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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१४-इषुकारीय सूत्र-४४२
देवलोक के समान सुरम्य, प्राचीन, प्रसिद्ध और समृद्धिशाली इषुकार नगर था । उसमें पूर्वजन्म में एक ही विमान के वासी कुछ जीव देवताका आयुष्य पूर्ण कर अवतरित हुए। सूत्र -४४३
पूर्वभव में कृत अपने अवशिष्ट कर्मों के कारण वे जीव उच्चकुलों में उत्पन्न हुए और संसारभय से उद्विग्न होकर कामभोगों का परित्याग कर जिनेन्द्रमार्ग की शरण ली। सूत्र -४४४
पुरुषत्व को प्राप्त दोनों पुरोहितकुमार, पुरोहित, उसकी पत्नी यशा, विशालकीर्ति वाला इषुकार राजा और उसकी रानी कमलावती-ये छह व्यक्ति थे। सूत्र-४४५
जन्म, जरा और मरण के भय से अभिभूत कुमारों का चित्त मुनिदर्शन से मोक्ष की ओर आकृष्ट हुआ, फलतः संसारचक्र से मुक्ति पाने के लिए वे कामगुणों से विरक्त हए । सूत्र-४४६
यज्ञ-यागादि कर्म में संलग्न ब्राह्मण के ये दोनों प्रिय पुत्र अपने पूर्वजन्म तथा तत्कालीन सुचीर्ण तप-संयम को स्मरण कर विरक्त हुए। सूत्र - ४४७-४४८
मनुष्य तथा देवता-सम्बन्धी काम भोगों में अनासक्त मोक्षाभिलाषी, श्रद्धासंपन्न उन दोनों पुत्रों ने पिता के समीप आकर कहा-''जीवन की क्षणिकता को हमने जाना है, वह विघ्न बाधाओं से पूर्ण है, अल्पायु हैं । इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं मिल रहा है। अतः आपकी अनुमति चाहते हैं कि हम मुनिधर्म का आचरण करें।' सूत्र-४४९-४५०
यह सुनकर पिता ने कुमार-मुनियों की तपस्या में बाधा उत्पन्न करनेवाली यह बात कही की-पुत्रो ! वेदों के ज्ञाता कहते हैं जिनको पुत्र नहीं होता है, उनकी गति नहीं होती है।
हे पुत्रो, पहले वेदों का अध्ययन करो, ब्राह्मणों को भोजन दो और विवाह कर स्त्रियों के साथ भोग भोगो। अनन्तर पत्रों को घर का भार सौंप कर अरण्यवासी प्रशस्त-श्रेष्ठ मनि बनना।" सूत्र-४५१-४५२
अपने रागादि-गुणरूप इन्धन से प्रदीप्त एवं मोहरूप पवन से प्रज्वलित शोकाग्नि के कारण जिसका अन्तःकरण संतप्त तथा परितप्त है, जो मोहग्रस्त होकर अनेक प्रकार के बहुत अधिक दीनहीन वचन बोल रहा है
जो बार-बार अनुनय कर रहा है, धन का और क्रमप्राप्त कामभोगों का निमन्त्रण दे रहा है, उस अपने पिता पुरोहित को कुमारों ने अच्छी तरह विचार कर कहासूत्र-४५३-४५६
'पढ़े हुए वेद भी त्राण नहीं होते हैं । यज्ञ-यागादि के रूप में पशुहिंसा के उपदेशक ब्राह्मण भी भोजन कराने पर तमस्तम स्थिति में ले जाते हैं। औरस पुत्र भी रक्षा करनेवाले नहीं हैं । अतः आपके उक्त कथन का कौन अनुमोदन करेगा?
ये काम-भोग क्षण भर के लिए सुख, तो चिरकाल तक दुःख देते हैं, अधिक दुःख और थोड़ा सुख देते हैं। संसार से मुक्त होने में बाधक हैं, अनर्थों की खान हैं । जो कामनाओं से मुक्त नहीं है, वह अतृप्ति के ताप से जलता
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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