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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३१-चरणविधि सूत्र-१२२६
जीव को सुख प्रदान करने वाली उस चरण-विधि का कथन करूँगा, जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार-सागर को तैर गए हैं। सूत्र - १२२७
साधक को एक ओर से निवृत्ति और एक ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए । असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति। सूत्र - १२२८
पाप कर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष हैं । इन दो पापकर्मों का जो भिक्षु सदा निरोध करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२२९
तीन दण्ड, तीन गौरव और तीन शल्यों का जो भिक्ष सदैव त्याग करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३०
देव, तिर्यंच और मनुष्य-सम्बन्धी उपसर्गों को जो भिक्षु सदा सहन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३१
जो भिक्षु विकथाओं का, कषायों का, संज्ञाओं का और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान का सदा वर्जन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३२
जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में तथा इन्द्रिय-विषयों और क्रियाओं के परिहार में सदा यत्नशील रहता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र-१२३३
जो भिक्षु छह लेश्याओं, पृथ्वी कायं आदि छह कायों और आहार के छह कारणों में सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र-१२३४
पिण्डावग्रहों में, आहार ग्रहण की सात प्रतिमाओं में और सात भय-स्थानों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र-१२३५
मद-स्थानों में, ब्रह्मचर्य की गुप्तियों में और दस प्रकार के भिक्षु-धर्मों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३६
उपासकों की प्रतिमाओं में, भिक्षुओं की प्रतिमाओं में जो भिक्ष सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३७
क्रियाओं में, जीव-समुदायों में और परमाधार्मिक देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रुकता है। सूत्र - १२३८
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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