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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक है, कभी सचेलक । दोनों ही स्थितियाँ संयम धर्म के लिए हितकारी है।'-ऐसा समझकर मुनि खेद न करे । सूत्र- ६३-६४
गांव से गांव विचरण करते हुए अकिंचन अनगार के मन में यदि कभी संयम के प्रति अरति-अरुचि, उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह सहन करे । विषयासक्ति से विरक्त रहनेवाला, आत्मभाव की रक्षा करनेवाला, धर्म में रमण करनेवाला, आरम्भ-प्रवृत्ति से दूर रहनेवाला निरारम्भ मुनि अरति का परित्याग कर उपशान्त भाव से विचरण करे । सूत्र-६५-६६
'लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे पुरुषों के लिए बंधन है'-ऐसा जो जानता है, उसका श्रामण्य-सुकृत होता है । 'ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियाँ पंक-समान हैं-मेधावी मुनि इस बात को समझकर किसी भी तरह संयमी जीवन का विनिघात न होने दे, किन्तु आत्मस्वरूप की खोज करे । सूत्र - ६७-६८
शुद्ध चर्या से प्रशंसित मुनि एकाकी ही परीषहों को पराजित कर गाँव, नगर, निगम अथवा राजधानी में विचरण करे । भिक्षु गृहस्थादि से असमान होकर विहार करे, परिग्रह संचित न करे, गृहस्थों में निर्लिप्त रहे । सर्वत्र अनिकेत भाव से मुक्त होकर परिभ्रमण करे । सूत्र- ६९-७०
श्मशान में, सूने घर में और वृक्ष के मूल में एकाकी मुनि अपचल भाव से बैठे । आसपास के अन्य किसी प्राणी को कष्ट न दे । उक्त स्थानों में बैठे हए यदि उपसर्ग आ जाए तो उसे समभाव से धारण करे । अनिष्ट की शंका से भयभीत होकर वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर न जाए। सूत्र - ७१-७२
ऊंची-नीची शय्या (उपाश्रय) के कारण तपस्वी एवं सक्षम भिक्षु संयम-मर्यादा को भंग न करे, पाप दृष्टिवाला साधु ही हर्ष शोक से अभिभूत होकर मर्यादा तोड़ता है । प्रतिरिक्त एकान्त उपाश्रय पाकर, भले ही वह अच्छा हो या बुरा, उसमें मुनि को समभाव से यह सोच कर रहना चाहिए कि यह एक रात क्या करेगी ? सूत्र-७३-७४
यदि कोई भिक्षु को गाली दे, तो वह उसके प्रति क्रोध न करे । क्रोध करने वाला अज्ञानियों के सदृश होता है । अतः भिक्षु आक्रोश-काल में संज्वलित न हो, दारुण, ग्रामकण्टक की तरह चुभने वाली कठोर भाषा को सुन कर भिक्षु मौन रहे, उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए । सूत्र-७५-७६
मारे-पीटे जाने पर भी भिक्षु क्रोध न करे । दुर्भावना से मन को भी दूषित न करे । तितिक्षा-को साधना का श्रेष्ठ अंग जानकर मुनिधर्म का चिन्तन करे । संयत और दान्त-श्रमण को यदि कोई कहीं मारे-पीटे तो यह चिन्तन करे कि आत्मा का नाश नहीं होता है। सूत्र-७७-७८
वास्तव में अनगार भिक्षु ही यह चर्या सदा से ही दुष्कर रही है कि उसे वस्त्र, पात्र, आहारादि सब कुछ याचना से मिलता है । उसके पास कुछ भी अयाचित नहीं होता है । गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट साधु के लिए गृहस्थ के सामने हाथ फैलाना सरल नहीं है, अतः 'गृहवास ही श्रेष्ठ है'-मुनि ऐसा चिन्तन न करे। सूत्र - ७९-८०
गृहस्थों के घरों में भोजन तैयार हो जाने पर आहार की एषणा करे। आहार थोड़ा मिले, या न मिले, पर संयमी मुनि इसके लिए अनुताप न करे । 'आज मुझे कुछ नहीं मिला, संभव है, कल मिल जाय'-जो ऐसा सोचता है, उसे अलाभ कष्ट नहीं देता।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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