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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन
अध्ययन / सूत्रांक
सूत्र - ९९८ - १०००
संतुष्ट हुए विजयघोष ने हाथ जोड़कर कहा- तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा उपदेश दिया है। तुम यज्ञों के यष्टा हो, वेदों को जाननेवाले विद्वान् हो, ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हो, धर्मों के पारगामी हो । अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हो। अतः भिक्षुश्रेष्ठ! भिक्षा स्वीकार कर हम पर अनुग्रह करो। सूत्र - १००१
मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है । हे द्विज ! शीघ्र ही अभिनिष्क्रमण कर । ताकि भय के आवर्तों वाले संसार सागर में तुझे भ्रमण न करना पड़े ।
सूत्र - २००२
भोगों में कर्म का उपलेप होता है। अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता है। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी उससे विप्रमुक्त हो जाता है।
सूत्र - १००३-२००४
एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके गये । वे दोनों दिवार पर गिरे । जो गीला था, वह वहीं चिपक गया । इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और काम भोगों में आसक्त है, वे विषयों में चिपक जाते हैं। विरक्त साधु सूखे गोले की भाँति नहीं चिपकते हैं ।"
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सूत्र - २००५
इस प्रकार विजयघोष, जयघोष अनगार के समीप, अनुत्तर धर्म को सुनकर दीक्षित हो गया ।
सूत्र १००६
जयघोष और विजयघोषने संयम और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की। - ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन- २५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद"
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