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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-५५३
जो दूध, दही आदि विकृतियाँ बार-बार खाता है, जो तप-क्रिया में रुचि नहीं रखता है, वह पापश्रमणकहलाता है। सूत्र -५५४
जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार-बार खाता रहता है, समझाने पर उलटा पड़ता है-वह पापश्रमण कहलाता है। सूत्र-५५५
जो अपने आचार्य का परित्याग कर अन्य पाषण्ड-को स्वीकार करता है, जो गाणंगणिक होता है-वह निन्दित पापश्रमण है। सूत्र - ५५६
जो अपने घर को छोड़कर परघर में व्याप्त होता है-शुभाशुभ बतलाकर द्रव्यादिक उपार्जन करता है, वह पापश्रमण है। सूत्र-५५७
जो अपने ज्ञातिजनों से आहार ग्रहण करता है, सभी घरों से सामुदायिक भिक्षा नहीं चाहता है, गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप-श्रमण है।
सूत्र-५५८
जो इस प्रकार आचरण करता है, वह पार्श्वस्थादि पाँच कुशील भिक्षुओं के समान असंवृत है, केवल मुनिवेष का ही धारक है, श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है । वह इस लोक में विषकी तरह निन्दनीय होता है, अतः न वह इस लोक का रहता है, न परलोक का । सूत्र-५५९
जो साधु इन दोषों को सदा दूर करता है, वह मुनियों में सुव्रत होता है । इस लोक में अमृत की तरह पूजा जाता है। अतः वह इस लोक तथा परलोक दोनों की आराधना करता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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