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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ७८९-७९१
__ अनेक असह्य परीषह प्राप्त होने पर बहुत से कायर लोग खेद का अनुभव करते हैं । किन्तु भिक्षु परीषह होने पर संग्राम में आगे रहने वाले हाथी की तरह व्यथित न हो।
शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर, तृण-स्पर्श तथा अन्य विविध प्रकार के आतंक जब भिक्षु को स्पर्श करें, तब वह कुत्सित शब्द न करते हुए उन्हें समभाव से सहे । पूर्वकृत कर्मों को क्षीण करे ।
विचक्षण भिक्षु सतत राग-द्वेष और मोह को छोड़कर, वायु से अकम्पित मेरु की भाँति आत्म-गुप्त बनकर परीषहों को सहे। सूत्र - ७९२
पूजा-प्रतिष्ठा में उन्नत और गर्दा में अवनत न होने वाला महर्षि पूजा और गर्दा में लिप्त न हो । वह समभावी विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाण-मार्ग को प्राप्त होता है। सूत्र - ७९३
जो अरति और रति को सहता है, संसारी जनों के परिचय से दूर रहता है, विरक्त है, आत्म-हित का साधक है, संयमशील है, शोक रहित है, ममत्त्व रहित है, अकिंचन है, वह परमार्थ पदों में स्थित होता है। सूत्र - ७९४
त्रायी, महान् यशस्वी ऋषियों द्वारा स्वीकृत, लेपादि कर्म से रहित, असंसृत से एकान्त स्थानों का सेवन करे और परीषहों को सहन करे । सूत्र - ७९५
_ अनुत्तर धर्म-संचय का आचरण करके सद्ज्ञान से ज्ञान को प्राप्त करनेवाला, अनुत्तर ज्ञानधारी, यशस्वी महर्षि, अन्तरिक्ष में सूर्य की भाँति धर्म-संघ में प्रकाशमान होता है। सूत्र - ७९६
समुद्रपाल मुनि पुण्य-पाप दोनों ही कर्मों का क्षय करके संयम से निश्चल और सब प्रकार से मुक्त होकर समुद्र की भाँति विशाल संसार-प्रवाह को तैर कर मोक्ष में गए। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-२१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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