संसार में परिवर्तन करता है। सूत्र - १३५९-१३६० ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोह, आयुकर्म-नाम-कर्म, गोत्र और अन्तराय संक्षेप से ये आठ कर्म हैं। सूत्र-१३६१ ज्ञानावरण कर्म पाँच प्रकार का है-श्रुत-ज्ञानावरण, आभिनिबोधिक-ज्ञानावरण, अवधि-ज्ञानावरण, मनोज्ञानावरण और केवल-ज्ञानावरण । सूत्र-१३६२-१३६३ निद्रा, प्रचला, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और पाँचवीं स्त्यानगृद्धि । चक्षु-दर्शनावरण, अचक्षु-दर्शनावरण, अवधि-दर्शनावरण और केवल-दर्शनावरण ये नौ दर्शनावरण कर्म के विकल्प-भेद हैं। सूत्र - १३६४ वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असाता वेदनीय । साता और असातावेदनीय के अनेक भेद हैं सूत्र-१३६५-१३६८ मोहनीय कर्म के भी दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शनमोहनीय के तीन और चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व-ये तीन दर्शन मोहनीय की प्रकृतियाँ हैं । चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं-कषाय मोहनीय और नोकषाय मोहनीय । कषाय मोहनीय कर्म के सोलह भेद हैं । नोकषाय मोहनीय कर्मों के सात अथवा नौ भेद हैं। सूत्र - १३६९ आयु कर्म के चार भेद हैं-नैरयिकआयु, तिर्यग्आयु, मनुष्यआयु और देवआयु । सूत्र-१३७० नाम कर्म के दो भेद हैं-शुभ नाम और अशुभ-नाम । शुभ के अनेक भेद हैं । इसी प्रकार अशुभ के भी। सूत्र-१३७१ गोत्र कर्म के दो भेद हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र । इन दोनों के आठ-आठ भेद हैं। सूत्र-१३७२ संक्षेप से अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। सूत्र- १३७३ ये कर्मों की मूल प्रकृतियाँ और उत्तर प्रकृतियाँ कही गई हैं। इसके आगे उनके प्रदेशाग्र-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को सूनो। सूत्र-१३७४-१३७५ एक समय में बद्ध होने वाले सभी कर्मों का कर्मपुदगलरूप द्रव्य अनन्त होता है । वह ग्रन्थिभेद न करनेवाले अनन्त अभव्य जीवों से अनन्त गुण अधिक और सिद्धों के अन्तवे भाग जितना होता है । सभी जीवों के लिए संग्रह-कर्म-पुद्गल छहों दिशाओं में-आत्मा से स्पृष्ट सभी आकाश प्रदेशों में हैं । वे सभी कर्म-पुद्गल बन्ध के समय आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 110 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १३७६-१३७७ __ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि उदधि सदृशसागरोपम की है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। सूत्र-१३७८ मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर (७०) कोटि-कोटि सागरोपम की है। और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त्त की है सूत्र- १३७९ आयु-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागरोपम की है; और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। सूत्र - १३८० नाम और गोत्र-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटि-कोटि सागरोपम की है और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है। सूत्र - १३८१-१३८२ सिद्धों के अनन्तवें भाग जितने कर्मों के अनुभाग हैं । सभी अनुभागों का प्रदेश-परिमाण सभी भव्य और अभव्य जीवों से अतिक्रान्त है, अधिक है । इसलिए इन कर्मों के अनुभागों को जानकर बुद्धिमान साधक इनका संवर और क्षय करने का प्रयत्न करे । - ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३४-लेश्याध्ययन सूत्र-१३८३-१३८४ मैं अनुपूर्वी के क्रमानुसार लेश्याअध्ययन का निरूपण करूँगा । मुझसे तुम छहों लेश्याओं के अनुभावों-को सुनो । लेश्याओं के नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य को मुझसे सुनो सूत्र - १३८५ क्रमशः लेश्याओं के नाम इस प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल । सूत्र-१३८६-१३९१ कृष्ण लेश्या का वर्ण सजल मेघ, महिष, शृंग, अरिष्टक खंजन, अंजन और नेत्र-तारिका के समान (काला) है । नील लेश्या का वर्ण-नील अशोक वृक्ष, चास पक्षी के पंख और स्निग्ध वैडूर्य मणि के समान (नीला) है । कापोत लेश्या का वर्ण-अलसी के फूल, कोयल के पंख और कबूतर की ग्रीवा के वर्ण के समान (कुछ काला और कुछ लाल-जैसा मिश्रित) है। तेजोलेश्या का वर्ण-हिंगुल, गेरू, उदीयमान तरुण सूर्य, तोते की चोंच, प्रदीप की लौ के समान (लाल) होता है । पद्म लेश्या का वर्ण-हरिताल और हल्दी के खण्ड तथा सण और असन के फूल के समान (पीला) है । शुक्ल लेश्या का वर्ण-शंख, अंकरत्न, कुन्दपुष्प, दुग्ध-धारा, चांदी के हार के समान (श्वेत) है। सूत्र-१३९२-१३९७ कडुवा तूम्बा, नीम तथा कड़वी रोहिणी का रस जितना कड़वा होता है, उससे अनन्त गुण अधिक कड़वा कृष्ण लेश्या का रस है । त्रिकटु और गजपीपल का रस जितना तीखा है, उससे अनन्त गुण अधिक तीखा नील लेश्या का रस है। कच्चे आम और कच्चे कपित्थ का रस जैसे कसैला होता है, उससे अनन्त गुण अधिक कसैला कापोत लेश्या का रस है। पके हुए आम और पके हुए कपित्थ का रस जितना खट-मीठा होता है, उससे अनन्त गुण अधिक खटमीठा तेजोलेश्या का रस है । उत्तम सुरा, फूलों से बने विविध आसव, मधु तथा मैरेयक का रस जितना अम्ल होता है, उससे अनन्त गुण अधिक पद्मलेश्या का रस है। खजूर, मद्वीका, क्षीर, खाँड और शक्कर का रस जितना मिठा होता है उससे अनन्त गुण अधिक मीठा शुक्ललेश्या का रस है । सूत्र-१३९८-१३९९ गाय, कुत्ते और सर्प के मृतक शरीर की जैसे दुर्गन्ध होती है, उससे अनन्त गुण अधिक दुर्गन्ध तीनों अप्रशस्त लेश्याओं की होती है । सुगन्धित पुष्प और पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों की जैसी गन्ध है, उससे अनन्त गुण अधिक सुगन्ध तीनों प्रशस्त लेश्याओं की है। सूत्र - १४००-१४०१ क्रकच, गाय की जीभ और शाक वृक्ष के पत्रों का स्पर्श जैसे कर्कश होता है, उससे अनन्त गुण कर्कश स्पर्श तीनों अप्रशस्त लेश्याओं का है । बूर, नवनीत, सिरीष के पुष्पों का स्पर्श जैसे कोमल होता है, उससे अनन्त गुण अधिक कोमल स्पर्श तीनों प्रशस्त लेश्याओं का है। सूत्र - १४०२ लेश्याओं के तीन, नौ, सत्ताईस, इक्कासी अथवा दो-सौ तेंतालीस परिणाम होते हैं। सूत्र-१४०३-१४०४ ___जो मनुष्य पाँच आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों में अगुप्त है, षट्काय में अविरत है, तीव्र आरम्भ में संलग्न है, क्षुद्र है, अविवेकी है-निःशंक परिणामवाला है, नृशंस है, अजितेन्द्रिय है-इन सभी योगों से युक्त, वह कृष्णलेश्या में परिणत होता है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 112 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र- १४०५-१४०६ जो ईर्ष्यालु है, अमर्ष है, अतपस्वी है, अज्ञानी है, मायावी है, लज्जारहित है, विषयासक्त है, द्वेषी है, धूर्त है, प्रमादी है, रस-लोलुप है, सुख का गवेषक है-जो आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, दुःसाहसी है-इन योगों से युक्त मनुष्य नीललेश्या में पविवत होता है। सूत्र - १४०७-१४०८ जो मनुष्य वक्र है, आचार से टेढ़ा है, कपट करता है, सरलता से रहित है, प्रति-कुञ्चक है-अपने दोषों को छुपाता है, औपधिक है-सर्वत्र छद्म का प्रयोग करता है । मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है-उत्प्रासक है-दुष्ट वचन बोलता है, चोर है, मत्सरी है, इन सभी योगों से युक्त वह कापोत लेश्या में परिणत होता है। सूत्र-१४०९-१४१० जो नम्र है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहल है, विनय करने में निपुण है, दान्त है, योगवान् है, उपधान करनेवाला है । प्रियधर्मी है, दृढधर्मी है, पाप-भीरु है, हितैषी है-इन सभी योगों से युक्त वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। सूत्र - १४११-१४१२ क्रोध, मान, माया और लोभ जिसके अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्तचित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, योगवान है, उपधान करनेवाला है-जो मित-भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है-इन सभी योगों से युक्त वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। सूत्र - १४१३-१४१४ आर्त और रौद्र ध्यानों को छोड़कर जो धर्म और शुक्लध्यान में लीन है, जो प्रशान्त-चित्त और दान्त है, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है-सराग हो या वीतराग, किन्तु जो उपशान्त है, जितेन्द्रिय हैइन सभी योगों से युक्त वह शुक्ल लेश्या में परिणत होता है। सूत्र - १४१५ असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, असंख्य योजन प्रमाण लोक के जितने आकाश-प्रदेश होते हैं, उतने ही लेश्याओं के स्थान होते हैं। सूत्र - १४१६-१४२१ कृष्ण-लेश्या की जघन्य स्थिति मुहूर्त्तार्ध है और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त-अधिक तेंतीस सागर है । नील लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर है। कापोत लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है। तेजोलेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर है पद्मलेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट एक मुहूर्त्त-अधिक दस सागर है। शुक्ललेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट मुहूर्त्त-अधिक तेंतीस सागर है। सूत्र-१४२२ गति की अपेक्षा के बिना यह लेश्याओं की ओघ-सामान्य स्थिति है । अब चार गतियों की अपेक्षा से लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूँगा। सूत्र-१४२३-१४२५ कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार-वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है । नील लेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है और मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन / सूत्रांक उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर है । कृष्ण-लेश्या की जघन्य-स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर है और उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागर है। सूत्र - १४२६ यिक जीवों की लेश्याओं की स्थिति का यह वर्णन किया है। इसके बाद तिर्यच, मनुष्य और देवों की श्या-स्थिति का वर्णन करूँगा । सूत्र - १४२७-१४२८ केवल शुक्ल लेश्या को छोड़कर मनुष्य और तिर्यचों की जितनी भी लेश्याएँ हैं, उन सब की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त है। शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त है और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व है। सूत्र १४२९ मनुष्य और तिर्यंचों की लेश्याओं की स्थिति का यह वर्णन है । इससे आगे देवों की लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूँगा । सूत्र - १४३०- १४३२ कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । कृष्ण लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक नील लेश्या की जघन्य स्थिति, और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक है। नील लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति है, और पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक उत्कृष्ट है । सूत्र - १४३३ इससे आगे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की तेजोलेश्या की स्थिति का निरूपण करूँगा । सूत्र- १४३४- २४३५ तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागर है। तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागर है। सूत्र - १४३६- १४३७ तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक पद्मलेश्या की जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त अधिक दस सागर है जो पद्म लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक शुक्ल । लेश्या की जघन्य स्थिति है, और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त अधिक तेंतीस सागर है । सूत्र - १४३८-१४३९ कृष्ण, नील और कापोत- ये तीनों अधर्म लेश्याएँ हैं । इन तीनों से जीव अनेक बार दुर्गति को प्राप्त होता है तेजो-लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ललेश्या - ये तीनों धर्म लेश्याएँ हैं । इन तीनों से जीव अनेक बार सुगति को प्राप्त होता है । सूत्र १४४०-२४४२ प्रथम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तर् मुहूर्त्त व्यतीत हो जाता है और जब अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 114 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-१४४३ अतः लेश्याओं के अनुभाग को जानकर अप्रशस्त लेश्याओं का परित्याग कर प्रशस्त लेश्याओं में अधिष्ठित होना चाहिए । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३५-अनगारमार्गगति सूत्र-१४४४ __मुझ से ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट मार्ग को एकाग्र मन से सुनो, जिसका आचरण कर भिक्षु दुःखों का अन्त करता है। सूत्र - १४४५ गृहवास का परित्याग कर प्रव्रजित हुआ मुनि, इन संगों को जाने, जिनमें मनुष्य आसक्त होते हैं। सूत्र - १४४६ संयत भिक्षु हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, इच्छा-काम और लोभ से दूर रहे। सूत्र - १४४७-१४४८ मनोहर चित्रों से युक्त, माल्य और धूप से सुवासित, किवाड़ों तथा सफेद चंदोवा से युक्त-ऐसे चित्ताकर्षक स्थान की मन से भी इच्छा न करे । काम-राग को बढ़ाने वाले इस प्रकार के उपाश्रय में इन्द्रियों का निरोध करना भिक्षु के लिए दुष्कर है। सूत्र-१४४९-१४५० अतः एकाकी भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के नीचे तथा परकृत एकान्त स्थान में रहने की अभिरुचि रखे । परम संयत भिक्षु प्रासुक, अनावाध, स्त्रियों के उपद्रव से रहित स्थान में रहने का संकल्प करे। सूत्र - १४५१-१४५२ भिक्षु न स्वयं घर बनाए और न दूसरों से बनवाए । चूँकि गृहकर्म के समारंभ में प्राणियों का वध देखा जाता है । त्रस और स्थावर तथा सूक्ष्म और बादर जीवों का वध होता है, अतः संयत भिक्षु गृह-कर्म के समारंभ का परित्याग करे। सूत्र-१४५३-१४५४ इसी प्रकार भक्त-पान पकाने और पकवाने में हिंसा होती है। अतः प्राण और भूत जीवों की दया के लिए न स्वयं पकाए न दूसरे से पकवाए । भक्त और पान के पकाने में जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ के आश्रित जीवों का वध होता है-अतः भिक्षु न पकवाए। सूत्र-१४५५ अग्नि के समान दूसरा शस्त्र नहीं है, वह सभी ओर से प्राणिनाशक तीक्ष्ण धार से युक्त है, बहुत अधिक प्राणियों की विनाशक है, अतः भिक्षु अग्नि न जलाए । सूत्र - १४५६-१४५८ क्रय-विक्रय से विरक्त भिक्षु सुवर्ण और मिट्टी को समान समझनेवाला है, अतः वह सोने और चाँदी की मन से भी इच्छा न करे । वस्तु को खरीदने वाला क्रयिक होता है और बेचने वाला वणिक् अतः क्रय-विक्रय में प्रवृत्त 'साधु' नहीं है। भिक्षावृत्ति से ही भिक्षु को भिक्षा करनी चाहिए, क्रय-विक्रय से नहीं । क्रय-विक्रय महान् दोष है । भिक्षावृत्ति सुखावह है। सूत्र-१४५९-१४६० मुनि श्रुत के अनुसार अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ की एषणा करे । वह लाभ और अलाभ में सन्तुष्ट रहकर भिक्षा -चर्या करे । अलोलुप, रस में अनासक्त, रसनेन्द्रिय का विजेता, अमूर्च्छित महामुनि यापनार्थ-जीवननिर्वाह के लिए ही खाए, रस के लिए नहीं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १४६१ मुनि अर्चना, रचना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी प्रार्थना न करे । सूत्र - १४६२ मुनि शुक्ल ध्यान में लीन रहे । निदानरहित और अकिंचन रहे । जीवनपर्यन्त शरीर की आसक्ति को छोड़कर विचरण करे। सूत्र - १४६३ अन्तिम काल-धर्म उपस्थित होने पर मुनि आहार का परित्याग कर और मनुष्य-शरीर को छोड़कर दुःखों से मुक्तप्रभु हो जाता है। सूत्र-१४६४ __ निर्मम, निरहंकार, वीतराग और अनाश्रव मुनि केवल-ज्ञान को प्राप्त कर शाश्वत परिनिर्वाण को प्राप्त होता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 117 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन अध्ययन- ३६- जीवाजीवविभक्ति सूत्र - १४६५ जीव और अजीव के विभाग का तुम एकाग्र मन होकर मुझसे सुनो, जिसे जानकर भिक्षु सम्यक् प्रकार से संयम में यत्नशील होता है। सूत्र - १४६७ सूत्र- १४६६ यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है और जहाँ अजीव का एक देश केवल आकाश है, वह अलोक कहा जाता है। अध्ययन / सूत्रांक द्रव्य से, क्षेत्र से काल से और भाव से जीव और अजीव की प्ररूपणा होती है। , सूत्र - १४६८ अजीव के दो प्रकार हैं-रूपी और अरूपी अरूपी दस प्रकार का है, और रूपी चार प्रकार का । I सूत्र - १४६९ - १४७० धर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश अधर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश आकाशास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश । और एक अद्धा समय ये दस भेद अरूपी अजीव के हैं । सूत्र - १४७१-१४७२ धर्म और अधर्म लोक-प्रमाण हैं । आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है । काल केवल समय-क्षेत्र में नहीं है । धर्म, अधर्म, आकाश-ये तीनों द्रव्य अनादि, अपर्यवसित और सर्वकाल हैं । सूत्र - १४७४-१४७६ सूत्र - १४७३ प्रवाह की अपेक्षा से समय भी अनादि अनन्त है । प्रतिनियत व्यक्ति रूप एक-एक क्षण की अपेक्षा से सादि सान्त है। रूपी द्रव्य के चार भेद हैं- स्कन्ध, स्कन्ध-देश, स्कन्ध- प्रदेश और परमाणु । परमाणुओं के एकत्व होने से स्कन्ध होते हैं । स्कन्ध के पृथक् होने से परमाणु होते हैं । यह द्रव्य की अपेक्षा से है । क्षेत्र की अपेक्षा से वे स्कन्ध आदि लोक के एक देश से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में भाज्य हैं- यहाँ से आगे स्कन्ध और परमाणु के काल की अपेक्षा से चार भेद कहता हूँ । स्कन्ध आदि प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । सूत्र - १४७७ रूपी अजीवों- पुद्गल द्रव्यों की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल की बताई गई है। सूत्र - १४७८ रूपी अजीवों का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है। सूत्र - १४७९ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से स्कन्ध आदि का परिणमन पाँच प्रकार का है। सूत्र - १४८० जो स्कन्ध आदि पुद्गल वर्ण से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल । , सूत्र - १४८१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 118 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक जो पुद्गल गन्ध से परिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध । सूत्र - १४८२ जो पुद्गल रस से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं-तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर । सूत्र - १४८३-१४८४ जो पुद्गल स्पर्श से परिणत हैं, वे आठ प्रकार के हैं-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । इस प्रकार ये स्पर्श से परिणत पुदगल कहे गये हैं। सूत्र - १४८५ जो पुद्गल संस्थान से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं-परिमण्डल, वृत्त, त्रिकोण, चौकोर और दीर्घ । सूत्र-१४८६-१४९० जो पुद्गल वर्ण से कृष्ण हैं, या वर्ण से नील है, या रक्त है, या पीत है, या वर्ण से शुक्ल हैं वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है। सूत्र - १४९१-१४९२ जो पुद्गल गन्ध से सुगन्धित है, या दुर्गन्धित है, वह वर्ण, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है। सूत्र - १४९३-१४९७ जो पुद्गल रस से तिक्त है, कटु है, कसैला है, खट्टा है या मधुर है वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है। सूत्र - १४९८-१५०५ जो पुद्गल स्पर्श से कर्कश है - मृदु है - गुरु है - लघु है - शीत है - उष्ण है - स्निग्ध है या रूक्ष है वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य है। सूत्र - १५०६-१५१० जो पुदगल संस्थान से परिमण्डल है-वृत्त है - त्रिकोण है - चतुष्कोण है या आयत है वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य है। सूत्र-१५११ यह संक्षेप से अजीव विभाग का निरूपण किया गया है। अब क्रमशः जीवविभाग का निरूपण करूँगा। सूत्र - १५१२ जीव के दो भेद हैं-संसारी और सिद्ध । सिद्ध अनेक प्रकार के हैं । उनका कथन करता हूँ, सुनो। सूत्र-१५१३ स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपुंसकलिंग सिद्ध और स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध तथा गृहलिंग सिद्ध सूत्र-१५१४ उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम अवगाहना में तथा ऊर्ध्व लोक में, तिर्यक् लोक में एवं समुद्र और अन्य जलाशय में जीव सिद्ध होते हैं। सूत्र - १५१५-१५१८ एक समय में दस नपुंसक, बीस स्त्रियाँ और एक-सौ आठ पुरुष एवं गृहस्थलिंग में चार, अन्यलिंग में दस, स्वलिंग में एक-सौ आठ एवं उत्कृष्ट अवगाहना में दो, जघन्य अवगाहना में चार और मध्यम अवगाहना में एक-सौ आठ एवं ऊर्ध्व लोक में चार, समुद्र में दो, जलाशय में तीन, अधो लोक में वीस, तिर्यक् लोक में एक-सौ आठ जीव मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 119 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' सिद्ध हो सकते हैं । सूत्र - १५१९ - १५२० सिद्ध कहाँ रुकते हैं ? कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? शरीर को कहाँ छोड़कर, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? सिद्ध अलोक में रुकते हैं। लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं। मनुष्यलोक में शरीर को छोड़कर लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं। सूत्र - १५२१-१५२३ सर्वार्थ सिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी है। वह छत्राकार है। उसकी लम्बाई पैंतालीस लाख योजन है चौड़ाई उतनी ही है। परिधि उससे तिगुनि है मध्यम में वह आठ योजन स्थूल है। क्रमशः पतली होती होती अन्तिम भाग में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली हो जाती है। अध्ययन / सूत्रांक सूत्र १५२४-१५२५ जिनवरों ने कहा है- वह पृथ्वी अर्जुन स्वर्णमयी है, स्वभाव से निर्मल है और उत्तान छत्राकार है। शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत है, निर्मल और शुभ है। इस सीता नाम की ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त है। सूत्र - १५२६-१५२७ उस योजन के ऊपर का जो कोस है, उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना होती है । भवप्रपंच से मुक्त, महाभाग, परम गति सिद्धि को प्राप्त सिद्ध वहाँ अग्रभाग में स्थित हैं। 1 सूत्र - १५२८ अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊंचाई होती है, उससे त्रिभागहीन सिद्धों की अवगाहना होती है। सूत्र - १५२९ एक की अपेक्षा से सिद्ध सादि अनन्त है । और बहुत्व की अपेक्षा से सिद्ध अनादि, अनन्त हैं । सूत्र - १५३० वे अरूप हैं, सघन हैं, ज्ञान-दर्शन से संपन्न हैं । जिसकी कोई उपमा नहीं है, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है - सूत्र १५३१ ज्ञान दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुँचे हुए, परम गति सिद्धि को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं । सूत्र - १५३२ संसारी जीव के दो भेद हैं-त्रस और स्थावर उनमें स्थावर तीन प्रकार के हैं। सूत्र - १५३३ पृथ्वी, जल और वनस्पति- ये तीन प्रकार के स्थावर हैं। अब उनके भेदों को मुझसे सुनो। सूत्र - १५३४-१५३६ पृथ्वीकाय जीव के दो भेद हैं- सूक्ष्म और बादर । पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं । बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय जीव के दो भेद हैं-लक्षण और खर मृदु के सात भेद हैं-कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत, पाण्डु और पनक कठोर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार है सूत्र- १५३७-१५४० शुद्ध पृथ्वी, शर्करा, बालू, उपल- पत्थर, शिला, लवण, क्षाररूप नौनी मिट्टी, लोहा, ताम्बा, त्रपुक, शीशा, चाँदी, सोना, वज्र, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सस्यक, अंजन, प्रवाल, अभ्र-पटल, अभ्रबालुक-अभ्रक की पड़तों से मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक मिश्रित बालू । और विविध मणि भी बादर पृथ्वीकाय के अन्तर्गत हैं-गोमेदक, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, भुजमोचक, इन्द्रनील, चन्दन, गेरुक एवं हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त और सूर्यकान्त । सूत्र - १५४१ ये कठोर पृथ्वीकाय के छत्तीस भेद हैं । सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव एक ही प्रकार के हैं, अतः वे अनानात्व हैं सूत्र - १५४२ सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर पृथ्वीकाय के जीवलोक के एक देश में व्याप्त हैं । अब चार प्रकार से पृथ्वीकायिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा। सूत्र - १५४३-१५४६ पृथ्वीकायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी २२०० वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य स्थिति है । उनकी असंख्यात कालकी उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य काय-स्थिति है । पृथ्वी के शरीर को न छोड़कर निरन्तर पृथ्वीकाय में ही पैदा होते रहना, काय-स्थिति है । पृथ्वी के शरीर को एकबार छोड़कर फिर वापस पृथ्वी के शरीर में उत्पन्न होने के बीचका अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल हैं। सूत्र- १५४७ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के आदेश से तो पृथ्वी के हजारों भेद होते हैं । सूत्र - १५४८-१५५० अप् काय जीव के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं । बादर पर्याप्त अप्काय जीवों के पाँच भेद हैं-शुद्धोदक, ओस, हरतनु, महिका और हिम । सूक्ष्म अप्काय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं । सूक्ष्म अप्काय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर अप्काय के जीवलोक के एक भाग में व्याप्त हैं। सूत्र - १५५१-१५५४ अप्कायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं । उनकी ७००० वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयुस्थिति है । उनकी असंख्यात काल की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहर्त की जघन्य कायस्थिति है । अप्काय को छोड़कर निरन्तर अप्काय में ही पैदा होना, काय स्थिति है। अप्काय को छोड़कर पुनः अप्काय में उत्पन्न होने का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त-काल का है। सूत्र - १५५५ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अप्काय के हजारों भेद हैं। सूत्र - १५५६-१५५७ वनस्पति काय के जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं। बादर पर्याप्त वनस्पतिकाय के जीवों के दो भेद हैं-साधारण-शरीर और प्रत्येक-शरीर । सूत्र - १५५८-१५५९ प्रत्येक-शरीर वनस्पति काय के जीवों के अनेक प्रकार हैं । जैसे-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली और तृण | लता-वलय, पर्वज, कुहण, जलरुह, औषधि, धान्य, तृण और हरितकाय-ये समी प्रत्येक शरीरी हैं। सूत्र - १५६०-१५६३ ___ साधारणशरीरी अनेक प्रकार के हैं-आलुक, मूल, शृंगवेर, हिरिलीकन्द, सिरिलीकन्द, सिस्सिरिलीकन्द, जावईकन्द, केद-कंदलीकन्द, प्याज, लहसुन, कन्दली, कुस्तुम्बक, लोही, स्निहु, कुहक, कृष्ण, वज्रकन्द और मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूरण-कन्द, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी और हरिद्रा इत्यादि । सूत्र - १५६४-१५६८ सूक्ष्म वनस्पति काय के जीव एक ही प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर वनस्पति काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं । उनकी दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहर्त की जघन्य आयुस्थिति है । उनकी अनन्त काल की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य काय-स्थिति है । वनस्पति के शरीर को न छोड़कर निरन्तर वनस्पति के शरीर मैं ही पैदा होना, कायस्थिति है । वनस्पति के शरीर को छोड़कर पुनः वनस्पति के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर होता है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है। सूत्र-१५६९ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वनस्पतिकाय के हजारों भेद हैं। सूत्र-१५७० इस प्रकार संक्षेप से तीन प्रकार के स्थावर जीवों का निरूपण किया गया । अब क्रमशः तीन प्रकार के त्रस जीवों का निरूपण करूँगा। सूत्र-१५७१ तेजस्, वायु और उदार त्रस-ये तीन त्रसकाय के भेद हैं, उनके भेदों को मुझसे सुनो। सूत्र - १५७२-१५७४ तेजस् काय जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं । बादर पर्याप्त तेजस् काय जीवों के अनेक प्रकार हैं-अंगार, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि-ज्वाला, उल्का, विद्युत इत्यादि । सूक्ष्म तेजस्काय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूत्र-१५७५-१५७९ सूक्ष्म तेजस्काय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर तेजस्काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इस निरूपण के बाद चार प्रकार से तेजस्काय जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाही की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं । तेजस्काय की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । तेजस्काय की काय-स्थिति उत्कृष्ट असंख्यात काल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है । तेजस् के शरीर को छोड़कर निरन्तर तेजस् के शरीर मैं ही पैदा होना, काय-स्थिति है । तेजस् के शरीर को छोड़कर पुनः तेजस् के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है सूत्र - १५८० वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से तेजस् के हजारों भेद हैं। सूत्र - १५८१-१५८३ वायुकाय जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । पुनः उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं । बादर पर्याप्त वायुकाय जीवों के पाँच भेद हैं-उत्कलिका, मण्डलिका, धनवात, गुंजावात और शुद्धवात । संवर्तकवात आदि और भी अनेक भेद हैं । सूक्ष्म वायुकाय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूत्र-१५८४-१५८८ सूक्ष्म वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से वायुकायिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से आदि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की । उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । वायु के मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक शरीर को छोड़कर निरन्तर वायु के शरीर में ही पैदा होना, कायस्थिति है । वायु के शरीर को छोड़कर पुनः वायु के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है। सूत्र-१५८९ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं । सूत्र-१५९० उदार त्रसों के चार भेद हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । सूत्र - १५९१-१५९४ द्वीन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को मुझसे सुनो । कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंक, शंखनक-पल्लोय, अणुल्लक, वराटक, जौक, जालक और चन्दनिया-इत्यादि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं । वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। सूत्र - १५९५-१५९८ प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है । उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । द्वीन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर द्वीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना, कायस्थिति है । द्वीन्द्रिय के शरीर को छोड़कर पुनः द्वीन्द्रिय शरीर में उत्पन्न होने में जो अंतर है, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र - १५९९ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते हैं। सूत्र-१६००-१६०३ त्रीन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को मुझसे सुनो । कुंथु, चींटी, खटमल, मकड़ी, दीमक, तृणाहारक, घुम, मालुक, पत्राहारक-मिंजक, तिन्दुक, त्रपुषमिंजक, शतावरी, कान-खजूरा, इन्द्रकायिक-इन्द्रगोपक इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं । वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। सूत्र- १६०४-१६०७ प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट उन पचास दिनों की और जघन्य अन्तर्मुहर्त की है । उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहुर्त की है । त्रीन्द्रिय शरीर को न छोड़कर, निरंतर त्रीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना कायस्थिति है । त्रीन्द्रिय शरीर को छोड़कर पुनः त्रीन्द्रिय के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र-१६०८ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र-१६०९-१६१३ चतुरिन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेद तुम मुझसे सुनो । अन्धिका, पोतिका, मक्षिका, मशक मच्छर, भ्रमर, कीट, पतंग, ढिंकुण, कुंकुण-कुक्कुड, शृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छू, डोल, भंगरीटक, विरली, अक्षिवेधक-अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र, चित्र-पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक, तन्तवकइत्यादि चतुरिन्द्रिय के अनेक प्रकार हैं। वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १६१४-१६१७ प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनंत और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट छह मास की और जघन्य अन्तर्मुहर्त की है। उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यातकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । चतु-रिन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर चतुरिन्द्रिय के शरीर में ही पैदा होते रहना, कायस्थिति है । चतुरिन्द्रिय शरीर को छोड़कर पुनः चतुरिन्द्रिय शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र-१६१८ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र-१६१९ पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं-नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । सूत्र-१६२०-१६२१ नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं-रत्नाभा, शर्कराभा, वालुकाभा, पंकभा, धूमाभा, तमःप्रभा और तमस्तमाइस प्रकार सात पृथ्वियों में उत्पन्न होने वाले नैरयिक सात प्रकार के हैं। सूत्र - १६२२-१६२३ वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से नैरयिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा। वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं। और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त है। सूत्र - १६२४-१६३० ___ पहली पृथ्वी में नैरयिक जीवों की आयु-स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की दूसरी पृथ्वी में उत्कृष्ट तीन सागरोपम की और जघन्य एक सागरोपम की तीसरी पृथ्वी में उत्कृष्ट सात सागरोपम और जघन्य तीन सागरोपम। चौथी पृथ्वी उत्कृष्ट दस सागरोपम और जघन्य सात सागरोपम । पाँचवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट सतरह सागरोपम और जघन्य दस सागरोपम है । छठी पृथ्वी में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम और जघन्य सतरह सागरोपम हैं । सातवीं पृथ्वी में नैरयिक जीवों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम और जघन्य बाईस सागरोपम हैं। सूत्र - १६३१-१६३२ नैरयिक जीवों की जो आयु-स्थिति है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति है । नैरयिक शरीर को छोड़कर पुनः नैरयिक शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र- १६३३ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र - १६३४-१६३५ पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च जीव के दो भेद हैं-सम्मूर्छिम-तिर्यञ्च और गर्भजतिर्यञ्च । इन दोनों के पुनः जलचर, स्थलचर और खेचर-ये तीन-तीन भेद हैं । उनको तुम मुझसे सुनो। सूत्र- १६३६-१६४१ जलचर पाँच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और सुंसुमार | वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से उनके कालविभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं । जलचरों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । जलचरों की काय-स्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । जलचर के शरीर को छोड़कर पुनः जलचर के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र-१६४२ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र - १६४३-१६४५ स्थलचर जीवों के दो भेद हैं-चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद चार प्रकार के हैं-एकखुर, द्विखुर, गण्डीपद और सनखपद । परिसर्प दो प्रकार के हैं-भुजपरिसर्प, उर:परिसर्प इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। सूत्र - १६४६-१६५० वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से स्थलचर जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा । प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं । स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं । उनकी आयु स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त-स्थलचर जीवों की कायस्थिति है । और उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है। सूत्र-१६५१-१६५६ खेचर जीव के चार प्रकार हैं-चर्मपक्षी, रोम पक्षी, समुद्ग पक्षी और विततपक्षी । वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से खेचर जीवों के कालविभाग का कथन करूँगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं । स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु स्थिति उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-खेचर जीवों की कायस्थिति है । और उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है। सूत्र-१६५७ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं । सूत्र - १६५८-१६६१ मनुष्य दो प्रकार के हैं-संमूर्च्छित और गर्भोत्पन्न । अकर्मभूमिक, कर्मभूमिक और अन्तर्वीपक-ये तीन भेद गर्व से उत्पन्न मनुष्यों के हैं । कर्मभूमिक मनुष्यों के पन्द्रह, अकर्म-भूमिक मनुष्यों के तीस और अन्तर्वीपक मनुष्यों के अट्ठाईस भेद हैं । सम्मूर्छिम मनुष्यों के भेद भी इसी प्रकार हैं । वे सब भी लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। सूत्र-१६६२-१६६५ उक्त मनुष्य प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं, स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । मनुष्यों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहर्त की है । उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त मनुष्यों की काय-स्थिति है, उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है सूत्र - १६६६ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र - १६६७-१६६८ भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-ये देवों के चार भेद हैं । भवनवासी देवों के दस, व्यन्तर देवों के आठ, ज्योतिष्क देवों के पाँच और वैमानिक देवों के दो भेद हैं । सूत्र- १६६९ ___ असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक वायुकुमार और स्तनितकुमार-ये दस भवनवासी देव हैं। सूत्र - १६७० पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व-ये आठ व्यन्तर देव हैं। सूत्र - १६७१ चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा-ये पाँच ज्योतिष्क देव हैं । ये दिशाविचारी हैं। सूत्र - १६७२ वैमानिक देवों के दो भेद हैं-कल्प से सहित और कल्पातीत । सूत्र - १६७३-१६७४ कल्पोपग देव के बारह प्रकार हैं-सौधर्म, ईशानक, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत आरण और अच्युत । सूत्र - १६७५-१६७९ कल्पातीत देवों के दो भेद हैं-ग्रैवेयक और अनुत्तर | ग्रैवेयक नौ प्रकार के हैं-अधस्तन-अधस्तन, अधस्तन-मध्यम, अधस्तन-उपरितन, मध्यम-अधस्तन, मध्यम-मध्यम, मध्यम-उपरितन, उपरितन-अधस्तन, उपरितन-मध्यम और उपरितन-उपरितन-ये नौ ग्रैवेयक हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धक-ये पाँच अनुत्तर देव हैं । इस प्रकार वैमानिक देव अनेक प्रकार के हैं। सूत्र-१६८०-१६८१ वे सभी लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से उनके काल-विभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं । स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। सूत्र-१६८२-१६८४ भवनवासी देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति किंचित् अधिक एक सागरोपम की और जघन्य दस हजार वर्ष की है। व्यन्तर देवों की उत्कृष्ट आयु-स्थिति एक पल्योपम की और जघ की उत्कष्ट आय-स्थिति एक पल्योपम की और जघन्य दस हजार वर्ष की है। ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की और जघन्य पल्योपम का आठवाँ भाग है। सूत्र - १६८५-१६९६ सौधर्म देवों की उत्कृष्ट आयु-स्थिति दो सागरोपम और जघन्य एक पल्योपम । ईशान देवों की उत्कृष्ट किंचित् अधिक सागरोपम और जघन्य किंचित् अधिक एक पल्योपम । सनत्कुमार की उत्कृष्ट सात सागरोपम और जघन्य दो सागरोपम । माहेन्द्रकुमार की उत्कृष्ट किंचित् अधिक सात सागरोपम, और जघन्य किंचित् अधिक दो सागरोपम । ब्रह्मलोक देवों की उत्कृष्ट दस सागरोपम और जघन्य सात सागरोपम लान्तक देवों की उत्कृष्ट चौदह सागरोपम, जघन्य दस सागरोपम । महाशुक्र देवों की उत्कृष्ट सतरह सागरोपम और जघन्य चौदह सागरोपम । सहस्रार देवों की उत्कृष्ट अठारह सागरोपम, जघन्य सतरह सागरोपम । आनत देवों की उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम, जघन्य अठारह सागरोपम । प्राणत देवों की उत्कृष्ट बीस सागरोपम और जघन्य उन्नीस सागरोपम । आरण देवों की उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम, जघन्य बीस सागरोपम और अच्युत देवों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट बाईस सागरोपम, जघन्य इक्कीस सागरोपम हैं । सूत्र - १६९७-१७०५ प्रथम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तेईस जघन्य बाईस सागरोपम । द्वितीय ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 126 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक चौबीस जघन्य तेईस सागरोपम । तृतीय ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट पच्चीस, जघन्य चौबीस सागरोपम | चतुर्थ ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट छब्बीस, जघन्य पच्चीस सागरोपम | पंचम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट सत्ताईस, जघन्य छब्बीस सागरोपम । षष्ठ ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट अट्ठाईस सागरोपम और जघन्य सत्ताईस सागरोपम।। सप्तम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट उनतीस और जघन्य अट्ठाईस सागरोपम हैं । अष्टम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट तीस और जघन्य उनतीस सागरोपम हैं। और नवम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति इक्कीस सागरोपम और जघन्य तीस सागरोपम हैं। सूत्र-१७०६-१७०७ विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तैंतीस सागरोपम और जघन्य इकत्तीस सागरोपम हैं । महाविमान सर्वार्थसिद्ध के देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट आयु-स्थिति तैंतीस सागरोपम हैं। सूत्र - १७०८-१७०९ देवों की पूर्व-कथित जो आयु-स्थिति है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति है । देव के शरीर को छोड़कर पुनः देव के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र - १७१० वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते हैं। सूत्र- १७११-१७१२ इस प्रकार संसारी और सिद्ध जीवों का व्याख्यान किया गया । रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार के अजीवों का भी व्याख्यान हो गया । जीव और अजीव के व्याख्यान को सुनकर और उसमें श्रद्धा करके ज्ञान एवं क्रिया आदि सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे । सूत्र- १७१३-१७१४ तदनन्तर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस अनुक्रम से आत्मा की संलेखना-विकारों से क्षीणता करे। उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की होती है। मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास की है। सूत्र-१७१५-१७१८ प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का त्याग करे, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करे । फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप करे । भोजन के दिन आचाम्ल करे । उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट तप न करे । उसके बाद छह महिने तक विकृष्ट तप करे । इस पूरे वर्ष में परिमित आचाम्ल करे। बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक निरन्तर आचाम्ल करके फिर मुनि पक्ष या एक मास का अनशन करे । सूत्र - १७१९ कांदी, आभियोगी, किल्विषिकी, मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देनेवाली हैं । ये मृत्यु के समय में संयम की विराधना करती है। सूत्र - १७२०-१७२२ जो मरते समय मिथ्या-दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से युक्त हैं और हिंसक हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है । जो सम्यग्-दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से रहित हैं, शुक्ल लेश्या में अवगाढ-प्रविष्ट हैं, उन्हें बोधि सुलभ है । जो मरते समय मिथ्या-दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान सहित हैं, कृष्ण लेश्या में अवगाढ हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है। सूत्र-१७२३-१७२४ जो जिन-वचन में अनुरक्त हैं, जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीतसंसारी होते हैं । जो जीव जिन-वचन से अपरिचित हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण से मरते रहेंगे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-१७२५ जो अनेक शास्त्रों के वेत्ता, आलोचना करनेवालों को समाधि उत्पन्न करनेवाले और गुणग्राही होते हैं, वे इसी कारण आलोचना सुनने में समर्थ होते हैं। सूत्र- १७२६-१७२९ जो कन्दर्प, कौत्कुच्य करता है, तथा शील, स्वभाव, हास्य और विकथा से दूसरों को हँसाता है, वह कांदी भावना का आचरण करता है । जो सुख, घृतादि रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और भूति कर्म का प्रयोग करता है, वह अभियोगी भावना का आचरण करता है । जो ज्ञान की, केवल-ज्ञानी की, धर्माचार्य की, संघ की तथा साधुओं की निन्दा करता है, वह मायावी किल्बिषिकी भावना का आचरण करता है । जो निरन्तर क्रोध को बढ़ाता रहता है और निमित्त विद्या का प्रयोग करता है, वह आसुरी भावना का आचरण करता है। सूत्र - १७३० जो शस्त्र से, विषभक्षण से, अथवा अग्नि में जलकर तथा पानी में डूबकर आत्महत्या करता है, जो साध्वाचार से विरुद्ध भाण्ड रखता है, वह अनेक जन्म-मरणों का बन्धन करता है। सूत्र - १७३१ इस प्रकार भव्य-जीवों को अभिप्रेत छत्तीस उत्तराध्ययनों को-उत्तम अध्यायों को प्रकट कर बुद्ध, ज्ञातवंशीय, भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण - आगम-४३ (मूल सूत्र-३) 'उत्तराध्ययन' का हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 128 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 43, मूलसूत्र-४, उत्तराध्ययन' नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાદ્ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: 43 आगमसत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] AG 21188:- (1) (2) deepratnasagar.in भेला ड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोना 09825967397 DE मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 129