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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-९-नमिप्रव्रज्या सूत्र-२२९-२३०
देवलोक से आकर नमि के जीवने मनुष्य लोक में जन्म लिया । उसका मोह उपशान्त हआ, तो उसे पूर्वजन्म का स्मरण हुआ । स्मरण करके अनुत्तर धर्म में स्वयं संबुद्ध बने । राज्य का भार पुत्र को सौंपकर उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया। सूत्र - २३१
नमिराजा श्रेष्ठ अन्तःपुरमें रह कर, देवलोक के भोगों के समान सुन्दर भोगों को भोगकर एक दिन प्रबुद्ध हुए और उन्होंने भोगों का परित्याग किया। सूत्र - २३२
भगवान् नमि ने पुर और जनपदसहित अपनी राजधानी मिथिला, सेना, अन्तःपुर और समग्र परिजनों को छोड़कर अभिनिष्क्रमण किया और एकान्तवासी बने । सूत्र-२३३
जिस समय राजर्षि नमि अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो रहे थे, उस समय मिथिला में बहत कोलाहल हुआ था। सूत्र - २३४-२३५
उत्तम प्रव्रज्या-स्थान के लिए प्रस्तुत हुए नमि राजर्षि को ब्राह्मण के रूप में आए हुए देवेन्द्रने कहा-'हे राजर्षि ! आज मिथिला नगरी में, प्रासादों में और घरों में कोलाहल पूर्ण दारुण शब्द क्यों सुनाई दे रहे हैं?'' सूत्र-२३६-२३८
देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने देवेन्द्र को कहा-''मिथिला में एक चैत्य वृक्ष था। जो शीतल छायावाला, मनोरम, पत्र-पुष्प एवं फलों से युक्त, बहुतों के लिए सदैव बहुत उपकारक था-प्रचण्ड आंधी से उस मनोरम वृक्ष के गिर जाने पर दुःखित, अशरण और आर्त ये पक्षी क्रन्दन कर रहे हैं।' सूत्र- २३९-२४०
राजर्षि के इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''यह अग्नि है, यह वायु है और इनसे यह आपका राजभवन जल रहा है। भगवन् ! आप अपने अन्तःपुर की ओर क्यों नहीं देखते ?'' सूत्र - २४१-२४४
देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''जिनके पास अपना जैसा कुछ भी नहीं है, ऐसे हम लोग सुख से रहते हैं, सुख से जीते हैं।
मिथिला के जलने में मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है-पुत्र, पत्नी और गृह-व्यापार से मुक्त भिक्षु के लिए न कोई वस्तु प्रिय होती है और न कोई अप्रिय-'सब ओर से मैं अकेला ही हूँ'-इस प्रकार एकान्तद्रष्टा-गृहत्यागी मुनि को सब प्रकार से सुख ही सुख है। सूत्र-२४५-२४६
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-'हे क्षत्रिय ! पहले तुम नगर का परकोटा, गोपुर, अट्टालिकाएँ, दुर्ग की खाई, शतघ्नी-बनाकर फिर जाना, प्रव्रजित होना ।' सूत्र - २४७-२५०
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-'' श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा को मन, वचन, काय की त्रिगुप्ति से सुरक्षित, एवं अजेय मजबूत प्राकार बनाकर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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