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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक चौबीस जघन्य तेईस सागरोपम । तृतीय ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट पच्चीस, जघन्य चौबीस सागरोपम | चतुर्थ ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट छब्बीस, जघन्य पच्चीस सागरोपम | पंचम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट सत्ताईस, जघन्य छब्बीस सागरोपम । षष्ठ ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट अट्ठाईस सागरोपम और जघन्य सत्ताईस सागरोपम।।
सप्तम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट उनतीस और जघन्य अट्ठाईस सागरोपम हैं । अष्टम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट तीस और जघन्य उनतीस सागरोपम हैं। और नवम ग्रैवेयक देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति इक्कीस सागरोपम और जघन्य तीस सागरोपम हैं। सूत्र-१७०६-१७०७
विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तैंतीस सागरोपम और जघन्य इकत्तीस सागरोपम हैं । महाविमान सर्वार्थसिद्ध के देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट आयु-स्थिति तैंतीस सागरोपम हैं। सूत्र - १७०८-१७०९
देवों की पूर्व-कथित जो आयु-स्थिति है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति है । देव के शरीर को छोड़कर पुनः देव के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र - १७१०
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते हैं। सूत्र- १७११-१७१२
इस प्रकार संसारी और सिद्ध जीवों का व्याख्यान किया गया । रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार के अजीवों का भी व्याख्यान हो गया । जीव और अजीव के व्याख्यान को सुनकर और उसमें श्रद्धा करके ज्ञान एवं क्रिया आदि सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे । सूत्र- १७१३-१७१४
तदनन्तर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस अनुक्रम से आत्मा की संलेखना-विकारों से क्षीणता करे। उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की होती है। मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास की है। सूत्र-१७१५-१७१८
प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का त्याग करे, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करे । फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप करे । भोजन के दिन आचाम्ल करे । उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट तप न करे । उसके बाद छह महिने तक विकृष्ट तप करे । इस पूरे वर्ष में परिमित आचाम्ल करे। बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक निरन्तर आचाम्ल करके फिर मुनि पक्ष या एक मास का अनशन करे । सूत्र - १७१९
कांदी, आभियोगी, किल्विषिकी, मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देनेवाली हैं । ये मृत्यु के समय में संयम की विराधना करती है। सूत्र - १७२०-१७२२
जो मरते समय मिथ्या-दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से युक्त हैं और हिंसक हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है । जो सम्यग्-दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से रहित हैं, शुक्ल लेश्या में अवगाढ-प्रविष्ट हैं, उन्हें बोधि सुलभ है । जो मरते समय मिथ्या-दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान सहित हैं, कृष्ण लेश्या में अवगाढ हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है। सूत्र-१७२३-१७२४
जो जिन-वचन में अनुरक्त हैं, जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीतसंसारी होते हैं । जो जीव जिन-वचन से अपरिचित हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण से मरते रहेंगे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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