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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह भयंकर बन्धन हैं । उन्हें काटकर धर्मनीति एवं आचार के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। सूत्र-८९०-८९१
गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और भी सन्देह है, गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न एक लता है । उसको विष-तुल्य फल लगते हैं । उसे तुमने कैसे उखाड़ा? सूत्र-८९२
गणधर गौतम-उस लता को सर्वथा काटकर एवं जड़ से उखाड़ कर नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। अतः मैं विष-फल खाने से मुक्त हूँ। सूत्र - ८९३-८९४
वह लता कौनसी है ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-भवतृष्णा ही भयंकर लता है । उसके भयंकर परिपाक वाले फल लगते हैं । हे महामुने ! उसे जड़ से उखाड़कर मैं नीति के अनुसार विचरण करता हूँ। सूत्र-८९५-८९६
गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । घोर प्रचण्ड अग्नियाँ प्रज्वलित हैं। वे जीवों को जलाती हैं। उन्हें तुमने कैसे बुझाया ? सूत्र-८९७
गणधर गौतम- महामेघ से प्रसूत पवित्र-जल को लेकर मैं उन अग्नियों का निरन्तर सिंचन करता हूँ । अतः सिंचन की गई अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती हैं।'' सूत्र-८९८-८९९
वे कौन-सी अग्नियाँ है ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-कषाय अग्नियाँ हैं । श्रुत, शील और तप जल है । श्रुत, शील, तप रूप जल-धारा से बुझी हुई और नष्ट हुई अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती हैं। सूत्र- ९००-९०१
गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा सन्देह दूर किया है । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । यह साहसिक, भयंकर, दुष्ट अश्व दौड़ रहा है । गौतम ! तुम उस पर चढ़े हुए हो । वह तुम्हें उन्मार्ग पर कैसे नहीं ले जाता है? सूत्र - ९०२
गणधर गौतम-दौड़ते हुए अश्व को मैं श्रुतरश्मि से-वश में करता हूँ। मेरे अधीन हुआ अश्व उन्मार्ग पर नहीं जाता है, अपितु सन्मार्ग पर ही चलता है।'' सूत्र - ९०३-९०४
अश्व किसे कहा गया है ? केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-मन ही साहसिक, भयंकर, दुष्ट अश्व है, जो चारों तरफ दौड़ता है । उसे मैं अच्छी तरह वश में करता हूँ । धर्मशिक्षा से वह कन्थक अश्व हो गया है।'' सूत्र - ९०५-९०६
गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें । गौतम ! लोक में कुमार्ग बहुत हैं, जिससे लोग भटक जाते हैं । मार्ग पर चलते हुए तुम क्यों नहीं भटकते हो? सूत्र - ९०७
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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