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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-८१-८२
'कर्मों के उदय से रोग उत्पन्न होता है'-ऐसा जानकर वेदना से पीड़ित होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित प्रज्ञा को स्थिर बनाए और प्राप्त पीडा को समभाव से सहे । आत्मगवेषक मुनि चिकित्सा
पीड़ा को समभाव से सहे । आत्मगवेषक मुनि चिकित्सा का अभिनन्दन न करे, समाधिपूर्वक रहे । यही उसका श्रामण्य है कि वह रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा न करे, न कराए। सूत्र - ८३-८४
अचेलक और रूक्षशरीरी संयत तपस्वी साधु को घास पर सोने से शरीर को कष्ट होता है । गर्मी पड़ने से घास पर सोते समय बहुत वेदना होती है, यह जान करके तृण-स्पर्श से पीड़ित मुनि वस्त्र धारण नहीं करते हैं। सूत्र-८५-८६
ग्रीष्म ऋतु में मैल से, रज से अथवा परिताप से शरीर के लिप्त हो जाने पर मेधावी मुनि साता के लिए विलाप न करे । निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्यधर्म को पाकर शरीर-विनाश के अन्तिम क्षणों तक भी शरीर पर जल्ल-स्वैद-जन्य मैल को रहने दे। सूत्र-८७-८८
राजा आदि द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार एवं निमन्त्रण को जो अन्य भिक्षु स्वीकार करते हैं, मुनि उनकी स्पृहा न करे । अनुत्कर्ष, अल्प इच्छावाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेनेवाला अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्धआसक्त न हो । प्रज्ञावान् दूसरों को सम्मान पाते देख अनुताप न करे । सूत्र-८९-९०
निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञानरूप फल देनेवाले अपकर्म किए हैं, जिससे मैं किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर कुछ भी उत्तर देना नहीं जानता हूँ।'' 'अज्ञानरूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म परिपक्व होने पर उदय में आते हैं। इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि अपने को आश्वस्त करे। सूत्र-९१-९२
''मैं व्यर्थ में ही मैथुनादि सांसारिक सुखों से विरक्त हुआ, इन्द्रिय और मन का संवरण किया । क्योंकि धर्म कल्याण-कारी है या पापकारी है, यह मैं प्रत्यक्ष तो कुछ देख पाता नहीं हूँ-" ऐसा मुनि न सोचे । 'तप और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमाओं का भी पालन कर रहा हूँ, इस प्रकार विशिष्ट साधनापथ पर विहरण करने पर भी मेरा छद्म दूर नहीं हो रहा है-'' ऐसा चिन्तन न करे । सूत्र-९३-९४
"निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, मैं तो धर्म के नाम पर ठगा गया हूँ'-''पूर्व काल में जिन हुए थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे''-ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। सूत्र - ९५
कश्यप-गोत्रीय भगवान महावीर ने इन सभी परीषहों का प्ररूपण किया है। इन्हें जानकर कहीं भी किसी भी परीषह से स्पृष्ट-आक्रान्त होने पर भिक्षु इनसे पराजित न हो । -ऐसा में कहता हूँ।
अध्ययन-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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