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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक पराक्रम को धनुष, ईर्या समिति को उसकी डोर, धृति को उसकी मूठ बनाकर, सत्य से उसे बांधकर-तप के बाणों से युक्त धनुष से कर्म-रूपी कवच को भेदकर अन्तर्युद्ध का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।'' सूत्र-२५१-२५२
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! पहले तुम प्रासाद, वर्धमान गृह, चन्द्रशालाएँ बनाकर फिर जाना ।' सूत्र- २५३-२५४
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो मार्ग में घर बनाता है, वह अपने को संशय में डालता है, अतः जहाँ जाने की इच्छा हो वहीं अपना स्थायी घर बनाना चाहिए।" सूत्र - २५५-२५६
इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! पहले तुम बटमारों, प्राणघातक डाकुओं, गांठ काटनेवालों और चोरों से नगर की रक्षा करके फिर जाना ।' सूत्र-२५७-२५८
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''इस लोक में मनुष्यों द्वारा अनेक बार मिथ्यादण्ड का प्रयोग किया जाता है । अपराध न करनेवाले निर्दोष पकड़े जाते हैं, सही अपराधी छूट जाते हैं।'' सूत्र - २५९-२६०
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! जो राजा अभी तुम्हें नमते नहीं हैं, पहले उन्हें अपने वश में करके फिर जाना ।' सूत्र - २६१-२६४
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो दुर्जय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय ही परम विजय है
बाहर के युद्धों से क्या ? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है-पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन-ये ही वास्तव में दुर्जेय हैं । एक अपने आप को जीत लेने पर सभी जीत लिए जाते हैं ।' सूत्र - २६५-२६६
इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! तुम विपुल यज्ञ कराकर, श्रमण और ब्राह्मणों को भोजन कराकर, दान देकर, भोग भोगकर और स्वयं यज्ञ कर के फिर जाना ।" सूत्र - २६७-२६८
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो मनुष्य प्रति मास दस लाख गायों का दान करता है, उसको भी संयम ही श्रेय है । फिर भले ही वह किसी को कुछ भी दान न करे ।' सूत्र- २६९-२७०
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-'' हे मनुजाधिप ! तुम गृहस्थ आश्रम को छोड़कर जो दूसरे संन्यास आश्रम की इच्छा करते हो, यह उचित नहीं है।
गृहस्थ आश्रम में ही रहते हुए पौषधव्रत में अनुरत रहो ।' सूत्र - २७१-२७२
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जो बाल साधक महीने-महीने के तप करता है और पारणा में कुश के अग्र भाग पर आए उतना ही आहार ग्रहण करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी पा नहीं सकता है।"
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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