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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१८-संजयीय सूत्र-५६०-५६२
काम्पिल्य नगर में सेना और वाहन से सुसंपन्न ‘संजय' नाम का राजा था । एक दिन मृगया के लिए निकला । वह राजा सब ओर से विशाल अश्वसेना, गजसेना, रथसेना तथा पदाति सेना से परिवृत्त था । राजा अश्व पर आरूढ़ था । वह रस-मूर्च्छित होकर काम्पिल्य नगर के केशर उद्यान की ओर ढकेले गए भयभीत एवं श्रान्त हिरणों को मार रहा था । सूत्र - ५६३-५६५
उस केशर उद्यान में एक तपोधन अनगार स्वाध्याय एवं ध्यान में लीन थे, धर्मध्यान की एकाग्रता साध रहे थे। आश्रव क्षय करने वाले अनगार लतामण्डप में ध्यान कर रहे थे। उनके समीप आए हिरणों का राजा ने वध कर दिया । अश्वारूढ़ राजा शीघ्र वहाँ आया । मृत हिरणों को देखने के बाद उसने वहाँ एक ओर अनगार भी देखा सूत्र -५६६-५६८
राजा मुनि को देखकर सहसा भयभीत हो गया। उसने सोचा-''मैं कितना मन्दपुण्य, रसासक्त एवं हिंसक वृत्ति का हूँ कि मैंने व्यर्थ ही मुनि को आहत किया है ।'' घोड़े को छोड़कर उस राजा ने विनयपूर्वक अनगार के चरणों को वन्दन किया और कहा कि-भगवन् ! इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें । वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान में लीन थे । उन्होंने राजा को कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया, अतः राजा और अधिक भयाक्रान्त हुआ सूत्र - ५६९
''भगवन् ! मैं संजय हूँ। आप मुझ से कुछ तो बोलें । मैं जानता हूँ-क्रुद्ध अनगार अपने तेज से करोड़ों मनुष्यों को जला डालते हैं।' सूत्र - ५७०-५७२
पार्थिव ! तुझे अभय है । पर, तू भी अभयदाता बन । इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में संलग्न है ? सब कुछ छोड़कर जब तुझे यहाँ से अवश्य लाचार होकर चले जाना है, तो इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ? राजन् ! तू जिसमें मोहमुग्ध है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल है। तू अपने परलोक के हित को नहीं समझ रहा है। सूत्र - ५७३-५७४
स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र तथा बन्धुजन जीवित व्यक्ति के साथ ही जीते हैं । कोई भी मृत व्यक्ति के पीछे नहीं जाता है- अत्यन्त दु:ख के साथ पुत्र अपने मृत पिता को घर से बाहर श्मशान में निकाल देते हैं । उसी प्रकार पुत्र को पिता और बन्धु को अन्य बन्धु भी बाहर निकालते हैं । अतः राजन् ! तू तप का आचरण कर । सूत्र-५७५-५७६
'मृत्यु के बाद उस मृत व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन का तथा सुरक्षित स्त्रियों का हृष्ट, तुष्ट एवं अलंकृत होकर अन्य लोग उपभोग करते हैं । जो सुख अथवा दुःख के कर्म जिस व्यक्ति ने किए हैं, वह अपने उन कर्मों के साथ परभव में जाता है।'' सूत्र - ५७७-५७८
अनगार के पास से महान् धर्म को सुनकर, राजा मोक्ष का अभिलाषी और संसार से विमुख हो गया । राज्य को छोड़कर वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन में दीक्षित हो गया। सूत्र-५७९
राष्ट्र को छोड़कर प्रव्रजित हुए क्षत्रिय मुनि ने एक दिन संजय मुनि को कहा-तुम्हारा यह रूप जैसे प्रसन्न है,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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