________________
आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, उत्तराध्ययन
अध्ययन / सूत्रांक
सूत्र - १२७३
मनोज्ञ रूप की आशा का अनुगमन करनेवाला व्यक्ति अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही अधिक महत्त्व देने वाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है।
सूत्र - १२७४
रूप में अनुपात और परिग्रह के कारण रूप के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती ।
सूत्र - १२७५
रूप में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। वह असंतोष के दोष से दुःखी एवं लोभ से आविल व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है ।
सूत्र - १२७६
रूप और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । परन्तु कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है।
सूत्र - १२७७
झूठ बोलने के पहले उसके पश्चात् और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है उसका अन्त भी । दुःखरूप होता है। इस प्रकार रूप से अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है।
सूत्र - १२७८
इस प्रकार रूप में अनुरक्त मनुष्य को कहाँ, कब और कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए मनुष्य दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है ।
सूत्र - १२७९
इस प्रकार रूप के प्रति द्वेष करने वाला भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं ।
सूत्र - १२८०
रूप में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से ।
सूत्र - १२८१-१२८२
श्रोत्र का ग्रहण शब्द है । जो शब्द राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं । जो शब्द द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । श्रोत्र शब्द का ग्राहक है, शब्द श्रोत्र का ग्राह्य है । जो राग का कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं ।
सूत्र - १२८३-१२८४
जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे शब्द में अतृप्त मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है, जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें शब्द का कोई अपराध नहीं है।
सूत्र - १२८५
जो प्रिय शब्द में एकान्त आसक्त होता है और अप्रिय शब्द में द्वेष करता है, वह अज्ञानी को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
दुःख
की पीड़ा
Page 103