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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन- २३- केशिगौतमीय
अध्ययन / सूत्रांक
सूत्र - ८४७-८५०
पार्श्व नामक जिन, अर्हन्, लोकपूजित सम्बुद्धात्मा, सर्वज्ञ, धर्म-तीर्थ के प्रवर्त्तक और वीतराग थे। लोकप्रदीप भगवान् पार्श्व के ज्ञान और चरण के पारगामी, महान् यशस्वी केशीकुमार श्रमण शिष्य थे। वे अवधि ज्ञान और श्रुत ज्ञान से प्रबुद्ध थे । शिष्य संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए। नगर के । निकट तिन्दुक उद्यान में जहाँ प्रासुक निर्दोष शय्या और संस्तारक सुलभ थे, ठहर गए।
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सूत्र - ८५१-८५४
उसी समय धर्म-तीर्थ के प्रवर्त्तक, जिन, भगवान् वर्द्धमान थे, जो समग्र लोक में प्रख्यात थे । उन लोकप्रदीप भगवान् वर्द्धमान के विद्या और चारित्र के पारगामी, महान् यशस्वी भगवान् गौतम शिष्य थे । बारह अंगों के वेत्ता, प्रबुद्ध गौतम भी शिष्य संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए नगर के निकट कोष्ठक - उद्यान में, जहाँ प्रासुक शय्या, एवं संस्तारक सुलभ थे, ठहर गए ।
सूत्र - ८५५
कुमारश्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम-दोनों वहाँ विचरते थे। दोनों ही आलीन और सुसमाहित थे । सूत्र - ८५६-८५९
संयत, तपस्वी, गुणवान् और षट्काय के संरक्षक दोनों शिष्य संघों में यह चिन्तन उत्पन्न हुआ यह कैसा धर्म है ? और यह कैसा धर्म है? आचार धर्म की प्रणिधि यह कैसी है और यह कैसी है ? यह चातुर्याम धर्म है, इसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्वनाथ ने किया है और यह पंच शिक्षात्मक धर्म है, इसका महामुनि वर्द्धमान ने प्रतिपादन किया है । यह अचेलक धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर धर्म पार्श्वनाथ ने प्ररूपित किया है। एक ही लक्ष्य से प्रवृत्त दोनों में इस विशेष भेद का क्या कारण है ?"
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सूत्र - ८६०
केशी और गौतम दोनों ने ही शिष्यों के प्रवितर्कित को जानकर परस्पर मिलने का विचार किया ।
सूत्र - ८६१-८६३
केशी श्रमण के कुल को जेष्ठ कुल जानकर प्रतिरूपज्ञ गौतम शिष्यसंघ के साथ तिन्दुक वन में आए । गौतम को आते हुए देखकर केशी कुमार श्रमण ने उनकी सम्यक् प्रकार से प्रतिरूप प्रतिपत्ति की। गौतम को बैठने के लिए शीघ्र ही उन्होंने प्रासुक पयाल और पाँचवाँ कुश-तृण समर्पित किया ।
सूत्र - ८६४
श्रमण केशीकुमार और महान् यशस्वी गौतम-दोनों बैठे हुए चन्द्र और सूर्य की तरह सुशोभित हो रहे थे । सूत्र - ८६५-८६६
कौतूहल की अबोध दृष्टि से वहाँ दूसरे सम्प्रदायों के बहुत से परिव्राजक आए और अनेक सहस्र गृहस्थ भी। देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहाँ एक तरह से समागम सा हो गया था ।
सूत्र - ८६७-८७१
केशी ने गौतम से कहा- महाभाग ! में तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। केशी के यह कहने पर गौतम ने कहा- भन्ते ! जैसी भी इच्छा हो पूछिए। तदनन्तर अनुज्ञा पाकर केशी ने गौतम को कहा- यह चतुर्याम धर्म है। इसका महामुनि पार्श्वनाथ ने प्रतिपादन किया है। यह जो पंच शिक्षात्मक धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है। मेधाविन्! एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं, तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? इन दो प्रकार के धर्मों में तुम्हें विप्रत्यय कैसे नहीं होता? तब गोतम ने कहा-तत्त्व का निर्णय जिसमें होता है, ऐसे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद"
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