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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-४-असंस्कृत सूत्र - ११६
टूटा जीवन सांधा नहीं जा सकता, अतः प्रमाद मत करो, वृद्धावस्था में कोई शरण नहीं है । यह विचारो कि 'प्रमादी, हिंसक और असंयमी मनुष्य समय पर किसकी शरण लेंगे | सूत्र - ११७
जो मनुष्य अज्ञानता के कारण पाप-प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, वे वासना के जाल में पड़े हुए और वैर से बंधे मरने के बाद नरक में जाते हैं। सूत्र-११८
जैसे संधि-मुख में पकड़ा गया पापकारी चोर अपने कर्म से छेदा जाता है, वैसे ही जीव अपने कृत कर्मों के कारण लोक तथा परलोक में छेदा जाता है। किए हए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। सूत्र-११९
संसारी जीव अपने और अन्य बंधु-बांधवों के लिए साधारण कर्म करता है, किन्तु उस कर्म के फलोदय के समय कोई भी बन्धु बन्धुता नहीं दिखाता है। सूत्र - १२०
प्रमत्त मनुष्य इस लोक में और परलोक में धन से त्राण- नहीं पाता है । दीप बुझ गया हो उसको पहले प्रकाश में देखा हुआ मार्ग भी न देखे हुए जैसा हो जाता है, वैसे ही अनन्त मोह के कारण प्रमत्त व्यक्ति मोक्ष-मार्ग को देखता हुआ भी नहीं देखता है । सूत्र - १२१
आशुप्रज्ञावाला ज्ञानी साधक सोए हुए लोगों में भी प्रतिक्षण जागता रहे । प्रमाद में एक क्षण के लिए भी विश्वास न करे । समय भयंकर है, शरीर दुर्बल है। अतः भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमादी होकर विचरण करे। सूत्र - १२२
साधक पग-पग पर दोषों की संभावना को ध्यान में रखता हुआ चले, छोटे दोष को भी पाश समझकर सावधान रहे । नये गणों के लाभ के लिए जीवन सुरक्षित रखे । और जब लाभ न होता दीखे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर को छोड़े। सूत्र - १२३
शिक्षित और वर्म धारी अश्व जैसे युद्ध से पार हो जाता है, वैसे ही स्वच्छंदता निरोधक साधक संसार से पार हो जाता है। पूर्व जीवन में अप्रमत्त होकर विचरण करनेवाला मुनि शीघ्र ही मोक्ष पाता है। सूत्र-१२४
जो पूर्व जीवन में अप्रमत्त नहीं रहता, वह बाद में भी अप्रमत्त नहीं हो पाता है। यह ज्ञानी जनों की धारणा है। 'अभी क्या है, बाद में अन्तिम समय अप्रमत्त हो जाएंगे' यह शाश्वतवादियों की मिथ्या धारणा है। पूर्व जीवन में प्रमत्त रहनेवाला व्यक्ति, आयु के शिथिल होने पर मृत्यु के समय, शरीर छूटने की स्थिति आने पर विषाद पाता है सूत्र - १२५
कोई भी तत्काल विवेक को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः अभी से कामनाओं का परित्याग कर, सन्मार्ग में उपस्थित होकर, समत्व दृष्टि से लोक को अच्छी तरह जानकर आत्मरक्षक महर्षि अप्रमत्त होकर विचरे । सूत्र - १२६
बार-बार रागद्वेष पर विजय पाने को यत्नशील संयम में विचरण करते श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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