________________
आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १०२५-१०२६
जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह जब आकाश के प्रथम चतुर्थ भाग में आ जाता है, तब वह 'प्रदोषकाल' होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जाना चाहिए । वही नक्षत्र जब आकाश के अन्तिम चतुर्थ भाग में आता है, तब उसे वैरात्रिक काल' समझकर मुनि स्वाध्याय में प्रवृत्त हो। सूत्र - १०२७-१०२८
दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में पात्रादि उपकरणों का प्रतिलेखन कर, गुरु को वन्दना कर, दुःख से मुक्त करने वाला स्वाध्याय करे । पौन पौरुषी बीत जाने पर गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण किए बिना ही भाजन का प्रतिलेखन करे । सूत्र - १०२९-१०३०
मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर गोच्छग का प्रतिलेखन करे । अंगुलियों से गोच्छग को पकड़कर वस्त्र का प्रतिलेखन करे । सर्वप्रथम ऊकडू आसन से बैठे, फिर वस्त्र को ऊंचा रखे, स्थिर रखे और शीघ्रता किए बिना उसका प्रतिलेखन करे । दूसरे में वस्त्र को धीरे से झटकाए और तीसरे में वस्त्र का प्रमार्जन करे। सूत्र-१०३१
प्रतिलेखन के समय वस्त्र या शरीर को न नचाए, न मोड़े, वस्त्र को दृष्टि से अलक्षित न करे, वस्त्र का दिवार आदि से स्पर्श न होने दे। वस्त्र के छह पूर्व और नौ खोटक करे। जो कोई प्राणी हो, उसका विशोधन करे। सूत्र - १०३२-१०३३
प्रतिलेखन के दोष-(१) आरभटा-निर्दिष्ट विधि से विपरीत प्रतिलेखन करना । (२) सम्मा -प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस तरह पकड़ना कि उसके कोने हवा में हिलते रहें । (३) मोसली-प्रतिलेखन करते हुए वस्त्र को ऊपर-नीचे, इधर-उधर किसी अन्य वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करते रहना । (४) प्रस्फोटना-धूलिधूसरित वस्त्र को जोर से झटकना । (५) विक्षिप्ता-प्रतिलेखित वस्त्र को अप्रतिलेखित वस्त्रों में रख देना । (६) वेदिकाप्रतिलेखना करते हुए घुटनों के ऊपर-नीचे या दोनों भुजाओं के बीच में घुटनों को रखना । (७) प्रशिथिल-वस्त्र को ढीला पकड़ना । (८) प्रलम्ब-वस्त्र को इस तरह पकड़ना कि उसके कोने नीचे लटकते रहें।
(९) लोल-प्रतिलेख्यमान वस्त्र का भूमि से या हाथ से संघर्षण करना । (१०) एकामर्शा-वस्त्र को बीच में से पकड़ कर एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख जाना । (११) अनेकरूपधूनना-वस्त्र को अनेक बार झटकना । (१२) प्रमाणप्रमाद-प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण है, उसमें प्रमाद करना । (१३) गणनोपगणना -प्रस्फोटन
और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शंका के कारण हाथ की अंगुलियों की पर्व रेखाओं से गिनती करना। सूत्र- १०३४
प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून, अनतिरिक्त तथा अविपरीत प्रतिलेखना ही शुद्ध होती है । उक्त तीन विकल्पों के आठ विकल्प होते हैं, उनमें प्रथम विकल्प ही शुद्ध है सूत्र - १०३५-१०३६
प्रतिलेखन करते समय जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद कथा करता है, प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है-वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-छहों कायों का विराधक होता है । प्रतिलेखन में अप्रमत्त मुनि छहों कायों का आराधक होता है । सूत्र-१०३७-१०३८
छह कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर तीसरे प्रहर में भक्तपान की गवेषणा करे । क्षुधावेदना की शान्ति, वैयावृत्य, ईर्यासमिति के पालन, संयम, प्राणों की रक्षा और धर्मचिंतन के लिए भक्तपान की गवेषणा करे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
Page 81