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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-७-उरभ्रीय सूत्र-१७९-१८२
जैसे कोई व्यक्ति संभावित अतिथि के उद्देश्य से मेमने का पोषण करता है। उसे चावल, जौ या हरी घास आदि देता है। और उसका यह पोषण अपने आंगन में ही करता है । इस प्रकार वह मेमना अच्छा खाते-पीते पुष्ट, बलवान, मोटा, बड़े पेटवाला हो जाता है ।
अब वह तृप्त एवं मांसल देहवाला मेमना बस अतिथि की प्रतीक्षा करता है । जब तक अतिथि नहीं आता है, तब तक वह बेचारा जीता है । मेहमान के आते ही वह सिर काटकर खा लिया जाता है । मेहमान के लिए प्रकल्पित मेमना, जैसे कि मेहमान की प्रतीक्षा करता है, वैसे ही अधर्मिष्ठ अज्ञानी जीव भी यथार्थ में नरक के आयुष्य की प्रतीक्षा करता है। सूत्र- १८३-१८५
हिंसक, अज्ञानी, मिथ्याभाषी, मार्ग लूटनेवाला बटमार, दूसरों को दी हुई वस्तु को बीच में ही हड़प जानेवाला, चोर, मायावी ठग, कुतोहर-विकल्पना में निरन्तर लगा रहने वाला, धूर्त-स्त्री और अन्य विषयों में आसक्त, महाआरम्भ और महा-परिग्रहवाला, सुरा और मांस का उपभोगी बलवान्, दूसरों को सताने वाला-बकरे की तरह कर-कर शब्द करते हुए मांसादि अभक्ष्य खानेवाला, मोटी तोंद और अधिक रक्तवाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है, जैसे कि मेमना मेहमान की प्रतीक्षा करता है। सूत्र - १८६-१८७
आसन, शय्या, वाहन, धन और अन्य कामभोगों को भोगकर, दुःख से एकत्रित किए धन को छोड़कर, कर्मों की बहुत धूल संचित कर-केवल वर्तमान को ही देखने में तत्पर, कर्मों से भारी हुआ जीव मृत्यु के समय वैसे ही शोक करता है, जैसे कि मेहमान के आने पर मेमना करता है। सूत्र - १८८
नाना प्रकार से हिंसा करनेवाले अज्ञानी जीव आयु के क्षीण होने पर जब शरीर छोड़ते हैं तो वे कृत कर्मों से विवश अंधकाराच्छन्न नरक की ओर जाते हैं। सूत्र - १८९-१९१
एक क्षुद्र काकिणी के लिए मूढ मनुष्य हजार गँवा देता है और राजा एक अपथ्य आम्रफल खाकर बदले मे जैसे राज्य को खो देता है। इसी प्रकार देवताओं के कामभोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग नगण्य हैं।
मनुष्य की अपेक्षा देवताओं की आयु और कामभोग हजार गुणा अधिक हैं | 'प्रज्ञावान् साधक की देवलोक में अनेक युत वर्ष की स्थिति होती है।' -यह जानकर भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष से भी कम आयुकाल में उन दिव्य सुखों को गँवा रहे हैं। सूत्र - १९२-१९४
तीन वणिक मूल धन लेकर व्यापार को निकले । उनमें से एक अतिरिक्त लाभ प्राप्त करता है। एक सिर्फ मूल ही लेकर लौटता है । और एक मूल भी गँवाकर आता है। यह व्यवहार की उपमा है।
इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना । मनुष्यत्व मूल धन है । देवगति लाभरूप है। मूल के नाश से जीवों को निश्चय ही नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होती है। सूत्र - १९५-१९७
अज्ञानी जीव की दो गति हैं-नरक और तिर्यंच । वहाँ उसे वधमूलक कष्ट प्राप्त होता है । क्योंकि वह लोलुपता और वंचकता के कारण देवत्व और मनुष्यत्व को पहले ही हार चूका होता है । नरक और तिर्यंच-रूप दो दर्गति को प्राप्त अज्ञानी जीव देव और मनुष्य गति को सदा ही हारे हए हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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