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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-११८१
भन्ते ! क्रोध-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? क्रोध-विजय से जीव क्षान्ति को प्राप्त होता है । क्रोध-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्व-बद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र - ११८२
भन्ते ! मान-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मान-विजय से जीव मृदुता को प्राप्त होता है । मानवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र- ११८३
भन्ते ! माया-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मायाविजय से ऋजुता को प्राप्त होता है । मायावेदनीय कर्म का बंध नहीं करता है । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र - ११८४
भन्ते ! लोभ-विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? लोभ-विजय से जीव सन्तोष-भाव को प्राप्त होता है। लोभ-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता है । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। सूत्र - ११८५
भन्ते ! राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन के विजय से जीव को क्या प्राप्त होता है ? राग, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है । आठ प्रकार की कर्म-ग्रन्थि को खोलने के लिए सर्व प्रथम मोहनीय कर्म की अट्राईस प्रकतियों का क्रमशः क्षय करता है।
अनन्तर ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच, दर्शनावरणीय कर्म की नौ और अन्तराय कर्म की पाँच-इन तीनों कर्मों की प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है । तदनन्तर वह अनुत्तर, अनन्त, सर्ववस्तुविषयक, प्रतिपूर्ण, निरावरण, अज्ञानतिमिर से रहित, विशुद्ध और लोकालोक के प्रकाशक केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन को प्राप्त होता है।
जब तक वह सयोगी रहता है, तब तक ऐर्या-पथिक कर्म का बन्ध होता है । वह बन्ध भी सुख-स्पर्शी है, उसकी स्थिति दो समय की है । प्रथम समय में बन्ध होता है, द्वितीय समय में उदय होता है, तृतीय समय में निर्जरा होती है। वह कर्म क्रमशः बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है, नष्ट होता है, फलतः अन्त में वह कर्म अकर्म हो जाता है। सूत्र - ११८६
केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् शेष आयु को भोगता हुआ, जब अन्तर्मुहूर्तपरिणाम आयु शेष रहती है, तब वह योग निरोध में प्रवृत्त होता है।
तब 'सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति' नामक शुक्ल-ध्यान को ध्याता हुआ प्रथम मनोयोग का निरोध करता है, अनन्तर वचनयोग का निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान का निरोध करता है।
श्वासोच्छ्वास का निरोध करके पाँच ह्रस्व अक्षर उच्चारण काल तक ‘समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्ति' नामक शुक्लध्यान में लीन हुआ अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करता है सूत्र-११८७
___ उसके बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए पूर्णरूप से छोड़ता है । फिर ऋजु श्रेणि को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से बिना मोड़ लिए सीधे लोकाग्र में जाकर साकारोपयुक्त-ज्ञानोपयोगी सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है । सभी दुःखों का अन्त करता है। सूत्र - ११८८
श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ आख्यात है, प्रज्ञापित है, प्ररूपित है, दर्शित है और उपदर्शित है। -ऐसा मैं कहता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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