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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२१-समुद्रपालीय सूत्र- ७७३-७७६
चम्पा नगरी में पालित' नामक एक वणिक् श्रावक था । वह विराट पुरुष भगवान् महावीर का शिष्य था। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन का विद्वान था । एक बार पोत से व्यापार करता हआ वह पिहण्ड नगर आया । वहाँ व्यापार करते समय उसे एक व्यापारी ने विवाह के रूप में अपनी पुत्री दी।
कुछ समय के बाद गर्भवती पत्नी को लेकर उसने स्वदेश की ओर प्रस्थान किया । पालित की पत्नी ने समुद्र में ही पुत्र को जन्म दिया । इसी कारण उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा। सूत्र-७७७-७७९
वह वणिक् श्रावक सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर आया । वह सुकुमार बालक उसके घर में आनन्द के साथ बढ़ने लगा । उसने बहत्तर कलाएँ सीखीं, वह नीति-निपुण हो गया । वह युवावस्था से सम्पन्न हुआ तो सभी को सुन्दर और प्रिय लगने लगा।
पिता ने उसके लिए 'रूपिणी' नाम की सुन्दर भार्या ला दी । वह अपनी पत्नी के साथ दोगुन्दक देव की भाँति सुरम्य प्रासाद में क्रीड़ा करने लगा। सूत्र - ७८०-७८२
एक समय वह प्रासाद के आलोकन में बैठा था । वध्य चिन्हों से युक्त वध्य को बाहर वध-स्थान की ओर ले जाते हुए उसने देखा । उसे संवेग-प्राप्त समुद्रपाल ने मन में कहा-खेद है ! यह अशुभ कर्मों का दुःखद परिणाम है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए वह महान् आत्मा संवेग को प्राप्त हुआ और सम्बुद्ध हो गया । माता-पिता को पूछ कर उसने अनगारिता दीक्षा ग्रहण की। सूत्र-७८३
दीक्षित होने पर मुनि महा क्लेशकारी, महामोह और पूर्ण भयकारी संग का परित्याग करके पर्यायधर्म में, व्रत में, शील में और परीषहों में अभिरुचि रखे । सूत्र-७८४
विद्वान् मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे । सूत्र - ७८५
इन्द्रियों का सम्यक संवरण करने वाला भिक्षु सब जीवों के प्रति करुणाशील रहे, क्षमा से दुर्वचनादि को सहे, संयत हो, ब्रह्मचारी हो । सदैव सावधयोग का परित्याग करता हआ विचरे। सूत्र - ७८६
साधु समयानुसार अपने बलाबल को जानकर राष्ट्रों में विचरण करे । सिंह की भाँति भयोत्पादक शब्द सुनकर भी संत्रस्त न हो । असभ्य वचन सुनकर भी बदले में असभ्य वचन न कहे। सूत्र-७८७
संयमी प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे । प्रिय-अप्रिय परीषहों को सहन करे । सर्वत्र सबकी अभिलाषा न करे, पूजा और गर्दा भी न चाहे । सूत्र-७८८
यहाँ संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय होते हैं । भिक्षु उन्हें अपने में भी भाव से जानता है। अतः वह देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यंचकृत भयोत्पादक भीषण उपसर्गों को सहन करे |
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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