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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन
अध्ययन / सूत्रांक
अध्ययन-८- कापिलीय
सूत्र - २०९
अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में वह कौन सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं ?
सूत्र - २१०
I
पूर्व सम्बन्धों को एक बार छोड़कर फिर किसी पर भी स्नेह न करे । स्नेह करनेवालों के साथ भी स्नेह न करनेवाला भिक्षु सभी प्रकार के दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है ।
सूत्र - २११-२१४
केवलज्ञान और केवलदर्शन से सम्पन्न तथा मोहमुक्त कपिल मुनिने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा मुक्ति के लिए कहा
मुनि कर्मबन्धन के हेतुस्वरूप सभी प्रकार के ग्रन्थ तथा कलह का त्याग करे ।
काम भोगों के सब प्रकारों दोष देखता हुआ आत्मरक्षक मुनि उनमें लिप्त न हो ।
आसक्तिजनक आमिषरूप भोगों में निमग्न, हित और निश्रेयस में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञ, मन्द और मूढ जीव कर्मों से वैसे ही बंध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी ।
काम-भोगों का त्याग दुष्कर है, अधीर पुरुषों के द्वारा कामभोग आसानी से नहीं छोड़े जाते । किन्तु जो सुव्रती साधु हैं, वे दुस्तर कामभोगों को उसी प्रकार तैर जाते हैं, जैसे वणिक समुद्र को ।
सूत्र - २१५
'हम श्रमण हैं'-ऐसा कहते हुए भी कुछ पशु की भाँति अज्ञानी जीव प्राणवध को नहीं समझते हैं । वे मन्द और अज्ञानी पापदृष्टियों के कारण नरक में जाते हैं ।
सूत्र - २१६
जिन्होंने साधु धर्म की प्ररूपणा की है, उन आर्य पुरुषों ने कहा है-"जो प्राणवध का अनुमोदन करता है, वह कभी भी सब दुःखों से मुक्त नहीं होता ।
सूत्र - २१७
जो जीवों की हिंसा नहीं करता, वह साधक 'समित' कहा जाता है। उसके जीवन में से पाप-कर्म वैसे ही निकल जाता है, जैसे ऊंचे स्थान से जल ।
सूत्र - २१८
संसार में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन, कायरूप किसी भी प्रकार के दण्ड का प्रयोग न करे।
सूत्र - २१९
शुद्ध एषणाओं को जानकर भिक्षु उनमें अपने आप को स्थापित करे भिक्षाजीवी मुनि संयमयात्रा के लिए आहार की एषणा करे, किन्तु रसों में मूर्छित न बने ।
सूत्र - २२०
भिक्षु जीवन-यापन के लिए प्रायः नीरस, शीत, पुराने कुल्माष, सारहीन, रूखा और मंथुबेर आदि का चूर्ण भिक्षा में ग्रहण करता है ।
सूत्र - २२१
"जो साधु लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें साधु नहीं कहा जाता है" ऐसा आचार्यों ने कहा है ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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